Saturday, February 7, 2015

हिंदी में बालसाहित्य की वर्तमान स्थिति

हिंदुस्तानी अकादमी, इलाहाबाद द्वारा 31-1-2015 को अकादमी के सभागार में हिंदी में बालसाहित्य की वर्तमान स्थिति पर एक संगोष्ठी आयोजित की गई। संगोष्ठी में अकादमी के अध्यक्ष एवं साहित्यकार डा. सुनील जोगी, कार्यकारी सचिव श्री बृजेश चन्द्र, कोषाध्यक्ष डा. रविनन्दन सिंह की प्रतिभागिता के साथ डा. शेरजंग गर्ग, डा. दिविक रमेश तथा रमेश तैलंग ने वक्ता के रूप में समक्ष अपने-अपने विचार रखे। यहां प्रस्तुत है एक आलेख -






                  
हिंदी में बालसाहित्य की वर्तमान स्थिति
-         रमेश तैलंग
बीसवीं शताब्दी के अवसान के बाद इक्कीसवीं शताब्दी में  हिंदी बालसाहित्य की यह एक बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है कि उसकी  गूंज आज हिंदी साहित्य जगत में हर जगह सुनाई दे रही है। इस तथ्य के बावजूद कि हिंदी बालसाहित्य के समक्ष अभी भी अनेक आसन्न चुनौतियां मुंह बाए खड़ी हैं, मुझे यह कहने में संकोच नहीं कि वर्तमान में बालसाहित्य, वयस्क साहित्य के समानांतर, एक स्वतंत्र धारा के रूप में प्रवाहित हो रहा है और यदि वयस्क साहित्य के कुछ स्वनामधन्य घंटाकर्ण आलोचक अभी भी इस सच्चाई को स्वीकारने में अपने को असमर्थ पा रहे हैं तो यह हिंदी बालसाहित्य का नहीं, स्वयं उनका दुर्भाग्य है। जिस भारतेन्दु युग में आधुनिक हिंदी साहित्य का उत्स दिखाई देता है उसी भारतेन्दु युग में आधुनिक हिंदी बालसाहित्य का उत्स भी मौज़ूद है। अंधेर नगरी चौपट राजा.. जैसा नाटक प्रौढ और बालसाहित्य दोनों में अनूठी रचना के रूप में स्वीकृत है..अमीर खुसरो की मुकरियों पर भी यह बात उतनी ही शिद्दत से लागू होती है....आगे महावीर प्रसाद द्विवेदी युग से चलते-चलते हिंदी (जिसे आप हिंदुस्तानी भी कहें तो मुझे कोई ऐतराज नहीं) बालसाहित्य ने बालकविता से शुरु होकर गद्य की अनेक विधाओं में अपना हस्तक्षेप करते हुए एक-डेढ़ शताब्दी की यात्रा तो संपन्न कर ही ली है जिसे हम हिंदी बालसाहित्य की परंपरा का नाम दे सकते हैं।  


 
यहां आज भले ही हम हिंदी में बालसाहित्य की वर्तमान स्थिति पर विचार करने जा रहे हैं पर यह कार्य हिंदी बालसाहित्य के विकास की परंपरा से परचे बिना नहीं किया जा सकता. हिंदी के बड़े-से बड़े लेखकों ने बालसाहित्य रचा है और उसके अतीत पर हम गर्व कर सकते हैं। हमारे अपने समय के स्मरणीय बालसाहित्यकारों में प्रेमचंद, श्रीधर पाठक, महावीर प्रसाद द्विवेदी, दिनकर, महादेवी वर्मा, सुमित्रा कुमारी सिन्हा, जहूर बख्श, रामनरेश त्रिपाठी मन्नन द्विवेदी, सोहनलाल द्विवेदी, निरंकार देव सेवक, शकुंतला सिरोठिया, द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी अमृतलाल नागर, मस्तराम कपूर, डा0 श्री प्रसाद से ले कर डा0 हरिकृष्ण देवसरे, जयप्रकाश भारतीडा0 राष्ट्रबंधु, शंकर सुल्तानपुरी, प्रकाश मनु, देवेंद्र कुमार, दिविक रमेश, विनायक, हरिकृष्ण तैलंग, हसन जमाल, रोहिताश्व अस्थाना, शंकर सुलतानपुरी, संजीव जायसवाल संजय, अखिलेश श्रीवास्तव चमन, सुरेंद्र विक्रम, उषा यादव, क्षमा शर्मा, पंकज चतुर्वेदी, जाकिर अली रजनीश, मोहम्मद साजिद खान, मो. अरशद खान, आदि युवा एवं वरिष्ठ बालसाहित्यकारों की लंबी पांत है जिनकी पूरी सूची दी जाए, तो ऐसे कई आलेख सैंकड़ों पृष्ठों में भी नहीं समा सकेंगे।
यहां यह बात स्मरण रखने योग्य है कि शिक्षा और बालसाहित्य दोनों एक दूसरे पर परस्पररूप से निर्भर है। भारत की आशा उसकी नई पीढ़ी पर ही टिकी है और नई पीढ़ी को यदि यांत्रिकता और संवेदनहीनता से बचाए रखना है तो न केवल श्रेष्ठ बालसाहित्य को उसके जीवन का अंग बनाना होगा बल्कि इसके लिए, प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च्तर शिक्षा तक के ढांचे में भी वांछित परिवर्तन लाना होगा।
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा में बालसाहित्य अभी भी पाठ्यपुस्तकों की परिधि को नहीं लांघ सका है। उच्च्तर शिक्षा के क्षेत्र में भारत के विभिन्न विश्वविद्यालय हिंदी बालसाहित्य के विविध पक्षों और बालसाहित्यकारों के महत्वपूर्ण अवदान पर शोध करने वाले विद्यार्थियों को पी.एचडी और डी.लिट की शताधिक उपाधियां प्रदान कर चुके हैं, अनेक शोध प्रबंध प्रकाशित भी हो चुके है, फ़िर भी स्नातकीय तथा परास्नातय उपाधि हेतु बालसाहित्य को स्वतन्त्र विषय के रूप में स्वीकृत होने के लिए  आज भी संघर्ष करना पड़ रहा है। इस संबंध में मैने जनसत्ता के चौपाल स्तम्भ में गत 1 जनवरी को एक टिप्पणी लिख कर विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया था जिसमें यह रेखांकित किया था कम से कम 15-20 विदेशी विश्वविद्यालय अंग्रेजी भाषा में स्नात्कोत्तर तथा परास्नातक उपाधि के लिये बालसाहित्य के पाठ्यक्रम चला रहे हैं पर भारतीय विश्वविद्यालयों में अभी इसकी शुरुआत भी नहीं है। 
 हिंदी की नामी-गिरामी पत्रिकाएं जिनमें, आजकल, मधुमती, साक्षात्कार, अभिनव इमरोज, साहित्य अमृत, नवनीत, द्वीप लहरी, कथा,  आदि प्रमुख हैं,  हर वर्ष बालसाहित्य पर केंद्रित विशेषांक निकाल रही हैं। देश के प्रतिष्ठित हिंदी सेवी संस्थान हिंदी बालसाहित्य पर न केवल महत्वपूर्ण संगोष्ठियां आयोजित कर रहे हैं बल्कि बालसाहित्यकारों  की श्रेष्ठ कृति/अथवा उनके समग्र योगदान के लिये जिला/राज्य एवम राष्ट्रीय स्तर के छोटे-बड़े पुरस्कार भी वितरित कर रहे हैं। यह अलग बात है कि इन सबके पीछे जो व्यवस्था और कार्यप्रणाली है उसमें अधिक पारदर्शिता, उदारता, और सुधार की  सतत गुंजाइश है।
कविता, कहानी, उपन्यास और नाटक सभी विधाओं में नव्यतम प्रयोगों के साथ हिंदी मे अब विपुल मात्रा में साहित्य रचा जा रहा है और उन बाल-पात्रों की भी चिंता की जा रही है जिन्हें हाशिये पर पड़े पात्रों की संज्ञा दी जाती है। विस्तार के भय से यहां मैं उन सब का विवरण नहीं दे पा रहा हूं पर संदर्भवश बालसाहित्य की आलोचना विधा पर थोड़ी चर्चा करना अवश्य चाहूंगा। संदर्भ यह है कि गत अक्टूबर 2014 में प्रतिष्ठित हिंदी पत्रिका कथा ने सम्भवत: पहली बार बालसाहित्य आलोचना विशेषांक निकाला जिसमें हिंदी के एक सम्माननीय वरिष्ठ आलोचक ने अपने साक्षात्कार में कहा -बालसाहित्य में आलोचना की कोई व्यवस्थित परंपरा नहीं है। पता नहीं यह उनकी पीड़ा थी या व्यंजनात्मक टिप्पणी! लेकिन व्यवस्थित परंपरा से उनका अभिप्राय क्या था इसे मैं आज भी समझने की कोशिश कर रहा हूं! सम्भव है उनकी टिप्पणी का संदर्भ कुछ और रहा हो पर बालसाहित्य के एक शिक्षार्थी के रूप में मैं इतना तो निवेदन करना चाहूंगा ही कि बीसवीं शती के सातवें दशक से लेकर अबतक जो शताधिक शोध-प्रबंध लिखे गए या प्रकाशित हुए फ़िर चाहे वे बालसाहित्य के विविध पक्षों को उद्घाटित करते हों अथवा किसी बालसाहित्यकार के सम्पूर्ण अवदान को,  क्या वे व्यवस्थित आलोचना के खांचे मे फ़िट नहीं होते? 1967 में सुपरिचित बालसाहित्यकार श्री मनोहर वर्मा के संपादन मे राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित भारतीय बालसाहित्य –एक विवेचन, जो मधुमती पत्रिका के बालसाहित्य विशेषांक का ही पुस्तक रूप था,  क्या बालसाहित्य की व्यवस्थित आलोचना नहीं थी? इसके अलावा दिल्ली के राष्ट्रीय बाल भवन द्वारा डा. मधु पंत के संपादन में बालसाहित्य पर प्रकाशित अनेक संकलन जैसे त्रिविधा, त्रिधारा, त्रिवेणी, त्रिसंगम, त्रिवर्णा, त्रिसाम्या, त्रिपदा, त्रिदिशा, त्रिसंध्या, त्रिपथगा, जिनमें देश के अनेकानेक बालसाहित्यकारों, संपादकों, प्रकाशकों तथा पाठको ने बालसाहित्य की समग्रता पर जमकर विमर्श किया, वह भी बालसाहित्य आलोचना के क्षेत्र में अपने ढंग का अभूतपूर्व प्रयोग था। यही नहीं, पिछले कुछ वर्षों में शैक्षिक शोधप्रबंधों से परे कुछ और भी किताबें आई हैं जो हिंदी बालसाहित्य आलोचना की समृद्ध  विधा को रेखांकित करती हैं –ये पुस्तकें हैं –हिंदी बालकविता का इतिहास –डा. प्रकाश मनु, हिंदी बालसाहित्य-नई चुनौतियां और संभावनाएं-प्रकाश मनु, हिंदी बालसाहित्य के शिखर व्यक्तित्व - प्रकाश मनु, बालसाहित्य के प्रतिमान  - नागेश पांडेय संजय, हिंदी बालसाहित्य - डा.सुरेन्द्र विक्रम का योगदान - स्वाति शर्मा, डा. दिविक रमेश और उनका बालसाहित्य - सं. शकुंतला कालरा, हरिकृष्ण देवसरे का बालसाहित्य - ओमप्रकाश कश्यप, बालसाहित्य का स्वरूप और रचना संसार- सं.-शकुंतला कालरा, बालसाहित्य के युग निर्माता - जयप्रकाश भारती, सं-शकुंतला कालरा एवम रचना कुमार, किशोर साहित्य की संभावनाएं एवम रवींद्रनाथ ठाकुर का बालसाहित्य-दोनों के संपादक देवेंद्र कुमार देवेश, बच्चे, बचपन और बालसाहित्य –अखिलेश श्रीवास्तव चमन, हिंदी बालसाहित्य विमर्श –साहित्यिक साक्षात्कार – हिंदी बालसाहित्य विचार और चिंतन, तथा हिंदी बालसाहित्य विधा-ववेचन (तीनों पुस्तकों की संपादक –डा. शकुंतला कालरा। कहने का तात्पर्य यह कि हिंदी में बालसाहित्य की आलोचना विधा इतनी दरिद्र नहीं है जितना उसे प्रचारित किया जा रहा है।
विदेशी बालसाहित्य के वरक्स तुलनात्मक रूप से देखें तो हिंदी बालसाहित्य अपनी श्रेष्ठता में इक्कीस होते हुए भी भाषायी सीमा,समुचित प्रचार एवम वांछित विपणनतंत्र की कमजोरी के कारण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वह स्थान नहीं पा सका है जिसका वह हकदार है। हिंदी बाल पुस्तकों  को अपना बाजार देश के भीतर और बाहर दोनों जगह खोजना  पड़्ता है। हालांकि एन.बी.टी, प्रकाशन विभाग और कुछ निजी बडे प्रकाशकों ने इस क्षेत्र मे बड़ी लकीर खींचने की कोशिशें की हैं फ़िर भी पुस्तकों का छपना एक बात है और उनका सही पाठकों के हाथों तक पहुंचना दूसरी बात। पुस्तक मेलों में रंगविरंगी बाल-पुस्तकें देखकर बच्चे हर जगह आकर्षित होते हैं और उन पुस्तकों को बड़े ही चाव से उलटते-पलटते हैं पर इसमें दो राय नहीं कि बच्चों में साहित्य के प्रति अनुराग  जगाने तथा साहित्य की जीवन में भूमिका समझाने का पहला दायित्व अभिभावकों का ही होता है। यथार्थ में इस दायित्व का समुचित वहन कितने अभिभावक करते हैं यह किसी से छुपा नहीं है। अंगरेजी बालपुस्तकों का वर्चस्व अभी भी बना हुआ है और हिंदी बालपुस्तकें अभी भी अपना रोना रोती नजर आती हैं। पब्लिक स्कूलों में यदि अंग्रेजी की जगह हिंदी का वाक्य मुंह से निकल जाये तो प्रताडंना के साथ-साथ जुर्माना भी लग जाता है और यह सब आकस्मिक नहीं, बल्कि प्रायोजित ढंग से हो रहा है। सारा खेल उपनिवेशवादी मानसिकता को संरक्षण देने वालों का रचा हुआ है।
हिंदी बालसाहित्य के संबंध मे यहां कुछ और चुनौतियों की चर्चा भी मैं करना चाहूंगा जिन पर कम बात की जाती है। मोटे रूप में देखें तो बालसाहित्य की उपादेयता उन्हीं के लिए है जो साक्षर हैं, शिक्षित हैं, और जिनमें साहित्य के प्रति अनुराग, संवेदना तथा ललक कमोवेश रूप में विद्यमान है। आधुनिक भारत में जिस तरह की आयातित शिक्षण पद्धति की ओर न्वधनाढ्य ,व मध्य वर्ग भाग रहा है वह बच्चों को रोबोट तो बना सकती है पर मनुष्य नहीं। कैरियरवादी शिक्षण में साहित्य की क्या जगह रह गई है यह आप पब्लिक स्कूलों के प्राथमिक शिक्षण के पाठ्यक्रम को ही देखकर पता लगा सकते हैं।  सुपरिचित लेखक, चिंतक डा0 प्रेममपाल शर्मा ने अपने अनेक लेखों में इस बात को रेखांकित किया है कि आज की शिक्षण पद्धति ने बच्चों को अनेक वर्गों में बांट दिया है जिनमें संपन्न और विपन्न दो बहुत बड़े वर्ग शामिल हैं। एक वर्ग ऐसा है जहां संपन्नता के बल पर महत्वाकांक्षाएं मूर्तमान होती हैं और दूसरा वर्ग ऐसा है जहां विपन्नता के चलते महत्वाकांक्षाएं कुंठाओं में परिवर्तित हो जाती हैं। यह हमारे वर्तमान में बाजार के बढ़ते प्रभाव का प्रतिफल है।
बाजार पहले भी था, पर जैसा कि एक लेखक ने कहा है, तब वह आपकी जरूरतें पूरी करता था। अब वह आपकी जरूरतें ही पूरी नहीं करता बल्कि जरूरतें पैदा भी करता है और ऐसी दुनिया में जीने के लिए आपको मजबूर करता है जिसमें साहित्य या विचार सिरे से नदारद है। आज के बच्चों की जिंदगी देखिए  ना, छोटी- छोटी उम्र के बच्चे आज पारंपरिक खेलों को छोड़ कर मोबाइल लैपटाप, टी-वी- गेम्स या उबाऊ सीरियलों में उलझे हे  हैं। आठों पहर बोझिल होमवर्क का भूत उनके सिर पर सवार रहता है। सिमटते परिवार और उनमें भी बुजुर्गों की अनुपस्थिति बच्चों की दिनचर्या में बालसाहित्य का प्रवेश करने ही नहीं देते।  प्राथमिक शिक्षा की बात करें तो हिंदी पाठ्यपुस्तकों में उन्हें ऐसी रचनाएं पढ़ाई जाती हैं जिनके मूल रचनाकारों का परिचय तक नहीं है और सुप्रसिद्ध रचनाओं की भौंड़ी नकल दूसरे रचनाकारों के नाम से शामिल की जा रही है। बालसाहित्य की जो पुस्तकें लिखी जा रही हैं उनके प्रकाशन का आसन्न संकट बना हुआ है और जिन सौभाग्यशाली बालसाहित्यकारों की पुस्तकें प्रकाशन का सबेरा देखती हैं या जिनके सौभाग्य से अनेक संस्करण भी निकल जाते हैं उनमें  संस्करण का वर्ष तो देखने को मिल जाता है पर उस संस्करण कीआवृत्ति पहली है, दूसरी है या तीसरी है इसे ढ़ूंढने में या तो आपकी आंखों के आगे अंधेरा छा जाएगा  या फ़िर आपका पसीना छूट जाएगा। ऐसी परिस्थितियों में डा0 प्रकाश मनु जैसे समर्पित बाल साहित्यकार जो वर्षों से हिंदी बालसाहित्य का वृहत् इतिहास लिखने की धुन में लगे हैंकिस तरह की दुष्कर परिस्थितियों से होकर गुजर रहे होंगे इसकी कल्पना आप भली भांति कर सकते हैं।
आप सोच रहे होंगे कि बालसाहित्य की श्रेष्ठ रचनाओं या कृतियों पर चर्चा न करके मैं यह कौनसा प्रलाप करने यहां खड़ा हो गया हूं। पर मित्रो, यह तथाकथित प्रलाप भी उसी  यथार्थ का एक हिस्सा है जिसे आप हिंदी में बालसाहित्य की वर्तमान स्थिति नाम दे रहे हैं। अपने पैंतीस वर्षों के मुट्ठी भर बालसाहित्य लेखन के बाद भी मुझे लगातार ऐसा महसूस होता है  जैसे एक दुःस्वप्न मेरा पीछा कर रहा है। दुःस्वप्न यह है कि बाल साहित्य की धारा में जल तो कम होता जा रहा है और प्रस्तर खंडों की संख्या बढ़ती जा रही है जिससे बालसाहित्य की धारा के सहज प्रवाह में विचलन और अवरोध दोनों पैदा हो रहे हैं। संभव है कि आपको यह निराशा भरा वाक्य अच्छा न लगे पर जरा इसकी गंभीरता पर आप सोचें कि एक बीज के खराब होने का अर्थ है - पूरे वृक्ष का खराब हो जाना और एक पूरे वृक्ष के खराव होने का अर्थ है संपूर्ण वृक्षावली की सेहत को खतरा। बाल साहित्य के वर्तमान परिदश्य पर नजर डालें तो ऐसा साहित्यिक प्रदूषण आपको जगह-जगह देखने को मिल जाएगा।
यूरोपियन तथा अफ़्रीकी देशों में बालपुस्तकों के संदर्भ में एक सांस्कृतिक संकट उत्पन्न हो गया है। वहां बालसाहित्य में जो कुछ अनुपस्थित है उसको लेकर अनेक सवाल उठाए जा रहे हैं।  यूरोप में बालसाहित्य के आलोचकों को इस बात को लेकर चिंता है कि वहां की पुस्तकों में श्वेतवर्णी पात्र ही क्यों भरे पड़े है, और श्याम वर्णी पात्र क्यों नहीं है? या फ़िर विकलांग  बालपात्रों को ले कर अच्छी बाल पुस्तकें क्यों नहीं लिखी जा रही हैं। अफ़्रीका की सुविख्यात शिक्षाविद् ,व लेखिका डा0 फातिमा अकीलु ने तो आयातित उपनिवेशवादी संस्कृति दर्शाने वाली बाल पुस्तकों को अपने देश की शिक्षा प्रणाली से हटवा कर स्वयं ऐसी अनेकों बालपुस्तकें लिख कर क्रांति कर दी है जिनमें अफ़्रीकी संस्कृति का वर्चस्व दिखाई देता है अन्यथा तो उपनिवेशवादी संस्कृति वाली बालपुस्तकों  से तो वहां के बच्चे अपना संबंध् जोड़ ही नहीं पाते थे क्योंकि उन पुस्तकों में न तो उन जैसे पात्र थे और न ही उनका अपना सांस्कृतिक परिवेश था। भारतीय बालसाहित्य में भी  ऐसा बहुत कुछ अनुपस्थित है जो हमें खलता है पर फ़िलहाल इतने बड़े स्तर पर ऐसा सांस्कृतिक संकट हिंदी बाल साहित्य में नहीं उपजा है। फ़िर भी जरूरी है कि हम बालसाहित्यकार अपने अनुभवों और दृष्टिफलक का विस्तार करें जिससे हमारी हिंदी की रचनाओं को विश्वव्यापी प्रसार मिल सके।
स्वतंत्रता के बाद वैज्ञानिक तकनीक और औद्योगिक क्षेत्र में हुए त्वरित विकास ने भारत को एक नई जीवनशैली  दी हैं। जिसके कुछ सकारात्मक परिणाम हुए हैं तो कुछ नकारात्मक परिणाम भी हुए हैं।  सकारात्मक ये कि जीवन के सभी क्षेत्रों में सुख, सुविधाओं तथा भौतिक संपन्नता में बढ़ोतरी हुई है और नकारात्मक ये कि यह सारा वैभव मानव समाज के एक सीमित वर्ग में सिमटकर रह गया है। यांत्रिक निर्भरता, क्रूरता, संवेदनहीनता तथी एकाकीपन जैसी व्याधियां  न केवल सहज स्वीकार्य होने लगी हैं अपितु वे हमारे जीवन को अपनी तरह से नियंत्रित एवं संचालित भी करने लगी हैं। मौलिक स्तरीय रचनात्मक बालसाहित्य को अब तेजी से दोयम दर्जे का सूचनात्मक  बालसाहित्य स्थानापन्न कर रहा है। एक जमाना था जब दिल्ली के पटरीबाजार में उत्कृष्ट साहित्य की पुस्तकें कम से कम कीमत पर सहजता से उपलब्ध हो जाया करती थीं और एक जमाना अब है जब हर जगह आयातित,व्यावसायिक प्रतियोगिता तथा तकनीकी पुस्तकों-पत्रिकाओं का अंबार लगा दिखता है और बालसाहित्य तो दूर की बात, वयस्क साहित्य की पुस्तकें भी वहां ढूंढे नहीं मिलतीं।  विकसित प्रोद्योगिकी हमें भौतिक रूप से समृद्ध तो कर रही है पर हमें और हमारी नई पीढ़ी को सम्वेदनशील होना है तो इसमें साहित्य और कलाकर्म ही आपका सहायक होगा.
अंत में एक छोटी-सी महत्वपूर्ण बात कहकर मैं अपने वक्तव्य को यहां विराम देना चाहूंगा। और वह यह है कि यदि आधुनिक भारत की बालसाहित्य और बालसाहित्यकारों से कुछ अपेक्षाएं हैं तो बालसाहित्यकारों की भी अपने देश के कर्णधारों से कुछ अपेक्षाएं हैं। ऐसा क्यों नहीं होता कि सरकारें मसिजीवी साहित्यकारों के प्रति संवेदनशील रहती है। 
मसिजीवी हिंदी साहित्यकारों की स्थित दयनीय भले ही न हो पर चिंतनीय अवश्य है। उनके हितों को ध्यान में रखते हुए  कम से कम पुस्तकों के प्रकाशन के समय प्रकाशकीय विवरण में मुद्रित प्रतियों की संख्या, आवृत्ति या संस्करण की संख्या तथा लेखकों की एक वाक्यीय धोषणा कि उन्हें उनकी रचना का समुचित पारिश्रमिक दिया जा चुका है, आदि का उल्लेख कानूनी रूप से अनिवार्य कर दिया जाना चाहए। 
लेखक-प्रकाशक के संबंध के बीच पारदर्शिता बनाए रखने में यह एक सार्थक कदम होगा। जहां तक बालसाहित्य की पुस्तकों की कीमत का संबंध् है तो निजी प्रकाशकों की तो सदा से मनमानी चली है। हां, सरकारी स्वायत्त प्रकाशन गृह काफी समय तक इस पर कुछ नियंत्रण रखे हु, थे। लेकिन अब वे भी इस दौड़ में निजी प्रकाशकों को पीछे छोड़ रहे हैं। यदि यही प्रतियोगिता चलती रही तो बालसाहित्य का वर्तमान तो प्रभावित होगा ही, उसका भविष्य भी संकटापन्न हो जाएगा। इसलिए इस  विषम स्थिति से बचने के लिए जरूरी है कि लेखक, प्रकाशक और पाठक के त्रिकोणीय संबंधों में पारदर्शिता, शुचिता और पारस्परिक विश्वसनीयता सतत रूप से बनी रहे । एक संवेदनशील बाल-साहित्यकार होने के नाते कम से कम इतनी दुआ तो मुझे करनी ही चाहिए।#




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