प्रकाशन विभाग, नई दिल्ली से २०१२ में प्रकाशित अखिलेश श्रीवास्तव चमन की ११ बाल कहानियों का संग्रह "सब बुद्धू है" बच्चों का अपेक्षित मनो रंजन करेगा ऐसी आशा की जानी चाहिए.
अखिलेश श्रीवास्तव काफी समय से बाल साहित्य मे रचना रत हैं और उनकी इन कहानियों में जो बात मुझे सबसे अधिक रुचिकर लगी वह है कहानी कहने की कला. अन्य सुधी बाल कथाकारों की तरह मेरा भी मानना है कि कहानी में 'कहन' का होना पहली आवश्यकता है . कहन से मेरा तात्पर्य यहां किस्सागोई से है. ज़रूरी नहीं कि बच्चों को जिस तरह पचास वर्षों पहले कहानी सुनाई जाती थी उसी तरह से आज भी सुनाई जाए.. पर इसका यह अर्थ भी नहीं कि परंपरा से बिलकुल ही मुंह मोड़ लिया जाए. आधुनिकता परंपरा का ही विकास है...इस संग्रह की कुछ कहानियों में भले ही किसी लोककथा की सुगंध समाहित हो पर उनके नए संदर्भ उन्हें समसामयिक बनाते हैं. हर कहानी में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से कोई सन्देश भी मौजूद है.
संग्रह की पहली कहानी 'सब बुद्धू हैं' में साढ़े पांच वर्षीय मास्टर अमोल यानि बंटी जी मुख्य पात्र हैं जो टी.वी दूरदर्शन के शौक़ीन हैं और उन्हें जो बातें अच्छी लगती हैं उनका पालन वे दूसरों से भी कराना चाहते हैं. जो उनकी बात नहीं मानता वे उनकी नज़र में "बुद्धू" की श्रेणी में आते हैं...दूसरों को समझाते-समझाते वे स्वयं किस मुसीबत में पड़ते रहते हैं उसका मनोरंजक वर्णन इस कहानी में है. "ऊधो माधव" दो ऐसे आलसियों की कहानी है जो शिकारियों का छद्म वेश बनाकर एक गांव में जाते हैं और अपनी बहादुरी के झूठे किस्से सुना कर गांव वालों पर अपना रौब गांठते हैं पर एक दिन जब उनकी पोल खुलती है तो गांव वालों के सामने ही उन्हें बुरी तरह शर्मिंदा होना पड़ता है.
"बेचारे नथ्थू लाल" अपनी ईमानदारी के कारण मुसीबतों में फंसते हैं तो "बड़कन छोटकन" ऐसे दो जुड़वां भाइयों की कहानी है जिसमें शैतानियां करता है छोटकन और सजा पाता है बड़कन क्योंकि दोनों की शक्ल-सूरत एक सी है. पर जब बड़कन का मुंह पिटाई के कारण कुछ दिनों तक सूजा हुआ रहता है तो छोटकन अलग से पहचान में आने के डर से कोई शैतानी नहीं करता. एक ही शक्ल के जुड़वां भाइयों की ऐसी कहानियां अन्यत्र भी अन्य रूप में मिल सकती हैं.
'पापा की रसोई ' एक मजेदार कहानी है जिसमें श्रीमान पापा जी खाने में हर रोज कोई न कोई नुक्स निकालते रहते हैं और एक दिन स्वयं रसोई बनाने की चुनौती स्वीकार लेते है..नतीजा ऐसा होता है कि उनकी पस्त हालत देख कर सारे घरवाले हंस पड़ते है.
"अंग्रेजी का ट्यूशन" एक ऐसे कंजूस पिता की कहानी है जो अपने नालायक बच्चे को अंग्रेजी पढ़ाने के लिए अच्छा पढ़ा-लिखा शिक्षक तो चाहता है पर उसे समुचित पैसे नहीं देना चाहता. आखिर उसे भी एक दिन नहले पर दहला मिल जाता है और फिर उसे अपनी कंजूसी भूल कर शिक्षक को उचित पारिश्रमिक देना पड़ता है. 'ठग का बेटा' है तो नए संदर्भ की कहानी पर लगती है किसी लोक कथा की तरह... राजू के पिता की असामयिक मृत्यु हो जाती है और जब उसे मां से अपने पिता के ठगी के व्यवसाय के बारे में पता चलता है तो वह भी इसी व्यवसाय को अपना कर लोगों को ठगना शुरू कर देता है. पर एक दिन जब राजू की हरकतों से तंग आकर मामा उसे बोरे में बंद कर नदी में फेंकने जाने लगता हैं तो राजू अपने चातुर्य से किस तरह इस मुसीबत से निजात पाता है, वह इस कथा को पढकर ही जाना जा सकता है.
'खब्बू मिसिर" एक ऐसे निकम्मे व्यक्ति की कहानी है जो "काम के न काज के, सौ मन अनाज के सिद्ध होते हैं प र एक दिन उनकी भी अक्ल ठिकाने आती है.
संग्रह की अंतिम कहानी -' हबरा की गारी' एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो' ड' को' र' बोलता है और अपने उच्चारण की इस कमी के कारण हास्यास्पद स्थितियों में फंसता रहता है.
कुल मिला कर इस संग्रह की सभी कहानियां बच्चों की रुचि और उनके उपयुक्त भाषा को ध्यान में रख कर लिखी गई हैं पर एक़ दो बातें मुझे विशेष रूप से कहनी हैं -
पहली तो यह कि एक कहानी का शीर्षक जिसे "अंग्रेजी का ट्यूशन" का नाम दिया गया है वह "अंग्रेजी की ट्यूशन " होता तो उचित होता क्योंकि आम तौर पर इसे "अंग्रेजी की ट्यूशन" ही कहा जाता है या फिर इसे "अंग्रेजी का ट्यूटर" नाम दे दिया जाता. फिर भी संभव है कि ट्यूशन को कहीं-कहीं स्त्रीलिंग संज्ञा की जगह पुल्लिंग संज्ञा के रूप में इस्तेमाल किया जाता हो.
दूसरी बात यह कि संग्रह की अंतिम कहानी "हबरा की गारी" में किसी-किसी को उच्चारण की ऐसी कमी को हास्य का उपादान बनाना अप्रिय भी लग सकता है . पर चूंकि यह सिर्फ एक बाल कथा है इसलिए आशा है कि पाठक इसे सही परिप्रेक्ष्य में सहजता से लेंगे.
- रमेश तैलंग
समीक्ष्य पुस्तक
प्रकाशक
प्रकाशन विभाग, (सूचना और प्रसारण मंत्रालय-भारत सरकार)
सूचना भवन, सी जी ओ काम्प्लेक्स,
लोदी रोड, नई दिल्ली-११०००३
पेपरबैक-मूल्य: १२० रूपये.
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