Tuesday, April 23, 2013

नाट्यप्रेमियों के लिए तीन नई पुस्तकें





समीक्षात्मक टिप्पणी 
- रमेश तैलंग

नाटक हमेशा से बच्चों की सर्वप्रिय विधा रही है और उसमें  कहानी, कविता, संगीत आदि अन्य विधाओं/कलाओं का भी समावेश हो तो सोने में सुहागा हो जाता  है. कहानी का मज़ा यह है कि वह नाटक के बिना जीवित रह सकती है पर नाटक कहानी के बिना नहीं चल सकता. नाटक एक संश्लिष्ट कला है और उसके विभिन्न उपादानों में कथावस्तु का होना परमावश्यक है. पर कहानी को जब नाटक में रूपांतरित किया जाता है तो उसका प्रभाव बहु आयामी हो जाता है क्योंकि रंगमंच उसे दृश्य-श्रव्यमय कर सजीव कर देता है. यही कारण है कि कहानियों के नाट्य रूपांतर की कोशिशें लगातार हो रहीं हैं., और ऐसे प्रयोग सफल भी हो चुके हैं. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के माध्यम से तो “कहानी का रंगमंच” भी प्रभावी ढंग से रूपायित हो चुका है और बच्चों के लिए भी टी.आई.ई. यानि “थियेटर इन एड्युकेशन” की पहल जोर पकड़ चुकी है. 
इस परिप्रेक्ष्य में डॉ. भानुशंकर मेहता, जो स्वयं एक मंजे हुए रंगकर्मी रहे हैं, की दो पुस्तकें : “नाटक बनती बाल कथाएं” और “नाटक बनती देशी/विदेशी चित्र-विचित्र कहानियां” बहुत ही महत्पूर्ण हैं. पहले पुस्तक “नाटक बनती बाल कथाएं” में पंचतंत्र, अली बबा चालीस चोर जैसी पारंपरिक कथाओं के अलावा पश्चिमी लेखक ऑस्कर वाइल्ड, अगाथा क्रिष्टि, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की कहानियों के नाट्य रूपांतर शामिल हैं जो अपनी सहज, सुंदर संवाद शैली के कारण रंगमंच पर सुविधा पूर्वक मंचित किये जा सकते हैं या फिर पुस्तक रूप में भी पढ़े जा सकते हैं.
इसी तरह दूसरी पुस्तक “नाटक बनती देशी/विदेशी चित्र-विचित्र कहानियां” में भी अलग-अलग देशी-विदेशी कहानियों के बीस नाट्य रूपांतर हैं. इस पुस्तक की कहानियां यद्यपि घोषित रूप से बाल कथाएं नहीं है पर वे किशोर तथा युवा वर्ग के लिए सर्वथा उपयुक्त हैं और नाटकों के रूप में तो उनका आनंद हर वर्ग के पाठक/दर्शक उठा सकते हैं. इस पुस्तक की विशेषता यह है कि इसमें कुछ कहानियों के लिए नाटक की उप्विधायें जैसे पुतली नाटक, नृत्य नाटिका आदि का भी उपयोग किया गया है. गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की कृति “चांडालिका” तो नृत्याभिनय  के लिए पहले से लोकप्रिय रही है जिसमें संगीत का अहम स्थान रहा है. नाटक कहानी से इस मायने में जरूर आगे है कि उसमें रंगमंच के माध्यम से अभिनेता और दर्शक के बीच सीधा तादात्म्य जुड़ता है और उसकी प्रतिक्रिया भी त्वरित मिलती है.
इन दो पुस्तकों के अलावा इधर बाल साहित्य की प्रमुख लेखिका डॉ. बानो सरताज के मौलिक बाल नाटकों की भी एक पुस्तक प्रकाशित हो कर आई है –“इक्कीस एकांकी”. इन एकांकियों की पृष्ठभूमि ऐतिहासिक, पारंपरिक एवं सामजिक है और हर एकांकी में किसी न किसी जीवन मूल्य को रेखांकित किया गया है.  डॉ. बानो सरताज काफी समय से कहानियां और नाटक लिख रही हैं और वे मंचीय जरूरतों के साथ छोटे संवाद, सहज भाषा, और नाटक का समयांतर जैसी विशिष्टताओं से भी अच्छी तरह परिचित हैं. यही कारण हैं कि उनके एकांकी ज्यादा लंबे नहीं हैं जबकि डॉ. भानु शंकर मेहता के पुस्तक में अलीबाबा चालीस चोर, जैसे नाटक बहुत लंबे हैं. पर उनकी मंचीय सफलता इस आक्षेप को नकार सकती है.
एक समय था जब श्री कृष्ण, योगेन्द्र कुमार लल्ला, और डॉ. हरिकृष्ण देवसरे के संपादन में बाल नाटकों के अभूतपूर्व संग्रह निकले थे फिर धीरे-धीरे एक बड़ा अंतराल आ गया. हाल के वर्षों में डॉ. गिरिराज शरण अगरवाल, डॉ प्रकाश मनु, बलराम अग्रवाल आदि  के जो बाल नाटक -संग्रह प्रकाशित हो कर आए हैं उनसे आशा बंधती है कि यह विधा अभी आगे भी परिपुष्ट होती रहेगी और नए लेखक इस दिशा में पहल करेंगे.

समीक्ष्य पुस्तकें:
१. नाटक बनती बाल कथाएं –डॉ. भानु शंकर मेहता, : मूल्य १२०/- रूपये. (प्रथम संस्करण-२०११)
२. नाटक बनती देशी-विदेशी चित्र-विचित कहानियां –डॉ. भानु शंकर मेहता, मूल्य ८०/- रुपये (प्रथम संस्करण-२०११)
(दोनों पुस्तकों के प्रकाशक : अनुराग प्रकाशन, चौक वाराणसी-२२१००१ 
३. इकीस एकांकी – डॉ. बानो सरताज, मूल्य ३००/- रूपये (प्रथम संस्करण-२०१२) प्रकाशक : अयन प्रकाशन १./२० महरौली, दिल्ली.

(बाल वाटिका से साभार )

Wednesday, April 17, 2013

अखिलेश श्रीवास्तव चमन का नव्यतम बाल कहानी संग्रह : सब बुद्धू हैं


प्रकाशन विभाग, नई दिल्ली से २०१२ में प्रकाशित अखिलेश श्रीवास्तव चमन की ११ बाल कहानियों का संग्रह "सब बुद्धू है" बच्चों का अपेक्षित मनो रंजन करेगा ऐसी आशा की जानी चाहिए. 

           अखिलेश श्रीवास्तव काफी समय से बाल साहित्य मे  रचना रत हैं और उनकी  इन कहानियों में जो बात मुझे सबसे अधिक रुचिकर लगी  वह है कहानी कहने की कला. अन्य सुधी बाल कथाकारों की तरह मेरा भी मानना है कि कहानी में  'कहन' का  होना पहली आवश्यकता है . कहन  से मेरा तात्पर्य यहां किस्सागोई से है. ज़रूरी नहीं कि बच्चों को जिस तरह पचास वर्षों पहले  कहानी सुनाई जाती थी  उसी तरह से आज भी सुनाई जाए.. पर इसका यह अर्थ भी नहीं कि परंपरा से बिलकुल ही मुंह मोड़ लिया जाए.  आधुनिकता परंपरा का ही विकास है...इस संग्रह की कुछ कहानियों में भले ही किसी लोककथा की सुगंध समाहित हो पर उनके नए संदर्भ उन्हें समसामयिक बनाते हैं. हर कहानी में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से कोई सन्देश भी मौजूद है.
          संग्रह की पहली कहानी 'सब बुद्धू हैं'  में साढ़े पांच वर्षीय मास्टर अमोल यानि बंटी जी मुख्य पात्र हैं जो टी.वी दूरदर्शन के शौक़ीन हैं और उन्हें जो बातें अच्छी लगती हैं उनका पालन वे दूसरों से भी कराना चाहते हैं. जो उनकी बात नहीं मानता वे उनकी  नज़र में "बुद्धू" की श्रेणी में आते हैं...दूसरों को समझाते-समझाते वे स्वयं किस मुसीबत में पड़ते रहते हैं उसका  मनोरंजक वर्णन इस कहानी में है. "ऊधो माधव" दो ऐसे आलसियों की कहानी है जो शिकारियों का छद्म वेश बनाकर एक गांव में जाते हैं और अपनी बहादुरी के झूठे किस्से सुना कर गांव वालों पर अपना रौब गांठते हैं पर एक दिन जब उनकी पोल खुलती है तो गांव वालों के सामने ही उन्हें बुरी तरह शर्मिंदा होना पड़ता है. 
         "बेचारे नथ्थू लाल" अपनी ईमानदारी के कारण मुसीबतों में फंसते हैं तो "बड़कन छोटकन" ऐसे दो जुड़वां भाइयों की कहानी है जिसमें शैतानियां करता है छोटकन और सजा पाता है बड़कन क्योंकि दोनों की शक्ल-सूरत एक सी है. पर जब बड़कन का मुंह पिटाई के कारण कुछ दिनों तक सूजा हुआ रहता है तो छोटकन अलग से पहचान में आने के डर से कोई शैतानी नहीं करता. एक ही शक्ल के जुड़वां भाइयों की ऐसी कहानियां अन्यत्र भी अन्य रूप में मिल सकती हैं.
         'पापा की रसोई ' एक मजेदार कहानी है जिसमें श्रीमान पापा जी खाने में हर रोज कोई न कोई नुक्स निकालते रहते हैं और एक दिन स्वयं रसोई बनाने की चुनौती स्वीकार लेते है..नतीजा ऐसा होता है कि उनकी पस्त हालत देख कर सारे घरवाले हंस पड़ते है.
         "अंग्रेजी का ट्यूशन" एक ऐसे कंजूस पिता की कहानी है जो अपने नालायक बच्चे को अंग्रेजी पढ़ाने के लिए अच्छा पढ़ा-लिखा  शिक्षक तो चाहता है पर उसे समुचित पैसे नहीं देना चाहता. आखिर  उसे भी एक दिन नहले पर दहला मिल जाता है और फिर उसे अपनी कंजूसी भूल कर शिक्षक को उचित पारिश्रमिक देना पड़ता है. 'ठग का बेटा' है तो नए संदर्भ की कहानी पर लगती है किसी लोक कथा की तरह... राजू के पिता की असामयिक मृत्यु हो जाती है और जब उसे मां  से अपने पिता के ठगी के व्यवसाय के बारे में पता चलता है तो वह भी इसी व्यवसाय को अपना कर लोगों को ठगना शुरू कर देता है.  पर एक दिन जब राजू की हरकतों से तंग आकर मामा उसे बोरे में बंद कर नदी में फेंकने जाने लगता  हैं तो राजू अपने चातुर्य से किस तरह इस मुसीबत से निजात पाता है, वह इस कथा को पढकर ही जाना जा सकता है.
          'खब्बू मिसिर" एक ऐसे निकम्मे व्यक्ति की  कहानी है जो "काम के न काज के, सौ मन अनाज के  सिद्ध होते हैं प र एक दिन उनकी भी अक्ल ठिकाने आती है. 
          संग्रह की अंतिम कहानी -' हबरा की गारी' एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो' ड' को' र' बोलता है और अपने उच्चारण की  इस कमी के कारण हास्यास्पद स्थितियों में फंसता रहता है.
          कुल मिला कर इस संग्रह की सभी कहानियां बच्चों की रुचि और उनके उपयुक्त भाषा को ध्यान में रख कर लिखी गई हैं पर एक़ दो बातें मुझे विशेष  रूप से कहनी  हैं -  
          पहली तो यह कि एक कहानी का शीर्षक  जिसे "अंग्रेजी का ट्यूशन" का नाम दिया  गया है वह  "अंग्रेजी की ट्यूशन " होता तो उचित होता क्योंकि आम तौर पर इसे "अंग्रेजी की ट्यूशन" ही कहा जाता है या फिर इसे  "अंग्रेजी का ट्यूटर" नाम दे दिया जाता. फिर भी संभव है कि ट्यूशन को कहीं-कहीं  स्त्रीलिंग संज्ञा की जगह पुल्लिंग संज्ञा के  रूप में इस्तेमाल किया जाता हो. 
          दूसरी बात यह कि संग्रह की अंतिम कहानी "हबरा की गारी" में किसी-किसी को उच्चारण की ऐसी कमी को हास्य का उपादान बनाना अप्रिय भी लग सकता है .  पर चूंकि यह सिर्फ एक  बाल कथा है इसलिए आशा है कि पाठक इसे सही परिप्रेक्ष्य में सहजता से लेंगे.

- रमेश तैलंग 

समीक्ष्य पुस्तक 
प्रकाशक 

प्रकाशन विभाग, (सूचना और प्रसारण मंत्रालय-भारत सरकार)
सूचना भवन, सी जी ओ काम्प्लेक्स,
लोदी रोड, नई दिल्ली-११०००३ 
पेपरबैक-मूल्य: १२० रूपये.