Saturday, April 11, 2020

घर कब आएगा?

आज इस पृष्ठ पर पढ़िए  सुप्रसिद्ध पत्रकार, संपादक, कालमनिस्ट, एवं बालसाहित्यकार पंकज चतुर्वेदी  की अपनेसमय से जुडी एक मार्मिक बाल कहानी  - घर कब आएगा?

पंकज चतुर्वेदी  
जहां ईद के दिन नमाज पढ़ने अब्बू के साथ आए थे, वहीं  टैंट के नीचे एक पलंग है, उस पर गद्दा । ना कोई बर्तन हैं ना कपड़े बचे। खाने को भी सुबह-शाम लाईन में लगना होता है। जब अम्मी हाथ बढ़ा कर खाना लेती है तो हर बार पहले मुझे देखती है, फिर आंख से बहते आंसू को दुपट्टे से पोंछती है। उसके बाद खाना ले कर आगे आ जाती है। पहले मुझे खिलाती है फिर जो बचा तो खा लिया।
“रोज-रोज ये चावल-पुलाव। अम्मी और कुछ नहीं है क्या खाने को?’’  परसो जब कहा तो अम्मी बहुत जोर से रोने लगी। बगल के पलंग की सभी औरतें आ गईं, उन्हे चुप कराने।  उसके बाद मैनें भी खाने को मांगा नहीं। अब्बू सामने वाले टैंट में हैं। वहां केवल मर्द ही हैं।
ये कितनी बुरी जगह है? अपना घर कितना अच्छा है ना ! बाहर चबूतरे पर बैठ जाओे तो कोई ना कोई सलाम-नमस्ते करता निकलता। कोई सिर पर हाथ फेर देता । और बगल वाले रमेश  चाचू तो हर समय कहते रहते, ‘रेशमा , आ जा। देख तेरे लिए क्या बनाया है चाची ने तेरी।’’ 
उस शाम राकेश , कामिल, उबेदा सभी के साथ गली में खेलते रहे। अब्बू काम से लौटे, साथ में खाना खाया और सो गए। अभी नीद  लगी ही थी कि अब्बू ने जगा दिया, ‘चुपचाप छत पर चलो। मुंह से आवाज मत निकालना।’ 
बाहर से बहुत हल्ला आ रहा था। लग रहा था कि कोई पत्थर फैंक रहा है। लोगों के भागने की, चीखने-चिल्लाने आवाजें। समझ नहीं आ रहा था। उस समय नींद से उठने का मन नहीं था। पर क्या करती अब्बू गुस्से में थे। 
आगे अब्बू, बीच में मैं और पीछे अम्मी। छत पर पहुंचे तो दूसरी तरह रमेश  चाचा खड़े थे। ‘‘ संभल कर  आना। देखो, किसी को खबर ना लगे।’’
हम सभी एक-एक कर रमेश चाचा की छत पर आ गए और वहां से उनके घर में। 
‘‘चाचू हमे उपर से क्यों बुलाया? वो भी इतनी रात में ? कोई दावत है क्या?’’
‘‘ कोई बात नहीं है। तुम अभी सो जाओ। कल बताते हैं।’’ यह कह कर रमेश  चाचा बाहर निकल गए।‘‘ भाईजान आप भीतर ही रहना। मैं संभाल लूंगा बाहर।’’
फिर सारी रात नींद तो आई नहीं। बाहर कभी धड़ाम की आवाज आती तो कभी धाएं-धाएं की। जोर का हल्ला होता और अम्मी मुझे अपने गोद में दुबका लेती। चाची को भी नींद नहीं आ रही थी। बस वो अम्मी को एक ही बात कहतीं, ‘‘भाभी, आप सो जाओ। हम हैं ना यहां। कोई चिंता मत करो।’’ 
रशीदा  बहुत देर तक यहीं सुनती रही, समझ में तो कुछ आ नहीं रहा था। पता ही नहीं चला कि कब नींद लग गई। एक बार फिर अब्बू ने जगाया, ‘बेटा जल्दी से उठो। हमें यहां से निकलना है।’’
आधी नींद की मारी रशीदा  कुनमुनाई, ‘‘अब्बू , आप चले जाओ। मैं तो यहीं रमेश  चाचू के घर रह लूंगी।’’
अब्बू ने रशीदा  को ऐसे ही गोद में झपट लिया और गली के बाहर की तरफ दौड़ लगा दी। पीछे-पीछे अम्मी थीं और दूर चाचा और चाची अपने घर के चबूतरे पर। रशीदा  ने पूरीं आंखें खोल कर देखा तो  उनके चारों तरफ हरी सी वर्दी वाले बंदूक लिए सिपाही थे। सभी लोग गली के बाहर खड़ी एक बस में बैठ गए। उसमें कई और लोग थे जो रो रहे थे। 
बस सभी को ले कर ईदगाह आ गई। सामने खुला मैदान, जमीन पर बिछे गद्दे और लोगों को चिल्लपो। सुबह हो गई थी। ईदगाह का दरवाजा बंद कर दिया गया और चारों तरफ बस पुलिस ही पुलिस। रशीदा  के लिए यह सबकुछ बहुत अलग सा था। लेकिन उधर अब्बू भी रो रहे थे और इधर अम्मी भी, वह किसी से कुछ बोल नहीं पाई। 
दिन तक कुछ खाना आया। कुछ लोगों ने बिस्किुट बांट दिए। शाम  होते-होते कुछ और बच्चे मैदान में खेलने लगे। उसने भी सोचा कि वह खेले लेकिन उसे अपने गली का कोई भी बच्चा नहीं दिखा। रमेश चाचू भी नहीं दिखे।  वह गुमसुम सी अपनी अम्मी के पास बैठ गई और धीरे-धीरे उसे नींद ने घेर लिया। 
पानी की बूंदों ने रशीदा  की नींद तोड़ दी। हड़बड़ा कर उठी तो देखा बरसात हो रही है।  टैंट में पानी टपक रहा है। गद्दे गीले ना हों इस लिए अम्मी और सभी औरतें उन्हें हाथ में लिए खड़ी हैं।  एक रात फिर जाग कर निकली।  कपड़े पूरी तरह भीग चुके थे और उन्हें बदलने के लिए दूसरे कपड़े थे ही नहीं।  सूरज निकला तो कुछ लोग बड़े-बड़े बक्से वहां ले कर आए। उनमें कपड़े भरे थे। औरतें अपने नाप के कपड़ों के लिए उस पर टूट पड़ीं। जिसके हाथ जो लग रहा था, उठा रहा था, उसके नाप का ना हेता तो फिर फैंक देतीं।  कुछ देर में अम्मी कपड़े ले कर आती दिखीं । टैंट के बने गुसलखाने में गीले कपड़े उतार कर दूसरे पहने तो वह एक फ्रॉक थी। घुटनों से नीची, काले रंग की।  
दिन चढ़ रहा था, अब इस टैंट की बस्ती में पलंग आ रहे थे। टैंट पर पॉलीथीन की परत बिछाई जा रही थी।  डॉक्टर भी आ गए थे। कुछ लोग किताबें बांट रहे थे।  बच्चे मैदान में खेलने लगे। 
एक सरीखा सारा दिन बीतता। रशीदा  को अपने दोस्तों की याद आ रही थी, रमेश  चाचा की भी। अम्मी से जब कहती ‘हम कब लौटेंगे घर?’
हर बार एक ही जवाब होता ‘‘अल्लाह जाने!’’ अब्बू से भी पूछती तो वह भी यही कहते।
 ‘काश ,अल्लाह जल्दी से चाह ले। मैं अपने घर लौट जाऊं।’ दिल ही दिल दुआ मांगती। 
कई दिन बीत गए। अब्बू दिनभर पुलिसवालों के साथ, वकीलों के साथ, कागज भरते रहते । अम्मी टैंट की दूसरी औरतों के साथ बातें करतीं और रोती रहतीं। 
ना जाने कितने दिन बीत गए इसी उम्मीद में कि आज तो अपने घर लौटेंगे। लगा आज वह दिन आ गया। बड़ी हलचल है पूरे मैदान में। सभी अपना-अपना सामान बांध रहे हैं। बाहर लाउड स्पीकर पर कुछ ऐलान हो रहा है। आधा समझ नहीं आ रहा ,‘‘..... खतरनाक बीमारी है। एक साथ रहने से फैलती है। अभी सभी को यह कैंप खाली करना होगा।’’
अब्बू भी चिंतित दिख रहे हैं और अम्मी हर दिन की तरह बस आंसू बहा रही हैं। रशीदा  सोच रही है, ‘‘आज उसकी ऊपर वाले ने सुन ली। अब तो अपनी गली में अपने घर में --’’
कुछ ही देर में फिर से ये लोग बस में थे। वही हरी वर्दी वाले बंदूकें लिए। बस सड़क पर निकली। घर की गली के रास्ते के सामने जैसे ही पहुंची, रशीदा  उछल पड़ी, ‘यहां रोक देना। हम यहीं उतरेंगे।’’ 
जैसे किसी ने उसकी बात पर ध्यान ही नहीं दिया। बस आगे निकल चुकी थी। 
‘‘यूपी का बार्डर आ गया है।  बस यहीं तक जाएगी।’’  एक सिपाही ने बोला। 
बस रूकी  और सभी लोग नीचे उतरे। ‘‘लेकिन हमारा घर तो पीछे छूट गया?’’ 
इतने दिनों में पहली बार रोई रशीदा ।
 ‘‘अब वो हमारा घर नहीं रहा। हम अपने अब्बू के गांव जा रहे हैं। अब हमारा घर वहीं होगा। फिर आगे ऊपर वाला जहां ले जाए।’’ अम्मी ने लगभग हाथ खींचते हुए बोला। रशीदा घिसटते हुए एक ऐसे रास्ते पर जा रही थी जहां उसे लगता है कि वहां उसका घर नहीं हैं।

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