Saturday, November 10, 2012

साहित्य अमृत -नवंबर-२०१२: बाल साहित्य विशेषांक


टिप्पणी - 4 : बाल कविताओं पर एक नज़र (4 दिसंबर, 2012)


नई-पुरानी पीढ़ी के 39 कवियों की बाल कविताओं को एक साथ किसी पत्रिका में प्रकाशित करना अपने आप में एक  अद्वितीय उदाहरण है जो साहित्य अमृत के इस बालसाहित्य विशेषांक ने प्रस्तुत किया है. एक तरह से यह 50वर्षों की हिंदी बालकविता का प्रतिनिधि संकलन है. इसमें जहां अग्रज पीढ़ी के पंडितश्रीधर पाठक (देल छे आए/तीतर/गुड्डी-लोरी), अयोध्या प्रसाद हरिऔध (एक बूंद/एक तिनका/चमकीले तारे/चंदामा/रेल) , मैथिलीशरण गुप्त (सर्कस), महादेवी वर्मा (ठाकुर जी भोलेहैं/ बया से), रामकृष्ण खद्दर (मेरा खेल) , राम नरेश त्रिपाठी (चतुर चित्रकार) ,दिनकर (चूहे की दिल्ली-यात्रा/सूरज का ब्याह), विद्याभूषण विभु (बालकभारत/गिरे-गिरे/छुक-छुक रेल/ चुन्नू-मुन्नू/मोरपंखी/बादल/चित्तीदार चीता/मोर) ,स्वर्ण सहोदर (गेंदा के फूल/ नन्हे हाथो सें/फूल खिले हैं गेंदा के/काले-काले कौए पांच/बन्दूक चली/नौ-नौ नौकर), सोहनलाल द्विवेदी (जी होता चिड़िया बन जाऊं/कबूतर/मीठे बोल), निरंकार देव सेवक (पैसा पा होता/दो चिड़ियों कीबात/लाल-टमाटर), से लेकर हरिवंश्रई बच्चन (नीली हिदिया/सबसे पहले/चिड़िया का घर),द्वारिकाप्रसाद महेश्वरी (कौन सिखाता है चिड़ियों को /बायुयान/दादाजी का चश्मा/हाथी आटा झाल्लम-झाल्लम/चंगू-मंगू/पूसी बिल्ली/ भालू आया), आरसीप्रसाद सिंह (उलटी नगरी/तुकबंदी), सर्वेश्वर दयाल सक्सेना (बिल्ली के बच्चे /नन्हा ध्रुवतारा/एकप्रार्थना), रघुवीर सहाय ( गुड्डन जायेगी ससुराल/ चल परियों के देश/फायदा),सुभद्रा कुमारी चौहान (खिलौने वाला), दामोदर अग्रवाल (एक पैसा/ कौवों की कांव-कांव/ आलू की टिक्की), कन्हैयालाल मत्त (चिड़िया रानी किधर चली/जाड़ा लगा/ आटे-बाटे), उमाकांत मालवीय (चाचा! जापानी बच्चों को भेजो हाथी), मदन गोपाल सिंहल (मां मैं तो शिवराज बनूँगा/मैं बंदा वैरागी हूँगा), भवानी प्रसाद मिश्र (अक्कड-मक्कड), श्रीप्रसाद (सात शिशुगीत), जैसे दिग्गज कवियों की प्रतिनिधि बाल कविताएं शामिल हैं वहीं वर्तमान पीढ़ीके बाल स्वरुप रही (लिए हाथ में चलें/दुनिया एक कहानी/सैनिक), शेरजंग गर्ग (छुट्टी की छुट्टी/हम्तेरे आभारी मेट्रो), योगेन्द्र कुमार लल्ला (तोतेजी/हल्ला-गुल्ला),प्रयाग शुक्ल (फार-फार-फार-फार/उड़-उड़ कर तितली आती/उडती एक पतंग/क्या उड़ते खरगोश/कहां छिपी है गेंद), मधु भारतीय (घमंडी मछली/मां की सीख/सोन चिरैया), कृष्ण शलभ (एक कहानी/कैसे पढ़ पायें अखबार/ हाथी का वादा/इतनी बात/, शिवकुमार गोयल (नशे से दूर सदा ही रहना/ तितली रानी/बादल बोला), रमेश चंद्र शाह  (ना धिन धिन्ना/गोलू के मामा), राष्ट्रबंधु (कंप्यूटर/मां/समय का कछुवा/घड़ी/भतीजावाद/ट्रैक्टर) से लेकर राजेंद्र निशेष (आटे-बाटे/दिनउमंगों के/ छुरी बगल में/आसमां में जैसे तारे), फहीम अहमद (नन्ही मुनिया छुई-मुई/मेरा भरो टिफिन), जयप्रकाश मानस (स्कूल में लग जाए ताला/मेरा प्यारा घर), अशोक गुप्ता (एक चिरैया/मीठी बोली), योगेन्द्र दत्त शर्मा (मन करता/ चिड़िया/ओ नदी/हम गप्पी कहलाते), श्याम सुशील(बच्चे का सपना/नीलू के नाना/चीनू चंगी हो ली/ किताबें), और अश्विनी कुमार आलोक  की (मेढकी चली थियेटर/कैसे लोग) बाल कविताओं को भी सम्मान से स्थान दिया गया है.
      इतने सारे कवियों की इतनी सारी बाल कविताओं में कुछ चुनिन्दा कविताओं की ओर ही पाठकों का ध्यान खींचना मेरे लिए यहां लाजिमी होगा.
      कुछ बाल कविताएं तो ऐसी हैं, जिन्हें अपनी अनूठी शैली और विषयवस्तु के कारण पाठकों की जुबान पर निश्चित रूप से होना चाहिए जैसे बाबा आज देल छे आए, बया हमारी चिड़िया रानी, कबूतर, पैसा पास होता, नीली चिड़िया, बिल्ली के बच्चे, गुड्डन जायेगी ससुराल, एक पैसा, आटे-बाटे, अक्कड-मक्कड, दही-बड़ा””छुट्टी की छुट्टी, नन्ही मुनिया छुई-मुई, स्कूल में लग जाए ताला, ओ सुहानी नदी,..आदि (रचनाकारों के नाम यहां जानबूझकर नहीं दिए/अपनी स्मरण शक्ति अथवा ऊपर की सूची का इस्तेमाल करें ).
ये वे बाल कविताएं हैं जो बिना बडे नामों के आतंक के मुझे प्रिय और अनूठी लगीं. अब सवाल ये है कि ये बच्चों की जुबान पर कैसे चढें? इनमे से अधिकांश टेक्स्ट बुक की रचनाएं नहीं हैं और यदि इस विशेषांक को छोड़ दिया जाए तो अलग-अलग संग्रहों में इन्हें खोजना भी मुश्किल है. इसलिए बेहतर तो यह है कि बडे पाठक अभिभावक इनसे स्वयं आनंदित हों और बच्चों की रुचि जगाकर इन्हें याद काराएं. उन्हें इसमें संदेहनहीं होना चाहियें कि कविताएं बच्चों को सबसे अधिक प्रिय होती हैं, बस उन दोनों का मेल कराने में बड़ों की सकारात्मक भूमिका होनी चाहिए.
      शिक्षा और साहित्य का गठजोड़ जब तक स्थानीय परिवेश और स्थानीय भाषा/बोली के हिसाब से नहीं होगा, तब तक बात नहीं बनेगी.अंग्रेजी स्कूलों में पढ़नेवाले बच्चे अपनी देसी भाषा और देसी बोली से कितना तादात्म्य महसूस करते हैं और उसकी शब्दावली से कितना परिचित रहते हैं, यही हमारे बाल साहित्य का वर्तमान और भविष्य निर्धारित करेगा.
      बच्चों पर बस्ता तो बोझ बन ही रहा है, स्कूल भी बोझ कं सकता है इस तरह की कल्पना जयप्रकाश मानस ही कर सकते हैं. यह स्कूल विरोधी कल्पना नहीं है बल्कि शिक्षा को बच्चों के कार्यकलाप/मनोरंजन/प्रतिभा विकास का अंग बनाकर उनके यथासंभव नजदीक लाया जाए तो अपने-आप में एक नई पहल होगी. नए बाल कवियों में मुझे फहीम अहमद भी प्रिय हैं शायद इसलिए कि वे अपनी बाल कविताओं में नवीनतम छवियाँ और शिल्प के प्रयोग करते हैं. नन्ही मुनिया छुई-मुई इसका एक उदाहरण है.
      एक और बात जो मुझे व्यक्तिगत रूप से प्रेरित करती है वह यह है कि बाल कथाओं/ बाल क़विताओं के क्षेत्र में जैसी  सृजनात्मक कार्यशालाएं अंग्रेजीभाषी संस्थाओं द्वारा की जाती हैं वैसी हिंदी भाषी संस्थाओं के द्वारा  मोहल्ला/विद्यालय स्तर पर क्यों नहीं आयोजित की जातीं.ऐसी कार्यशालाओं में  सृजित रचनाएं भले ही उत्तम कोटि की न हों पर वे सामूहिक सृजन का प्रतीक होने के कारण सभी को प्रिय अवश्य होंगी.उनमे कितना नयापन होगा यह अलग बात है. अब नयेपन की बात उठी है तो यहां मुझे भवानीप्रसाद मिश्र की एक बात स्मरण आ रही है. उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि कविता में निजत्व का होना ही उसका नयापन है. विचार तो शायद ही कोई ऐसा हो जो पहले न कहा गया हो पर कवि की यह निजता ही उसकी रचना को एक नया रूप देती है. मिश्रजी की यह टिप्पणीबाल कविता पर कितनी माकूल बैठती है, आप सोच सकते हैं.

अगली कड़ी में नाटक/आलेख

टिप्पणी -3 : उपन्यास अंशों पर एक नज़र
 

इस विशेषांक में चार उपन्यास अंश  प्रकाशित हैं. पहला  प्रसिद्ध रूसी लेखेक अलेक्सांद्र रास्किन के उपन्यास  –‘पापा जब बच्चे थे” से, और अन्य तीन हिंदी लेखकों क्रमशः देवेन्द्र कुमार खिलौने, प्रकाश मनु-खजाने वाली चिड़िया, एवं सूर्यनाथ सिंह सात सूरज सत्तावन तारे उपन्यासों. जहां रास्किन का उपन्यास पहले से प्रकाशित है, हिंदी के  उपर्युक्त तीनों  उपन्यास अभी प्रकाशनाधीन हैं.

पापा जब बच्चे थे

   अलेक्सान्द्र रास्किन रूस के प्रसिद्ध लेखक हैं और उनकी रूसी भाषा में प्रकाशित कृति का अंग्रेजी अनुवाद Fainna Glagoleva ने “ When Daddy was a little boy” के नाम से किया है जिसके कई संस्करण निकल चुके है, और इसका हिंदी अनुवाद भी (अनुवादक/प्रकाशक का नाम पता नहीं चल सका है) संभवतः जब पापा बच्चे थे नाम से प्रकाशित हो चुका है.
   साहित्य अमृत के प्रस्तुत विशेषांक में प्रकाशित रचना रास्किन की इसी पुस्तक का एक  अंश है, रास्किन अपनी बीमार बेटी को अनेकों कहानियां सुनाते थे जो उनके बचपन के प्रसंगों से जुड़ी थीं. ये प्रसंग ही इस पुस्तक का मूल विषय हैं. साहित्य अमृत के इस विशेषांक में जो दो घटनाएँ प्रकाशित हैं उनमे से एक रंग-बिरंगी गेंद से सम्बंधित है और दूसरी उनके कुत्ते से. दोनों ही प्रसंग रोचक और पठनीय हैं.

खिलौने 

देवेन्द्र कुमार का बाल उपन्यास खिलौने अभी प्रकाशित नहीं हुआ पर उनकी पाण्डुलिपि पर प्रतिष्ठित भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार मिल चुका है. देवेन्द्र कुमार काफी जाने-माने और अनुभवी कथा लेखक हैं और बाल साहित्य में उनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं.
कहते हैं कि पके हुए चावलों को परखने के लिए एक दाना ही काफी होता है. इन उपन्यास अंशों को परखने के लिए भी इसी उक्ति का सहारा लिया जा सकता है.
देवेन्द्र की कथाकृतियों में जो बाल पात्र आते हैं वे लगभग सभी हाशिए पर पड़े समाज से संबंध हैं जिसका ये उपन्यास भी अपवाद नहीं है. मुन्नी, लेखू, आदि बाल पात्र और उनका परिवेश वंचित  वर्ग का ही है. यहां तक कि ‘खिलौने’ की संज्ञा भी यहां मिट्टी के खिलौनों की प्रतीक है न कि प्लास्टिक अथवा स्वचालित खिलौनों की.
दूसरी  बड़ी बात यह है कि देवेन्द्र के कथा- पात्रों के रिश्तों में जो स्वभावगत गर्माहट मौजूद होती है वह मात्र भावुकता या आदर्शवादिता पैदा नहीं करती बल्कि प्रेम-घृणा-सत्कार-दुत्कार, के यथार्थ से दो-चार होते हुए मनुष्यता को सर्वोपरि स्थान देती है.
मुन्नी से लेखू का बाल सुलभ व्यवहार, लेखू के हाथों एक चिड़िया का मार जाना, उसके खिलौनों का टूट जाना और दाढीवाले ‘चीतल’ का उसको ढांढस बंधाना आदि ये मामूली घटनाएं हैं पर वे ही इस उपन्यास के ताने-बाने को मजबूत करती हैं. अप्रकट  रूप से देवेन्द्र के लगभग सभी  बाल उपन्यासों में पर्यावरण की चिंता भी समाई रहती है. ‘खिलौने’ उपन्यास तो अभी प्रकाशित होना पर उनके पूर्व-प्रकाशित बाल उपन्यासों-‘पेड़ नहीं कट रहे हैं, चिड़िया और चिमनी, अधूरा सिंहासन में इसे साफ़ तौर पर देखा जा सकता है.


खजाने वाली चिड़िया  

   प्रकाश मनु का उपन्यांश  खजाने वाली चिड़िया संभवतः उनके इसी नाम से रचित  बाल उपन्यास का हिस्सा है. इसका वस्तु विन्यास और शिल्प निश्चित रूप से उनके  पूर्व बाल उपन्यासों –‘गोलू भागा घर से, एक था ठुनठुनिया, खुक्कन दादा का बचपन, पुम्पु और पुनपुन’ से अलग है, और ये होना भी चाहिए जब तक कि अगला उपन्यास पूर्व श्रंखला का विस्तार न हो.

   इस उपन्यास अंश से जो थोड़ी बहुत कथा पता चलती है वह यह कि चार दोस्त –भुल्लन(मोटा), नील, संजू और पिंटू हैं  भुल्लन एक दिन बातों-बातों में तीनों दोस्तों को उस खजाने वाली चिड़िया के बारे में बताता है जिसके बारे में उसने अपनी दादी की कहानियों में सुन रखा था. अब यह चिड़िया कहां मिलेगी. अगर मिल जाए तो फिर उन्हें रुपये -पैसों की कमी नहीं होगी और वह अपने साथ दूसरे लोगों का भी भला कर सकेंगे. मम्मी-पापा की मुश्किलें दूर होंगी और उन्हें डांट भी नहीं खानी पड़ेगी. बस यही सोच कर चारों दोस्तों की शुरू होती है घर वालों से छुपकर अनोखी यात्रा. सबसे पहले उन्हें साथ मिलता है मोहन काका का जो तांगे में उन्हें बैठकर शहर से दूर बावला फ़कीर वाले मकबरे के पास स्थित  बड़ी बगीची तक पहुंचाते हैं. वे तो यही जानते हैं कि बच्चे पिकनिक मनाने जा रहे हैं.  रास्ते में जो भी पक्षियों या चिड़ियों की आवाजें उन्हें सुनाई देती है वे कान लगाकर सुनने लगते हैं कि कहीं ये उसी खजाने वाली चिड़िया की आवाज तो नहीं. अँधेरा होने लगता है तो बच्चों के
मन के अंदर बैठा डर साकार होने लगता है और बगीची के अंदर पेड़ों की आकृतियां भी उन्हें भूतों/राक्षसों की तरह दिखाई देने लगती हैं.  घर वालों को खबर न देने के कारण बच्चे अपने मां-बाप की चिंता से भी परेशान होते हैं. पर अब क्या करें. रात तो उन्हें यहीं गुजारनी पड़ेगी. अपने डर को वे आपसी बातचीत और हंसी-मजाक से दूर करने की कोशिश करते हैं. पर अभी खजाने  वाली चिड़िया है कहां.? हां नींद लेते-लेते उनके सपने में जरू वह चिड़िया अपनी झलक दिखा जाती है और कह जाती है---देखो बच्चों, मैं ही हूं खजाने वाली चिड़िया, जिसकी तलाश में तुम घरों से निकलकर यहां, इतनी दूर वियाबान में आ गए. मैं हूं, मैं! अच्छी तरह पहचान लो. नीले पंख, सिर पर दमकता हुआ सुनहरा मुकुट बिलकुल सूरज की तरह. मैं तुम्हें मिलूंगी, पर इस तरह नहीं. इस तरह मैं तुम्हारे हाथ नहीं आऊंगी. अभी और ढून्घो, और भटको मेरे लिए!—और इस भटकन के साथ यह उपन्यास अंश यहीं समाप्त हो जाता है.
   ज़ाहिर है कि यह कथा बच्चों को काफी रोचक, रोमांचक और आकर्षक लगेगी और वे इस पूरे उपन्यास का इन्तजार करेंगे.


ताबूत में जिन्दा इंसान (सात सूरज सत्तावन तारे)

   युवा पत्रकार, लेखक, अनुवादक, कथाकार सूर्यनाथ सिंह ने वयस्कों के साहित्य के साथ बच्चों के लिए भी महत्वपूर्ण पुस्तके लिखीं हैं जिनमे “शेर सिंह का चश्मा”-बाल कहानी संग्रह, “बर्फ का आदमी तथा बिजली के खम्भों जैसे लोग’ (दोनों किशोर उपन्यास) शामिल हैं. सूर्यनाथ सिंह विज्ञान फंतासिया रचने में काफी अनुभव हासिल कर चुके है और बच्चों की जिज्ञासु प्रवृत्ति, तथा उनके अनुकूल भाषा, प्रस्तुति आदि पर उनकी अच्छी खासी पकड़ है. उनके दोनों उपरोक्त किशोर उपन्यास इसका प्रमाण है.

   “ताबूत में जिंदा इनान” सूर्यनाथ सिंह के प्रकाशनाधीन किशोरोपयोगी विज्ञान फंतासी उपन्यास “सात सूरज सत्तावन तारे” के एक हिस्सा है. विज्ञान फंतासी लिखना अपने आप में दोधारी तलवार पर चलने की तरह है. पहले सावधानी तो तथ्यों के  संतुलित संयोजन तथा प्रस्तुतीकरण की है और दूसरी सावधानी उन पाठकों की, जिनके लिए वह उपन्यास लिखा जा रहा है, रुचि के अनुकूल कथा एवं शिल्प के गठन की है.
   इस उपन्यास के ‘प्रोटेगनिस्ट ‘ दो किशोर पात्र हैं –आकाश और मार्था और कथा के केंद्र में है एक ऐसा गृह जिस पर जीवन पूर्व में नष्ट हो चुका है और जिसे पुनर्जीवन प्रदान करने के लिए वैज्ञानिक दल अपनी-अपनी  ख़ोजें  कर रहे हैं. आपसी प्रतिस्पर्धा ने न केवल उन्हें एक दूसरे के प्रतिपक्ष में खड़ा कर रखा है बल्कि उससे मानव-जाति को भी खतरा पैदा हो रहा है. इसकी झलक कमोबेश रूप से इस उपन्यास में भी मिलती है.
   इस उपन्यास अंश में फ्योंदों नाम का जो प्राणी ताबूत के अंदर मिलता है वह दूसरे गृह का वैज्ञानिक है जो कुछ रहस्य खोलकर मर जाता है. अनेक रहस्य ऐसे हैं जो बाड़ में जा कर खुलते हैं. सूर्यनाथ सिंह ने पूरी कथा (पूरी कथा इसलिए कह रहा हूं कि मित्रता के नाते मैं इस उपन्यास की पूरी पाण्डुलिपि एक बार पढ़ चुका हूं) का निर्वाह बड़ी ही रोचकता के साथ किया है और इसमें संदेह नहीं कि उनकी  पूर्व प्रकाशित दो विज्ञान फंतासियों की तरह यह उपन्यास भी पाठकों के बीच अपनी सम्माननीय जगह बनाएगा.

जारी ........अगली कड़ी में इस विशेषांक की बाल कविताओं पर एक नज़र. 


टिप्पणी 2 का शेष भाग - सन्दर्भ : बाल कहानियां  

देवेन्द्र सत्यार्थी की बहुत-सी कहानियां जो बाल कहानियों के रूप में प्रकाशित हुई  है, उनमें ज्यादातर उनके अपने जीवन  के वास्तविक प्रसंग हैं. सत्यार्थी जी का बचपन तो बहुत ही जीवंत रहा और अपने आस-पास के चरित्रों को देखने-परखने की उनकी दृष्टि भी बहुत ही पैनी रही. वे लोक के  दृष्टा थे और शायद इसीलिये उनकी बाल कहानियों में बचपन में सुने लोक-गीतों की ध्वनि साफ़ सुनाई देती है हालांकि पपीते वाली मौसी इसका अपवाद है.  अमृतयांन  अपने मित्र के आग्रह पर अपनी पत्नी देवयानी और छोटी बेटी कविता के साथ बस्तर आए हैं. एक दिन वे घर मैं बैठे हुए लिख रहे थे कि तभी एक पपीता बेचनेवाली आदिवासी महिला उनके घर पपीते बेचने आती है और छोटी कविता से मौसी का रिश्ता स्थापित कर लेती है. पपीते के पैसे लेने  का तो सवाल ही नही, दोनों देर तक ढेर सारी बातें करते, कहानी सुनते और इधर-उधर घूमने भी चले जाते. एक दिन वह कविता को गाँव घुमाने ले जाती है और इधर कविता के माता-पिता उसे ढूंढते हुए परेशान हो जाते हैं. जब कालिंदी, यानि वही पपीते वाली मौसी कविता को वापस घर पर लेकर आती है तो सभी को चैन पड़ता है. अमृतयांन का बस्तर से लौटने का वक्त आ जाता है तो पपीते वाली मौसी से अब तक दिए गए पपीतों के पैसे लेने का आग्रह किया जाता है तो  पपीते वाली मौसी तमतमाकर बोल उठती है – बाबूजी, पैसे देने ही हैं तो केवल पपीतों के क्यों? उन कहानी-किस्सों के भी पैसे दो, जो मैं मां की तरह उस पर लुटाती रही.. अमृतयान को अपनी गलती महसूस होती है-“माफ करना कालिंदी! प्यार-दुलार की कीमत दुनिया में कोई नहीं चुका सकता.’ देवेन्द्र सत्यार्थी की कहानियों में मानवीय रिश्तों की जो गर्माहट देखने को मिलती है वही उन कहानियों की जान है. “पपीते वाली मौसी” को पढते हुए रवीन्द्रनाथ टेगोर की काबुलीवाला” कहानी की याद आ जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए.
भीष्म साहनी की कहानी अनोखी हड्डी भी एक रूपक कथा है जो एक महाराज और एक वृद्ध के नाटकीय संवादों के माध्यम से मनुष्य की कभी न खत्म होने वाली कामना पर तीखा कटाक्ष करती है...महाराज जब एक छोटी सी हड्डी की तौल के बराबर अपने राज्य की समस्त सम्पदा प्रस्तुत नहीं कर पाते तो वृद्ध उस अनोखी हड्डी का रहस्य खोलता है- यह कामना की हड्डी है महाराज! इसकी प्यास सदा बढ़ती है, कभी बुझती नहीं.” भीष्म जी इस कहानी के माध्यम से पाठकों को सचमुच एक रोचक सन्देश देते हैं.
मोहन राकेश की बिना हाड़-मांस के आदमी भी एक अदभुत कहानी है और इसे  पढते हुए लगातार यह लगता है कि क्या ऐसी भी बाल कहानी हो सकते हाई? सच बात तो यह है कि ये सभी कहानियाँ जिनका जिक्र ऊपर भी हुआ है, किसी सांचे में ढली हुई कहानियाँ नहीं है और हर कहानी का अपना अलग रंग है. मैं अपनी बात कहूँ तो मेरे लिए यह पहला मौका है जब मोहन राकेश की इस बाल कहानी को मैं पढ़ रहा हूं. इस पूरी कहानी के एक बीज मन्त्र यह है : जिस दुनिया में बच्चे नहीं होंगे, दुलार-प्यार नहीं होगा, वह दुनिया कभी नहीं चलेगी, एक दिन भी नहीं चलेगी 
लक्ष्मीनारायण लाल की परी-कथा गरीब परी अपने नाम के अनुरूप ‘संपन्नता  और विपन्नता के परिवेश को सरोज और जलधारी तथा सोनपरी और गरीबपरी जैसे  काल्पनिक चरित्रों के माध्यम से बडे ही सकारात्मक रूप में सामने रखती है. परी  गरीब हो सकती है और वह अपनी विपन्नता को प्रकट भी कर सकती है, ऐसा इस कहानी में ही पता चलता है. अन्यथा सामान्यतः परियां सर्व शक्ति संपन्न होती हैं और वे सबकी इच्छा पूर्ण कर सकती हैं. पर यहां स्थिति कुछ अलग है..
गरीब परी जब अपने फटे-पुराने कपड़ों के बीच से “अक्षर” का उपहार जलधारी को देती है तो जलधारी चौंक कर पूछती  है_ “अक्षर...क्या?” तो गरीब परी अक्षर का अर्थ खोलती है- “ साहस, इच्छा और समझदारी.’ ज़ाहिर है कि सम्पन्नता या विपन्नता सिर्फ सम्पदा की ही नहीं होती है वह ज्ञान और गुण की भी हो सकती है.
जहूर बख्श  की कहानी चुभती भूल आत्मकथांश के रूप में है और उनके बचपन का प्रसंग प्रस्तुत करती है. कभी-कभी एक छोटी-सी घटना आपको पश्चाताप की ओर उन्मुख कर देती है. इस कहानी में भी बच्चे  द्वारा बडे-बूढों की अवमानना न करने का सन्देश है.
ज्ञान आलोक का ही प्रतिरूप है. जयप्रकाश भारती की कहानी दीप जले-शंख बजे वेल्दी नाम की एक परदेसी लड़की, जो भारत आ कर इस आलोक को गाँव वालों के बीच फ़ैलाने की अदम्य कोशिश  करती है, की आत्मकथा है. कन्हैयालाल नंदन की कहानी –‘सफरनामा सिंदबाद जहाजी का का कथ्य बढते मशीनीकरण के बीच मनुष्य की ख़ोज पर केंद्रित है. इन दोनों कहानियों से बिलकुल अलग और ज्यादा मनोरंजक कहानी है अमर गोस्वामी की जंगल में घड़ी. चोरी से आई एक अदना सी घड़ी जंगल में जानवरों की दिनचर्या को किस तरह गड़बड़ा देती है और राजा शेरसिंह की जिंदगी में क्या तूफ़ान खड़ा कर देती है यह इस कहानी को पढकर ही जाना जा सकता है. एक संवाद का जायजा लीजिए –“तूने पूरे जंगल को गुलाम बना दिया है. आज मैं तुझे ही खा डालूँगा. यह कहकर शेरसिंह मुंह खोलकर घड़ी को गडप कर गए.घड़ी अंदर गई तो क्या हुआ? घड़ी पेट में जाते ही अलार्म बजाने लगी. राजा शेरसिंह के पेट के अंदर घंटी बजने लगी. उनका पेट फूलकर ढोल हो गया. झटपट वैद्यराज भालू बुलाये गए. उन्होंने शेरसिंह का पेट चीरकर घड़ी निकाली. तब राजा शेर शेरसिंह की जान बची. अमर गोस्वामी की कथा शैली में हास्य और व्यंग्य की प्रछन्न मार मौजूद न हो ऐसा कम ही होता है फिर चाहे वह बाल कहानी हो या वयस्क कहानी. अवतार सिंह भी ‘पराग’ के ज़माने में खूब बाल कहानियां लिखते थे. एटमबम बनाया उनकी एक हास्य कथा है
हरिकृष्ण देवसरे जाने-माने बालकथा लेखक हैं. लकड़हारा और जलदेवता कहानी के माध्यम से वह एक लोक कथा को आधुनिक सन्दर्भ दे कर नए रूप में प्रस्तुत करते हैं हालांकि इस कहानी का अंत बहुत  से पाठकों को कुछ अधूरा सा लगा. पर कई सुधिजनों का यह मानना है कि श्रेष्ठ कहानीकार किसी समस्या का स्पष्ट हल देने के बजाए सूत्रों और संकेतों पर ही कहानी को खत्म कर देना बेहतर समझते हैं. आखिर पाठकों की भी तो अपनी बुद्धि है.
दिविक रमेश की बाल कहानी –‘आंखें मूंदो नानी एक बच्ची की काल्पनिकता विस्तार देते हुए ऐसी कहानी बुनते हैं जो पढ़ने और सुनने में भरपूर आनंद देती है.संतोष शैलजा की कहानी तुम दो खाना और मैं तीन एक लोक कथा है और उसकी अपनी सीमा स्पष्ट है.
पशुपक्षियों को लेकर अनेक कहानियां लिखी जाती रही हैं और बच्चे उनसे अपना संबंध भी प्रगाढ़ बना लेते हैं. कुछ कहानियों का जिक्र ऊपर आ चुका है. क्षमा शर्मा की कहानी दूसरा राजा भी इसी श्रेणी की कहानी है. शेर अपनी दहाड़ भूल जाए तो उसका प्रभुत्व कैसे खत्म होने लगता है, इस कहानी को पढ़ कर पता चलता है.
उषा यादव हमारी पीढ़ी की सक्षम कथा लेखिका हैं. दादी अम्मा का खजाना में वे लोक कथात्मक अंदाज में पूरी कहानी कहती हैं और दादी अम्मा के खजाने का रहस्य अंत में जा कर खोलती हैं. कहानी का अंत मार्मिक भी है और शैक्षिक भी.  दादी के चरित्र चित्रण में ‘नोस्टेलजिया’ का अदभुत मिश्रण है. चलन से बाहर हुई चवन्नी भी अपना महत्त्व रखती है इसे दादी अम्मा से बेहतर कौन जान सकता है. भगवती प्रसाद द्विवेदी की कहानी पहाड़ पुरुष दशरथ मांझी, जिसे शायद ही कोई न जानता हो, की साहसिक कथा  को बालोपयोगी शैली में प्रस्तुत करती है.
आज की बाल-कथा लेखिकाओं में रेनू सैनी, डॉ. सुनीता, और अनुजा भट्ट का नाम तो अबतक काफी परिचित हो चुका है और इधर की नई पीढ़ी में उभरे  मनोहर चमोली “मनु” ने भी कई प्रयोगशील बाल कहानियां लिखी हैं.
रेनू सैनी की आखर दीप जहां सुमित और पुष्पा के जरिए ज्ञान-प्रसार की कोशिशों को साकार करती है वहीं डॉ. सुनीता की रजत की क्यारी में पिल्ले कहानी बच्चों और पिल्लों के बीच एक प्रगाढ़ रिश्ता कायम करती है. डॉ. सुनीता की बाल कहानियों में एक आश्चर्यजनक गंवई सुगंध मिलती है. वे घरेलू एवं ग्राम्य परिवेश की छोटी-छोटी बातों को बाल कहानी में ढालने की अदभुत क्षमता रखती हैं. इसका प्रमाण उनके चर्चित बाल कहानी संग्रह  नानी के गांव में भलीभांति  देखा जा सकता है. अनुजा भट्ट की  बाल कहानी कमकम प्लीज कम बाल मनोविज्ञान का अदभुत उदाहरण है एक बच्ची  अपने नाम को दूसरों द्वारा गलत ढंग से उच्चारित होते देख किस तरह परेशान हो उठती है और अपनी मां के समझाने पर कैसे इस इस समस्या का समाधान ढूंढ लेती है, इसे इस कहानी में बखूबी देखा जा सकता है. बचपन में बच्चों की नाम बिगाडना या बिगाडना आम बात है और कभी इसे केन्द्र में रखकर मैं भी एक बाल कविता लिखी थी नट्टू बन गए नटवर लाल. बहरहाल यह एक पठनीय कहानी है जिसे अवश्य पढ़ा जाना चाहिए.
अंत में मनोहर चमोली ‘मनु’ की कहानी सब हैं अब्बल का जिक्र करना चाहूंगा. इस कहानी में जो विषय उठाया गया है और उसे जिस रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है वह हमारी शिक्षा पद्धति के लिए एक सबक है. हर बच्चे में कोई न कोई जन्मजात अथवा विकसित गुण होता है और वह उस गुण के अनुसार अपनी प्रतिभा का बेहतर प्रदर्शन कर पाता है. दूसरे विषयों में उसका उतना अच्छा प्रदर्शन न कर पाना उसकी कमजोरी नहीं है और न ही उसे उसकी आत्मग्लानि का विषय बनाना जाना चाहिए. जबकि आज के  प्रतिस्पर्धात्मक माहौल में ऐसे उदाहरण आम हो गए हैं जो बच्चों के मन-मस्तिष्क में कई तरह के तनाव पैदा कर रहे हैं. चमोली जी यह कहानी कमोवेश रूप से बच्चों में आत्मविश्वास तो संचारित करेगी ही साथ ही शिक्षकों की चेतना को भी जागृत करेगी
शेष रही एक कहानी पानी की आत्मकथा-दुर्गादत्त ओझा. ये एक सूचनात्मक रहना है और कहानी के फ्रेम में मुश्किल से बैठती है. इसलिए इस पर अधिक कुछ कहना संभव नहीं.
- अगली कड़ी में उपन्यास अंशों पर एक नज़र.....


टिप्पणी -२ कहानियां  

 
इस विशेषांक में जिन नए पुराने लेखकों की बाल कहानियां प्रकाशित है वे हैं: प्रेमचंद-गुब्बारे पर चीता, जयशंकर प्रसाद-बालक चंद्रगुप्त, जाकिर हुसैन-अब्बू खां की बकरी, गिजुभाई बधेका-एक थी चिड़िया, इस्मत चुगताई-कामचोर, श्रीनाथ सिंह-सांपों की रानी, कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर'-चावल के छर्रे, विष्णु प्रभाकर-गजनन्दन लाल पहाड़ चढ़े, देवेन्द्र सत्यार्थी-मौसी पपीतेवाली, भीष्म साहनी-अनोखी हड्डी, मोहन राकेश-बिना हाड़-मांस के आदमी.  लक्ष्मीनारायण लाल-गरीब परी, जहूर बख्श-चुभती भूल, जयप्रकाश भारती-दीप-जले:शंख बजे, कन्हैयालाल नंदन-सफरनामा सिंदबाद जहाजी का, अमर गोस्वामी-जंगल में घड़ी, अवतार सिंह-एटम बम बनाया, हरिकृष्ण देवसरे-लकड़हारा और जलदेवता, दिविक रमेश-आंखें मूंदो नानी, संतोष शैलजा- तुम दो खाना और मैं तीन, क्षमा शर्मा-दूसरा राजा, उषा यादव-दादी अम्मा का खजाना, भगवती प्रसाद द्विवेदी-पहाड़-पुरुष, रेनू सैनी आखर दीप, सुनीता-रजत की क्यारी में पिल्लै, मनोहर चमोली मनु-सब हैं अब्बल, दुर्गादत्त ओझा पानी की आत्मकथा, अनुजा भट्ट-कमकम प्लीज कम.

ज़ाहिर है कि इस श्रेणी  में नई-पुरानी दोनों पीढ़ियों के कथाकारों की बाल कहानियों को समेटने की कोशिश की गई है जो एक अच्छा संकेत है. बहुत सी तो ऐसी हैं जिनको अब अलग से खोजना मुश्किल हैं क्योंकि वे पत्रिकाओं में एक बार प्रकाशित हुई और फिर किसी कथा-संग्रह में दोबारा प्रकाशित नहीं हो पाईं. पर वह सवाल, जो अक्सर पूछा जाता  है, यहां भी मौजूद है कि क्या या सचमुच में बाल कहानियां ही हैं? इस प्रश्न  के उत्तर में अनेक मत हो सकते हैं. मशहूर फिल्मकार सत्यजित रे उर्फ मानक दा से जब एक अच्छी बाल फ़िल्म की कसौटी के बारे में पूछा जाता था तो उनके जवाब होता था-अच्छे बाल फ़िल्म वह है जो शिक्षा और मनोरंजन दोनों स्तरों पर प्रभावित कर सके और  जिसका आनंद बच्चे और बडे दोनों ही ले सकें.’ मैं समझता हूं कि अच्छी बाल कहानी के सन्दर्भ में भी इस कसौटी का इस्तेमाल होना चाहिए.
दूसरी बात यह, जो देवेन्द्र सत्यार्थी के हवाले से मैं पहले भी कई जगह पर कह  चुका हूं, ‘आलोचक को किसी रचना की समीक्षा रचनाकार की ज़मीन (देश-काल-रीति-रिवाज, आदि) पर बैठ कर करनी चाहिए. और तीसरी अंतिम बात यह कि बाल साहित्य समीक्षा के प्रतिमानों को (जिनकी व्यवस्थित चर्चा नागेश पाण्डेय ‘संजय’ ने अपनी शोध-पूर्ण  पुस्तक – बाल साहित्य के नए प्रतिमान में की है) बाल साहित्य की किसी भी विधा का मूल्यांकन करते हुए पत्थर की लकीर की तरह प्रयुक्त नहीं किया जाना चाहिए. एक बाल कहानी बच्चे के मनोविज्ञान, लिंग-भेद, अथवा खालिस मनोरंजन आदि को दृष्टि में लिखी गई है तो यह उसकी सीमा नहीं होनी चाहिए. उस सीमा के परे भी उस बाल कहानी में अनेक ऐसे तत्व हो सकते हैं जो उसे बालोपयोगी बनाते हों.
प्रस्तुत विशेषांक की बाल कहानियों को भी इसी लोचदार दृष्टि से देखा-परखा जाये तो अनुचित नहीं हूगा. इन कहानियों में लोक/परी कथा -तत्व , ऐतिहासिक प्रसंग, जीवन-प्रसंग, पछु-पक्षियों का पात्रों के रूप में प्रयोग, भाषा एवं प्रस्तुति की विविधता,
प्रेमचंद ने बच्चों के लिए विपुल बाल साहित्य लिखा. उन्होंने जंगल की कहानियां भी लिखीं. ‘गुब्बारे पर चीता’  उन्हीं में से एक है जो पाठकों के मन को रंजित भी करती है और रोमांचित भी. बलदेव नाम का लड़का स्कूल के हेडमास्टर की मनाही के बावजूद पास लगे सर्कस को देखने की जिद पकड़ लेता है. और छुट्टी होते ही सर्कस देखने चल पड़ता है जबकि उसके साथी मास्टरजी के साथ गेंद खेलने चले जाते हैं.पर सर्कस में जानवरों का खेल उसे ज्यादा पसंद नहीं आता. तभी बाहर उसे दो अजीब-सी चीजें देखने को मिलती हैं. एक गुब्बारे वाला जो लोगों को गुब्बारे पर चढ़कर आसमान की सैर कराने का लालच दे रहा है और दूसरी -  एक चीता खुले पिंजरे से दौडकर लोगों की ओर बढ़ा आ रहा है. गुबारे वाला तो डर के मारे गुब्बारे की रस्सी छोड़कर भाग खड़ा होता है पर बलदेव चीते से बचने के लिए और चीता बलदेव को पकड़ने के लिए गुब्बारे पर चढ़ जाते हैं. अंत में होता यह है कि गुब्बारा जैसे-जैसे ऊपर उठता है दोनों को अपनी जान सांसत में फंसी दिखाई देती है. चीता संतुलन बिगड़ने से अचानक नीचे गिर पड़ता है और मर जाता है. इधर बलदेव गुब्बारे को और ऊपर जाते देख डरता है.पर अचानक उसकी बुद्धि जागती है और वह गुब्बारे के मुंह को खोल देता है जिससे उसकी  गैस निकलने लगती है और गुब्बारा नीचे आने लगता है. नीचे आते हुए जब उसे एक दरिया  दिखाई देता है तो वह दरिया में कूद जाता है और तैर कर बाहर निकल आता है. कुल मिला ये कहानी ये कहानी पाठकों को  हास्य, रोमांच, और बाल स्वभाव के विभिन्न पक्षों से एक साथ रू-ब-रू कराती है.
बालक चंद्रगुप्त जयशंकर प्रसाद की ऐतिहासिक कहानी है जिसमे चंद्रगुप्त चाणक्य की सलाह पर नन्द के राज दरबार में पहुँचता है और अपनी बुद्धि का चातुर्य दिखाते हुए मोम से बने शेर को बिना पिंजरा खोले बाहर निकाल देता है. सुकुमार राय की अमर गोस्वामी द्वारा अनूदित कहानी ‘वह आदमी’ मनुष्य के अंदर स्वयंभूत डर को अदभुत ढंग से प्रदर्शित करती है और उसका अंत भी मार्मिकता के साथ करती है. हारू बाबू स्टेशन से घर आ रहे होते है तो देखते हैं कि व्यक्ति उनके पीछे-पीछे चला आ रहा है. वे रास्ते बदल-बदल कर चलते हैं पर वह व्यक्ति उनके पीछे ही दिखता है. कुछ लोगों को सामने देखकर जब हारू बाबू का साहस लौटता है  तो वे खड़े हो जाते है उस आदमी का सामना करने को. पूछने पर पता चलता है कि वह आदमी तो हारू बाबू के पडौसी बलदेव बाबू के यहां आना चाहता था और रास्ता पता न होने के कारण हारू बाबू के पीछे चला आ रहा था. हारू बाबू संकोच एवं शर्म से गड़ जाते हैं और चुपचाप उसे अपने साथ लेकर घर की ओर चल पड़ते हैं.  भारत-रत्न ज़ाकिर हुसैन की अब्बू खां की बकरी भी एक साहसिक और मार्मिक कहानी है. अब्बू खां की अनेक बकरियां हैं पर उनमें चांदनी अनोखी है. वह घर की चारदीवारी में नहीं रहना चाहती और पहाड़ पर जाने की इच्छा ज़ाहिर कर्ट रहती है. अब्बू खां चिंतित हैं पहाड़ पर अकेले घूमने का अर्थ है  चांदनी की जान का खतरा. भेडिया वैसे भी चांदनी पर घात लगाये रहता है. और एक दिन ऐसा आ ही जाता है जब चांदनी और भेडिया का आमना-सामना हो जाता है. ‘चांदनी’ पहले तो डरती है पर फिर अपना पूरा साहस, शक्ति के साथ भेडिया से टक्कर लेती है. और उसका मन ही मन में कहा गया एक वाक्य- “अल्लाह, मैंने अपने बस भर मुकाबला किया. अब तेरी मर्जी’ सीने में गड कर रह जाता है. अब अंत..? .अंत तो मार्मिक होना ही था.. शक्ति की इस बेमेल लड़ाई में वह अपने प्राण उत्सर्ग कर देती है.
गिजुभाई बधेका की बाल कहानियां पढते हुए मुझे एक ही नाम और याद आटा है और वह नाम है विजय दान देथा का. लोक कथाओं को पुनर्सृजित करते और आधुनिक सन्दर्भों से जोड़ते हुए इन दो कथाकारों ने अपने-अपने क्षेत्र में जो कार्य किया वह सभी के लिए अनुकरणीय है. गिजुभाई तो साहित्य और शिक्षा दोनों क्षेत्रों में अनुपम हैं और उनकी  ‘एक थी चिड़िया’ कहानी गीतात्मकता एवं नाटकीयता के साथ बच्चों को  जरूर पसंद आएगी इसमें दो राई नहीं है.
उर्दू भाषा की जिंदादिली और घरेलू प्रसंगों को लेकर कैसे एक मजेदार बाल कहानी बुनी जा सकती है यह देखना हो तो इस्मत चुगताई की कहानी कामचोर पढ़ने लायक है. बच्चों की शैतानियों से पूरा घर परेशान है और अम्मा का तो ये हाल है कि वे अपना सारा गुस्सा इस तरह से निकालती हैं –“या तो बच्चा-राज कायम कर लो या मुझे ही रख लो. नहीं तो मैं चली मायके..... “मुए बच्चे हैं कि लुटेरे......” पूरी कहानी हास्य-प्रसंगों से भरी पड़ी है.
ठाकुर श्रीनाथ सिंह की ‘सांपों की रानी’ एक देसी परी कथा है और प्रथक विषय से लिहाज से पढ़ी जा सकती है पर उनकी कोई और श्रेष्ठ कहानी शामिल की जाती तो शायद और अच्छा होता.
कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ की चावल के छर्रे खूंख्वार डाकू सुल्ताना से सम्बंधित एक किम्बदंती पर आधारित कहानी है जो गांव लूटने आता है पर गांव की ही एक स्त्री उसे धर्मभाई बना लेती है और पूरे गांव को उसके कोप से बचा लेती है. कुछ ऐसा ही प्रसंग रानी दुर्गावती के जीवन से जुड़ा हुआ था...
वयस्क और बाल साहित्य दोनों में अपनी सम्मानित जगह रखने वाले विष्णु प्रभाकर की गजनन्दन लाल पहाड़ चढ़े भी अपने नाम के अनुरूप हास्य कथा है और उनकी गोमुख यात्रा किस तरह की रोमांचक घटनाओं से भरी हुई है उसका एकांश इस कहानी में देखा जा सकता है.


-----जारी


टिप्पणी -१: -रमेश तैलंग

किस्सागोई के उस्ताद और हिंदी के शीर्ष कथाकार अमृतलाल नागर की प्रतिस्मृति में उनकी मनोरंजक बाल रचना - 'बजरंगी-नौरंगी'  इस अंक की पहली निधि है.

इस रचना के बारे में कुछ आगे कहूँ उससे पहले इस सन्दर्भ में बंधु कुशावर्ती (संपूर्ण बाल रचनाएं-अमृतलाल नागर की भूमिका) की ये पंक्तियाँ उद्धृत करना चाहूंगा. वे लिखते हैं:

"अमृतलाल नागर ने (उस) कालखंड में बजरंगी-नौरंगी, बजरंगी पहलवान, बजरंगी स्मगलरों के फंदे में तथा अक्ल बड़ी या भैंस, ये चार बाल उपन्यास लिखे.... इन बाल उपन्यासों में पहले तीन - 'बजरंगी-नौरंगी', 'बजरंगी पहलवान' तथा 'बजरंगी स्मगलरों के फंदे में' कुबेरपुर के बल-बुद्धिशाली बजरंगी-नौरंगी बन्धुद्वय के नायकत्व से परिपूर्ण एवं श्रृंखला बद्ध हैं. इन्हें पढते हुए बच्चों में महाबली हनुमान की छवि का कौंध जाना अत्यंत स्वाभाविक है किन्तु; इससे भी अधिक महत्वपूर्ण दो तथ्य इसके संबंध में ध्यान देने योग्य हैं:

ये दोनों ही चरित्र फैंटम-टार्जन के मुकाबले नितांत ठेठ और देशज हैं और- 
यथार्थवादी, कल्पनाशील तथा जिग्यसपर्क कथा-विस्तार के साथ चलते रहने वाले बजरंगी-नौरंगी के सारे कार्य-व्यापार आश्चर्यजनक और विस्मयकारी होने पर भी अत्यंत-युक्तिसंगत, विज्ञानसम्मत, तर्कपूर्ण एवं विश्वसनीय हैं.

इन बाल उपन्यासों को पढते हुए बच्चे सहज ही यह समझते रहते हैं कि बौद्धिक, शारीरिक और मानसिक-बल के साथ बजरंगी-नौरंगी का आस्थामूलक नैतिक-बल तथा आत्मविश्वास ही उन्हें परम-शक्तिमान बनाता है. तीनों बाल उपन्यासों में इनकी और इनके कार्यकलापों की छवि असंदिग्ध रूप से संकल्पवान-लोकोपकारक चरितनायक की है. इन श्रृंखलाबद्ध बाल उपन्यासों में पहले दो; बजरंगी-नौरंगी और बजरंगी पहलवान तो परस्पर क्रमबद्ध हैं.

नागर जी को बजरंगी और नौरंगी जैसे दो चरित्र क्यों गढ़ने पड़े इसके पीछे भी उनकी एक दृष्टि थी जो उपरोक्त पुस्तक में शरद नागर के सम्पादकीय में प्रकट होती हैं. शरद लिखते हैं:

कॉमिक्स के नए प्रचलन ने टार्जन, फैंटम आदि को बड़ा लोकप्रिय बनाया. उसका एकमात्र कारण यही है कि वे नए-पुराने वातावरण के विचित्र सम्मिश्रण से बच्चों को रसोल्लास देने में समर्थ हैं.. वे अपने-अपने देशों को महिमा से मंडित हो कर जब मानवीय करुणा और उपकार की भावना से बड़े-बडे काम करते हैं, तब उनकी  महत्ता के साथ-साथ उनके देश की महत्ता भी हमारे बच्चों  के मानस पर छाती है. मुझे किसी देश की महिमा गाए जाने से आपत्ति नहीं, बशर्ते कि हमारे बच्चे पहले स्वदेश-महिमा से अपना नाता जोड़ें. बजरंगी-नौरंगी मुझे इसी उद्देश्य से गढ़ने पड़े थे.  
      इन दो उद्धरणों को यहां देने से इन दो चरित्रों के पीछे रचनाकार की जो दृष्टि रही है, वह स्पष्ट हो जाती है.

बजरंगी-नौरंगी  के  कारनामों को लें तो वे बहुत कुछ जादुई/तिलिस्मी किस्म के  हैं जो कथा को रोचक बनाने के साथ-साथ बच्चों में रोमांच और कौतूहल पैदा करते हैं. एक बात तो तय है कि नागर जी ने संयुक्त परिवार में रहते हुए बच्चों से सीधा संवाद बनाए रखा और इसीलिये उनकी बाल रचनाएं जीवंत , घटनाएं वास्तविक और कथा शैली पुराने अंदाज वाली होते हुए भी नई-सी लगती है.

      प्रस्तुत कृति बजरंगी-नौरंगी लगभग १० किताबी पृष्ठों का बाल उपन्यास है जो फंतासी या देसी परीकथा का एक अनुपम  उदाहरण है.

कथा की शुरुआत से ही इन दोनों चरित्रों का भरपूर परिचय मिल जाता है-

सौ बरस पहले की बात है. तराई की एक छोटी रियासत कुबेरपुर में बजरंगी-नौरंगी दो भाई रहते थे. बजरंगी बड़े बांके पहलवान थे और नौरंगी बड़े सयाने जादूगर. बड़े भाई बजरंगी पहलवान का अखाड़ा और रहने का मकान नगर से बाहर था. वह सुगंधा नदी के किनारे छोटी-सी पहाड़ी पर बसा था....बजरंगी पहलवान अपने छोटे भाई नौरंगी  को बहुत चाहते थे परन्तु; वे उसके झूठे आडम्बर से चिढते थे. इसलिए उसे अकेले में नकली स्वामी कहकर छेड़ा भी करते थे.

कथा में पहला मोड़ तब आता है जब कुबेरपुर रियासत का राजा अंग्रेज हाकिमों के जंगल में अनधिकृत शिकार और बिगडैल हाथियों के प्रकोप से बचने के लिए बजरंगी पहलवान से सहायता मांगता है. बजरंगी पहलवान अपने जादू तथा पराक्रम से बिगडैल हाथियों को परास्त करते हैं और राजा से अपने भाई नौरंगी सहित सम्मान प्राप्त करते हैं. इधर बजरंगी और नौरंगी में खाने पर शर्त लग जाती है. नौरंगी स्वामी कहते हैं:’आज मैं भाई साहब को खाने में मात दूंगा. आज असली स्वामीपना दिखलाकर रहूंगा.’ 

उधर बजरंगी हंसकर जवाब देते हैं:’अच्छा..इस भी मेरे सामने ही परोसो. या तो आज इसका असली स्वमीपना देखूँगा, नहीं तो मैं जितने हजार लड्डू और कचौरियां खाऊंगा उतनी हजार चपतें इसके सिर पर लगाऊंगा.’

शर्त की मांग यह होती है कि यदि बजरंगी खाने में जीत गए तो नौरंगी उन्हें जीत के पुरस्कार में चांग्चू द्वीप देंगे जहां फेनफू  नमक चीन दानव का राज है और जो प्रजा पर आए दिन अत्याचार करता रहता है. बजरंगी शर्त जीत जाते हैं और नौरंगी को शर्त के अनुसार चांग्चू द्वीप की यात्रा करनी पड़ती है और फेनफू से भयंकर लड़ाई करनी पड़ती है. लड़ाई जब कथानक के दूसरे खतरनाक मोड़ पर पहुँचती है तो नौरंगी स्वामी भी बजरंगी की सहायता के लिए पहुंच जाते हैं और दोनों भाई फेनफू दानव का अंत कर देते हैं. नौरंगी स्वामी का उड़न घोड़ा भी इस लड़ाई में अपने विशेष करतब दिखाता है.

अंत में जब बजरंगी पहलवान छोटे भाई को विदा करते हुए कहते हैं – “नौरंगी, वचन दो कि आज से तुम कभी जादूगरी वाले ढोंग करके भोली जनता को नहीं ठगोगे”  तो नौरंगी अपने बड़े भाई बजरंगी के चरण छूकर कर कहते हैं -“मैं वचन देता हूं. कभी-कभी नीतिवश उचित समझने पर तो यह ढोंग अवश्य करूंगा, पर धन या निजी स्वार्थों के लिए यह ढोंग कभी नहीं करूंगा.”

कुल मिला कर देखा जाए तो अपने लघु आकार के कारण बजरंगी-नौरंगी को बाल उपन्यास की श्रेणी में रखा भी जाए या नहीं, इस पर दो मत हो सकते हैं. पर बाल उपन्यास की सीमाओं और संभावनाओं पर अभी लगातार विमर्श चल रहा है और चलेगा इसलिए इस सवाल को अभी यहीं छोड़ देना उचित होगा.
नागर जी के इन दो चरित्रों का उनके अन्य  दो बाल उपन्यासों क्रमशः: बजरंगी पहलवान और बजरंगी स्मगलरों के फंदे में में देखा जा सकता है.

जारी .......(अगली टिप्पणी इस अंक की बाल कहानियों पर)

Monday, November 5, 2012

संवाद -2 : मोहम्मद साजिद खान का बाल कहानी संग्रह: रहमत चचा का घोड़ा

बाल साहित्य पर सार्थक विमर्श की श्रंखला में 
संवाद-२ के रूप में 
इस बार प्रस्तुत है मोहम्मद साजिद खान का बाल कहानी संग्रह
 रहमत चाचा का घोड़ा
 श्री जाकिर अली 'रजनीश ' की पहली टिप्पणी के साथ 

बिखरते सामाजिक मूल्‍यों की जीवंत दास्‍तान

बहुत से लोग बाल साहित्‍य का मतलब आज भी राजा-रानी और परियों की कहानियों से लगाते हैं। ऐसे लोग बाल साहित्‍य को उपदेश और संस्‍कार प्रदान करने के एक माध्‍यम के रूप में देखते हैं। जबकि जमाना बहुत आगे निकल आया है। आज का बच्‍चा कम्‍प्‍यूटर युग का प्राणी है और वह हर कदम पर प्रतियोगिता का सामना करने के लिए अभिशप्‍त है। यही कारण है कि उसकी रूचियों, उसकी प्राथमिकताओं में ही नहीं, उसके सपनों में भी जबरदस्‍त बदलाव आ चुका है। ऐसे में आवश्‍यक हो गया है कि उन्‍हें ऐसा साहित्‍य उपलबध कराया जाए, जो न सिर्फ अपने आसपास के वास्‍तविक माहौल से रूबरू कराए वरन पाठकों को समाज में सकारात्‍मक बदलाव के लिए प्रेरित भी कर सके।

यह प्रसन्‍नता का विषय है कि युवा रचनाकारों ने न सिर्फ समय की इस माँग को भलीभाँति समझा है, वरन वे अपनी अपनी रचनाओं में उसे ढ़ालकर साहित्‍य को एक नई ऊँचाई भी प्रदान कर रहे हैं। ऐसे ही गम्‍भीर उद्देश्‍य के साथ साहित्‍य रचना करने वाले चर्चित एवं सशक्‍त बाल साहित्‍यकार हैं मोहम्‍म्‍द साजिद खान, जिनका सद्य प्रकाशित बाल कथा संग्रह है ‘रहमत चचा का घोड़ा’।

आलोच्‍य संग्रह में साजिद खान की चार लम्‍बी कहानियाँ ‘रहमत चचा का घोड़ा’, ‘अफरे में बसा गाँव’, ‘हादसा’ और ‘बदलाव’ संग्रहीत हैं, जो बिखरते सामाजिक मूल्‍यों और ग्रामीण जीवन में तेजी से आ रहे बदलावों की जीवन्‍त दास्‍तां को बयाँ करती हैं। ये कहानियाँ अपने ‘फार्म’ और ‘विज़न’ दोनों के कारण बाल कहानियों को एक नया आयाम प्रदान करती हैं। इन कहानियों को लेखक ने ‘लम्‍बी कहानी’ कहकर सम्‍बोधित किया है, जो औपन्‍यासिक उद्देश्‍यों के साथ गढ़ी गयी हैं। आलोच्‍य संग्रह की ‘बदलाव’ कहानी इससे पूर्व ‘ग्‍यारह बाल उपन्‍यास’ (सं0 ज़ाकिर अली ‘रजनीश’) में संग्रहीत होकर पाठकों का ध्‍यान अपनी ओर आकर्षित कर चुकी है। ये अपने तरह की अद्भुत कहानियाँ हैं, क्‍योंकि न तो इनमें कहीं बच्‍चे हैं न बचपना और न ही बाल साहित्‍य के तमाम तथाकथित तत्‍व। लेकिन बावजूद इसके इनमें मौजूद घटनाएँ और संवेदनाएँ न सिर्फ पाठक को बाँधे रखती हैं, वरन उसे बुरी तरह से झकझोरती भी हैं।

परियों और फैंटेसी की काल्‍पनिक नगरी से दूर ये कहानियाँ हमारे अधिसंख्‍य समाज के चुभते यथार्थ पर केन्द्रित हैं और उनके दर्द को अविकल रूप में प्रस्‍तुत करती हैं। इन्‍हें पढ़ते हुए पाठक के मस्तिष्‍क में समाज की विकृत लेकिन सच्‍ची तस्‍वीर उभरती है, जो उसे सोचने के लिए विवश करती है और एक अर्थ में पाठक की रूचि के परिष्‍कार का गुरूतर दायित्‍व का निर्वहन करती भी प्रतीत होती हैं। अपनी इस विशिष्‍ट अप्रोच के कारण ही यह कहानियाँ वर्ष 2008 में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के भारतेन्‍दु पुरस्‍कार से भी समादृत हो चुकी हैं।

‘मार्मिक बाल कहानियाँ’ (प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय) के द्वारा बाल साहित्‍य में अपनी एक विशिष्‍ट पहचान बना चुके मोहम्‍म्‍द साजिद खान इस संग्रह के द्वारा बाल साहित्‍य में ग्रामीण परिवेश की यथार्थपरक कहानियों की एक शानदार नींव रखते हुए नजर आते हैं। इस नींव में गाँव की माटी की महक ही नहीं प्रेमचंद की स्‍वर्णिम परम्‍परा की झलक भी है। आशा है बाल साहित्‍य के वायवीय परिवेश के बीच ये कहानियाँ न सिर्फ पाठकों के बीच सराही जाएँगी, वरन अपनी गम्‍भीर शैली के कारण एक ठोस विमर्श की शुरूआत करने में भी समर्थ होंगीं।

पुस्‍तक: रहमत चचा का घोड़ा
लेखक: मोहम्‍मद साजिद खान
सम्‍पादक: आर. अनुराधा  
प्रकाशक: प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रलाय, सी.जी.ओ. काम्‍प्‍लेक्‍स, लोधी रोड, नई दिल्‍ली-110003
पृष्‍ठ: 65, मुल्‍य: 65


ओमप्रकाश कश्यप11/03/2012 5:32 pm
...बिना किसी भावुकता के पूरे होशोहवास में लिख रहा हूं....ये चारों बालकहानियां हमारे देखे-भाले परिवेश की होकर भी आगे की रचनाएं हैं. हिंदी बालसाहित्य को अभी तक इस दृष्टि से देखा ही नहीं गया है. हालांकि इसकी आवश्यकता बहुत पहले से थी. इसलिए निवेदन है कि बालसाहित्य की जो टेक आपने पकड़ी है, उसको छोड़ना मत. संभव है कि इन कहानियों को पत्रिकाओं और अखबारों में जगह ही न मिले. या कुछ लोग इन्हें बालकहानी मानने से ही इन्कार कर दें. पर ये कहानियां अद्भुत हैं. अगर इसी तरह लिखते रहे तो निश्चय ही आप हिंदी बालसाहित्य अनूठा अवदान देने वाले बनेंगे.
पुस्तक पढ़ने के बाद पता चला कि वह प्रकाशन विभाग, भारत सरकार का प्रतिष्ठित ‘भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार’ प्राप्त कर चुकी है. इसलिए मेरे मन में प्रकाशन विभाग के प्रति भी अतिरिक्त सम्मान है, जिससे बालकथाओं के बंधे-बंधाए ढर्रे से बाहर निकलकर इस पुस्तक को पुरस्कार योग्य माना है. इन दिनों राजेंद्र भट्ट वहां इस काम को देख रहे हैं. इस पुस्तक को उन्होंने देखा है या नहीं, यह तो मैं नहीं जानता, मगर भट्ट जी के पास बालसाहित्य की अनूठी समझ है. इस पुस्तक की बालकहानियों में बालसाहित्य को लेकर उनका सोच भी झलकता है. 
इनमें से प्रत्येक कहानी पर लंबी-लंबी बात की जा सकती है....फिलहाल बस. 
ओमप्रकाश कश्यप

ओमप्रकाश कश्यप11/03/2012 5:31 pm
साजिद भाई ने यह पुस्तक मुझे भेजी थी. पुस्तक पर जो प्रारंभिक प्रतिक्रिया हुई उसको लेखक के नाम पत्र में इस तरह शब्द-बद्ध किया गया था. आपकी समीक्षा में विस्तार देने की कोशिश के रूप में वही यहां प्रस्तुत है—

हिंदी बालसाहित्य में गांव लगभग नदारद रहा है. हालांकि अधिकांश साहित्यकार ग्रामीण पृष्ठभूमि से आए हैं. मगर नौकरी या व्यवसाय के चलते वे शहरों-कस्बों के बाशिंदे बन गए. चूंकि वे अपने बच्चों को गांव के पुराने परिवेश में नहीं लौटाना चाहते, उन्हें शिक्षा में अव्वल, संस्कार में नागरियत के करीब तथा भौतिक दृष्टि से कामयाब देखना चाहते हैं, इसलिए गांव की समस्याएं तथा वहां की सामंती परिवेश के भीतर जीवित सामासिक संस्कृति, उन्हें अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पातीं. इस कारण उनकी रचनाओं में मध्यवर्गीय बालक के सपने तथा उसकी समस्याएं तो हैं, मगर गांव और वहां के बच्चे नहीं हैं. समाचारपत्र गंवईं परिवेश की कहानियां छापने से इसलिए बचते हैं क्योंकि विज्ञापनदाताओं के लिए वहां अपेक्षित बाजार नहीं है; और वे अपने ‘अन्नदाताओं’ को नाराज नहीं करना चाहते. बाजार जैसे-जैसे गांव जाएगा, वहां की चीजें भी अखबार में आने लगेंगी, यद्यपि उनकी दृष्टि वैसी होगी, जैसी बाजार निर्धारित करेगा. उनके लिए यह सीधे-सीधे लेन-देन का मसला है. कस्बाई मानसिकता से रचे गए उनके पात्र धूल-मिट्टी से परहेज करते हैं. लंच लेकर ठीक समय पर पाठशाला को निकलते हैं. अच्छे बच्चे की भांति समय पर होमवर्क निपटाते हैं तथा जेबखर्च की मांग के साथ ‘जेबखर्च जिंदाबाद’ के नारे लगाते हुए आधुनिक होने का भ्रम पाल लेते हैं. जो बच्चे ऐसा नहीं करते, वे ‘अच्छे बच्चे’ भी नहीं हैं. इसलिए उनकी सारी सारी साहित्यिक चिंताएं उन्हें अच्छे बच्चों की श्रेणी में लाने की रहती हैं. अधिकांश बालसाहित्यकारों के लिए गांव अधिक से अधिक अतीतमोह का हिस्सा हैं. ऐसे में ‘रहमत चचा का घोड़ा’, ‘अफरे में बसा गांव’, ‘बदलाव’ और ‘हादसा’ जैसी कहानियां गंवई संवेदना को उसकी पूरी पाकीजगी और निष्ठा के साथ सामने लाती हैं. इस पुस्तक के लिए बधाई देने अथवा सराहना करने के लिए मेरे पास उपयुक्त शब्द नहीं हैं. बस इतना कहूंगा कि आपने बालसाहित्य के खालीपन को भरने की कामयाब कोशिश की है.
अपनी छोटी-सी भूमिका में लेखक ने इन्हें नाहक ही लंबी कहानियां कहा है. मेरी राय में असली कहानियां तो यही हैं. जिन्हें बालकहानी बताकर अखबारों में कालम की भरपाई की जाती है, उनमें से अधिकांश को कहानी कहते हुए भी मुझे संकोच होता है. साहित्य के वृहद उद्देश्य उनसे नहीं साधे जा सकते. जो लेखक यह मानते हैं कि बालक केवल 1000—1500 शब्दों की कहानी पढ़ सकते हैं, वे स्वयं बालक के सामथ्र्य से परिचित नहीं हैं, या जानबूझकर उसको झुठलाना चाहते हैं. और इनमें बहुत-से लोग वही हैं जो चाहते हैं बारह-तेरह वर्ष का बालक कुरआन शरीफ की आयतें पढ़ ले. रामायण, महाभारत के लंबे-लंबे कथानक से परिचित हो जाए, सुखसागर का पाठ कर डाले, लेकिन साहित्य के नाम पर कहानी यदि 1000—1500 शब्दों से बड़ी हुई तो इनके कलेजे कांपने लगेंगे—हाय रे, मासूम बालक इतनी बड़ी कहानी कैसे पढ़ पाएगा! वह बेचारा तो पहले ही पाठ्य पुस्तकों के ‘बोझ’ से दबा है, साहित्य के लिए समय कहां से समय निकाल पाएगा....वगैरह-वगैरह. मुझे तो यह भी एक षड्यंत्र जान पड़ता है. विभेदकारी धार्मिक-सामाजिक कट्टरता, असमानता एवं यथास्थिति को बनाए रखने का षड्यंत्र. शायद हम नहीं चाहते कि बालक का आधुनिकताबोध इतना विकसित हो जो परंपरा से चली आ रही किस्म-किस्म की धंधागिरी को चुनौती दे सके. इसलिए अनुकूलित कहानियों के काटे-तराशे ‘बोन्साई’ संस्करण पढ़ते हुए बालक जब तक बड़ा होता है, तब तक उसको प्रचलित रूढ़ियों और जड़ मान्यताओं के साथ पूरी तरह ढाल दिया जाता है. 
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DrZakir Ali Rajnish11/04/2012 9:01 pm
कश्‍यप जी, आपने सचमुच पुस्‍तक समीक्षा को विस्‍तार दिया है। बाल साहित्‍य आज वास्‍तव में अपनी सीमाएं लांघ रहा है। कुछ लोगों के लिए यह खटकने वाली बात भले ही हो, पर यह एक शुभ संकेत है। साजिद की कहानियां इसी बात की गवाह हैं। इस तरह की बहुत सी कहानियां यादराम रसेन्‍द्र और अनंत कुशवाहा जी ने भी लिखी हैं। पर अफसोस कि ऐसी सार्थक रचनाओं पर कोई चर्चा नहीं हो पाती

Wednesday, October 31, 2012

संवाद-१, संजीव जायसवाल 'संजय' के बाल उपन्यास 'डूबा हुआ किला' पर एक सह-संवाद


'डूबा हुआ किला' एन.बी.टी. द्वारा प्रकाशित मेरे इस उपन्यास का दो साल के भीतर चौथा संस्करण आ गया है. किशोर वर्ग के जिन पाठकों ने इसे इतना लोकप्रिय बनाया उनका मैं हृदय से आभार प्रकट करता हूँ. 

Ramesh Tailang: यह बाल उपन्यास मैं पिछले दिनों दिल्ली पुस्तक मेले से लाया था. काफी रोचक है बस एक बात जरूर महसूस हुई कि अनेक बाल उपन्यासों में अपहरणकर्ताओं या अपराधकर्मियों का चरित्रों के रूप में आना , और उनसे बच्चों का अपने ढंग से जूझ कर बाहर निकल आना ट्रेंड न बन जाए. देवेन्द्र कुमार के दो बहुत ही अच्छे बाल उपन्यास हैं पेड़ नहीं कट रहे हैं, और अधूरा सिंहासन, प्रकाश मनु का 'गोलू भागा घर से, आदि में भी यह विषय वस्तु अंत में प्रकारांतर से सामने आती है. पिछले दिनों आर्शिया अली ने ज़ाकिर अली के वैज्ञानिक बाल उपन्यास 'समय के पार ' की बात कही थी. यह अपने ढंग का एक अच्छा बाल उपन्यास है पर उसमे भी मुझे न जाने क्यों एक बात कमजोर लगी- उपन्यास का किशोर नायक प्रकाश जब प्रोफ़ेसर की समय यान लैब में जाता है तो उसकी जेब में रखे पेन माइक्रो ट्रांसमीटर को कैसे अंदर जाने दिया गया. ऐसी लैब में सुरक्षा व्यवस्था इतनी अचूक होती है कि इस तरह के छोटे-मोटे उपकरण फिर चाहे वे अनजाने में ही ले जारहे हों, तत्काल पकड़ में आ जाते हैं... बच्चों की संवेदना और उनके मनोविज्ञान से सम्बंधित कुछ और बाल-किशोर उपन्यास आएं तो और अच्छा लगेगा. हरदर्शन सहगल का मान की घंटियाँ, प्रहलाद अग्रवाल का -पापा मुस्कराइए ना' इस तरह के उपन्यास हैं पर प्रहलाद जी का उपन्यास, जैसे कि डॉ. हरी कृष्ण देवसरे ने भी कहा था, बाल उपन्यास से थोड़ी ऊपर की चीज हो गया है. वह न तो वयस्क उपन्यास में रहा और न ही बाल उपन्यास में. एक बहुत ही छोटी-सी क्षीण रेखा है जो इन दोनों श्रेणियों को विभाजित करती है. रचनाकार को इस पर बड़ी ही सावधानी से चलना पड़ता है...हम सभी कोशिश करते हैं, पर चूकें करना हमारी कोशिशों का ही एक हिस्सा हैं. वैसे भी कोई रचना अपने आप में मुकम्मिल कभी नहीं होती....

Sanjeev Jaiswaal "Sanjay': मेरे उपन्यास 'डूबा हुआ किला' के चौथे संस्करण के प्रकाश पर आदरणीय रमेश तैलंग जी ने निम्नलिखित महत्वपूर्ण टिप्पड़ी अंकित की है:-

"यह बाल उपन्यास मैं पिछले दिनों दिल्ली पुस्तक मेले से लाया था. काफी रोचक है बस एक बात जरूर महसूस हुई कि अनेक बाल उपन्यासों में अपहरणकर्ताओं या अपराधकर्मियों का चरित्रों के रूप में आना , और उनसे बच्चों का अपने ढंग से जूझ कर बाहर निकल आना ट्रेंड न बन जाए. देवेन्द्र कुमार के दो बहुत ही अच्छे बाल उपन्यास हैं पेड़ नहीं कट रहे हैं, और अधूरा सिंहासन, प्रकाश मनु का 'गोलू भागा घर से, आदि में भी यह विषय वस्तु अंत में प्रकारांतर से सामने आती है. पिछले दिनों आर्शिया अली ने ज़ाकिर अली के वैज्ञानिक बाल उपन्यास 'समय के पार ' की बात कही थी. यह अपने ढंग का एक अच्छा बाल उपन्यास है पर उसमे भी मुझे न जाने क्यों एक बात कमजोर लगी- उपन्यास का किशोर नायक प्रकाश जब प्रोफ़ेसर की समय यान लैब में जाता है तो उसकी जेब में रखे पेन माइक्रो ट्रांसमीटर को कैसे अंदर जाने दिया गया. ऐसी लैब में सुरक्षा व्यवस्था इतनी अचूक होती है कि इस तरह के छोटे-मोटे उपकरण फिर चाहे वे अनजाने में ही ले जारहे हों, तत्काल पकड़ में आ जाते हैं... बच्चों की संवेदना और उनके मनोविज्ञान से सम्बंधित कुछ और बाल-किशोर उपन्यास आएं तो और अच्छा लगेगा. हरदर्शन सहगल का मान की घंटियाँ, प्रहलाद अग्रवाल का -पापा मुस्कराइए ना' इस तरह के उपन्यास हैं पर प्रहलाद जी का उपन्यास, जैसे कि डॉ. हरी कृष्ण देवसरे ने भी कहा था, बाल उपन्यास से थोड़ी ऊपर की चीज हो गया है. वह न तो वयस्क उपन्यास में रहा और न ही बाल उपन्यास में. एक बहुत ही छोटी-सी क्षीण रेखा है जो इन दोनों श्रेणियों को विभाजित करती है. रचनाकार को इस पर बड़ी ही सावधानी से चलना पड़ता है...हम सभी कोशिश करते हैं, पर चूकें करना हमारी कोशिशों का ही एक हिस्सा हैं. वैसे भी कोई रचना अपने आप में मुकम्मिल "

तैलंग जी उन चंद साहित्यकारों में ही जिन्होंने फेस बुक पर बहस को एक सार्थक दिशा दी है. इसके लिए वे सम्मान के पात्र है. मैं उनके उपरोक्त विचारों से पूर्ण रूप से सहमत हूँ. बाल उपन्यासों में अपहरणकर्ताओं या अपराधकर्मियों का चरित्रों के रूप मे आने का ट्रेंड बन जाना उचित नहीं है. लेकिन एक लेखक के रूप में कुछ मजबूरियां और सीमायें होती ही. ९९ % कथानकों का सन्देश बुराई पर अच्छाई की विजय दिखाना होता ही. इसलिए अच्छे पात्रों के साथ साथ खल पात्र भी स्वाभाविक रूप से कथानक में आ जाते है. चाहे वो राजा रानी की कहानी हो या परियों की या फिर पौराणिक कहानियाँ हों. सबमें राक्षस, दुस्ट मंत्री या सेनापति आ ही जाते हैं. यही बात आधुनिक कथानकों में लागू होती ही और किसी न किसी रूप में खलनायक आ ही जाता ही. बस जरुरत इस बात की है की खल पात्रों को महिमा मंडित न किया जाए. मेरे इस उपन्यास में डाकू जरुर है लेकिन मैंने कोशिस की है कि पूरे उपन्यास में एक भी गोली न चले और हिंसा न हो. बच्चे अपनी समझ बूझ से न केवल खूंखार डाकुओं का समर्पण करवा देते है बल्कि खजाना भी सरकार को सौंप देते ही. वैसे रमेश जी ने जो कहा है अगले उपन्यासों में उसका ध्यान रखूँगा. वास्तव में अगर बच्चों के किसी उपन्यास में खल पात्र न आयें तो वो रचना श्रेष्ठ हो जायेगी. आशा ही दूसरे लेखक भी इस दिशा में प्रयास करेंगे. मार्गदर्शन के लिए रमेश तैलंग जी का धन्यवाद. वे वरिष्ठ है और इसी तरह हम लोगों को गाईड करते रहेंगे. आभार.

Ramesh Tailang: संजीव भाई, आपके स्पष्टीकरण की कोई जरूरत नहीं थी फिर भी आपका मेसेज मुझ तक ठीक-ठीक पहुंचा है. आपके एक और पुस्तक हवेली भी ले आया हूं पकाशन विभाग से कभी मौका मिला तो आपके पूरे कृतित्व पर लिखना चाहूंगा. दरअसल बुरे पर अच्छाई की विजय एक आदर्श सन्देश है जो उसी रूप में बच्चों के सामने आना चाहिए पर आज के इस खलनायकी जमाने में ऐसा नहीं भी होता है तो बच्चों को जुसे झेलने की भी हिम्मत होनी चाहिए, और एक दो पराजय से पूरे जीवन की विफलता को नहीं आंकना चाहिए. बहुत से विदेशी बाल उपन्यासों में इस यथार्थ की इस रूप में प्रस्तुति शुरू हो गई है. आखिर हर कथा सुखांत तो नहीं हो सकती...जीवन जिस तरह का है उससे उसी रूप में दो चार होना पड़ेगा ..सिर्फ वयस्कों को ही नहीं, बच्चों को भी. दंगों में बच्चे माता-पिता को खो देते हैं तो उसकी प्रतिक्रियास्वरुप उनके जिंदगी कौनसा नया मौद लेती है ...इसकी अभिव्यक्ति अलग-अलग रूपों में हो सकती है .... दरअसल मेरा पॉइंट ये था कि बाल उपन्यासों की कथावस्तु टाइप्ड न हो कर बच्चों की और समस्याओं से भी जुड़े तो उसका महत्त्व अलग ही होगा. ...शेष आप सभी योग्य लेखक हैं, मेरे खाते में तो चार अच्छी कहानियां भी नहीं है, उपन्यास तो बहुत दूर है. कोशिश जारी है...

Deven Mewari: तैलग जी ने बाल साहित्य के कुछ अच्छे पठनीय उपन्यासों के बारे में बताया है। इसके लिए उनका आभार। मैं जब भी बच्चों के लिए लिखी गई कहानियां या उपन्यास पढ़ता हूं तो पहले अपने बचपन में लौट कर किताब पकड़ता हूं तब पढ़ते-पढ़ते उसी बाल मन से कथा का आनंद उठाता हूं। मैंने संजीव जी का उपन्यास ‘डूबा हुआ किला’ भी इसी तरह पढ़ा और मन उन साहसी बच्चों की टोली में शामिल होने के लिए उछलता रहा। एक और बाल उपन्यास ने मेरा मन मोह लिया वह है नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित पंकज बिष्ट का ‘गोलू और भोलू’। उसमें एक बच्चे और भालू के बच्चे की कहानी कही गई है। उपन्यास को पढ़ते-पढ़ते कहीं भी यह नहीं लगता कि वह कोई और प्राणी है बल्कि अपना ही दोस्त लगता है। बच्चा और भालू का बच्चा दोनों एक दूसरे की भावनाओं को पूरी तरह समझते हैं। साथियों से कहना चाहूंगा कि अगर ‘गोलू और भोलू’ न पढ़ा हो तो उसे जरूर पढ़ें

Bhairunlal Garg: भाई आप दोनों को हार्दिक बधाई !लेखक और समीक्षक का इस रूप में आना सुखद तो लगा ही ,इस विधा से जुड़े रचनाकारों के लिए भी यह मार्गदर्शक अवसर है.

DrZakir Ali Rajnish तैलंग जी एक गम्‍भीर पाठक भी है, और बाकायदा खरीद कर पढते हैं। उन्‍होने बाल उपन्‍यासों के संदर्भ में जो बातें कही हैं, उनपर गम्‍भीरता से विचार करने की आवश्‍यकता है

Omprakash Kashyap: संजीव जी ने जिस प्रकार खुले मन से बालउपन्यास पर इस आलोचनात्मक टिप्पणी को दिया है, यह दर्शाता है कि वे श्रेष्ठ रचनाकार ही नहीं, व्यक्ति भी बहुत अच्छे हैं. लेकिन उनकी यह टिप्पणी स्वीकारोक्ति कम स्पष्टीकरण अधिक लगती है. बुराई इसमें भी नहीं है. आखिर लेखक को अपना पक्ष रखने का पूरा अधिकार है. अगर अपने लिखे और सोच पर विश्वास न हो तो शायद कोई कलम ही नहीं उठाए. लेकिन उनका यह कथन— 'एक लेखक के रूप में कुछ मजबूरियां और सीमायें होती ही. ९९ % कथानकों का सन्देश बुराई पर अच्छाई की विजय दिखाना होता ही. इसलिए अच्छे पात्रों के साथ साथ खल पात्र भी स्वाभाविक रूप से कथानक में आ जाते है...यही बात आधुनिक कथानकों में लागू होती है...' कहीं न कहीं आजकल लिखे जा रहे बालसाहित्य और उसकी सीमा की ओर संकेत करता है. मेरी निगाह में यह दृष्टिकोण कि बिना नायक—खलनायक के बालसाहित्य नहीं लिखा जा सकता, गलत है. यदि इस तरह के आंकड़े सचमुच 99 प्रतिशत हैं, तो मैं बेहिचक कहना चाहूंगा कि हमारे बालसाहित्यकार आज भी सामंती मानसिकता से बाहर नहीं आ पाए हैं. जिन दिनों नायक—खलनायक को केंद्र बनाकर रचनाएं लिखी जाती थीं, उन दिनों व्यक्ति के अपने विवेक का कोई स्थान नहीं था. उसे केवल आदेश मानना सिखाया जाता था. आज परिवेश बदला हुआ है. हम यह मानते हैं कि जीवन में न तो कोई पूरी तरह अच्छा होता है, न बुरा. लेखक का काम बालक में यह समझ पैदा करना है कि किसी व्यक्ति में कौन—सा गुण व्यापक समाज के हित में है और कौन सा अहितकारी. समाज सुधारक की जिम्मेदारी ओटना लेखक का काम नहीं है. साहित्य के माध्यम से उसकी जिम्मेदारी बस इतनी है कि वह बालक की निर्णय लेने की क्षमता को बढ़ाए. उसमें नीर—क्षीर में अंतर करने का विवेक पैदा करे. और यदि खलनायक कहानी में आता भी है तो लेखकीय सफलता इसमें है कि बालक जान ले कि खलनायक के स्वभाव में क्या अच्छाइयां थीं और कौन—सी बुराइयां....कि उसने अपनी अच्छाइयों को उपेक्षित कर, बुरे गुणों को आगे रखा, इस कारण वह खलनायक कहलाया. इसलिए कोई भी अच्छा व्यक्ति यदि अपनी अच्छाइयों की ओर से असावधान रहता है, बुराइयों की ओर से आंख मूंद लेता है तो उसके भी खलनायक में बदलते देर नहीं लगेगी.


Omprakash Kashyap यह एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है. इसपर विद्वानों के विचार आने चाहिए. निवेदन है कि इस विमर्श को तैलंग जी ब्लॉग पर ले जाएं. जो इसी उद्देश्य के लिए बनाया गया है

Sanjeev Jaiswal Sanjay: "लेकिन उनकी यह टिप्पणी स्वीकारोक्ति कम स्पष्टीकरण अधिक लगती है. बुराई इसमें भी नहीं है. " भाई ओमप्रकाश कश्यप जी का उक्त कथन बिलकुल सही है. अपनी बात रखते समय मेरे अवचेतन मान में कहीं न कहीं स्पस्टीकरण देने कि भावना जरुर थी. लेकिन मैने "खलनायक" शब्द का प्रयोग प्रतीकात्मक रूप में किया था. मेरा आशय हर प्रकार की बुराई, नकारात्मकता  और अस्वाभाविकता से था. दरअसल हम जब भी अच्छाई की जीत कथानक में दिखाते हैं स्वाभाविक रूप में तुलनात्मकता के कारण बुराई का जिक्र सामने आ ही जाता है. आवश्यकता इस बात की है  जरुरत पड़ने पर रचनाकार 'नेगेटिव शेड' का प्रयौग दाल में नमक की  तरह करें वर्ना बच्चों पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा. जिस रचना में  'नेगेटिव शेड'  हीं होंगे वो बहुत उच्च कोटि की श्रेष्ठ रचना होगी.सभी लेखकों को इस दिशा में इमानदारी से प्रयास करना चाहिये. परिणाम निश्चत ही सुखद होंगे . "डूबा हुआ किला' लिखते समय मैंने इस बात की कोशीश  की थी कि डाकुओं की प्रष्ठभूमि  होने के बाद भी कथानक में हिंसा और भयावहता न आने पाए. मुझे लगता था की मुझे इसमें सफलता भी मिली  है लेकिन आज रमेश तैलंग जी की बात पढ़ने के बाद मुझे महसूस हो रहा है कि कथानक में काफी सुधार  किया जा सकता था. क्योंकि कोई भी रचना कभी भी अपने में सम्पूर्ण नहीं होती है. सूधार कि हमेशा गुंजाइश होती है. दुबारा लिख कर प्रकाशित करने की  परमपरा नहीं है वर्ना रमेश जी की शिकायत दूर करने कि कोशिश  करता. अपने अगले उपन्यास में कुछ और सावधानी बरतूँगा . "डूबा हुआ किला" बच्चों  को संकट में हिम्मत और सूझ बुझ से काम लेने, देश की धरोहरों को संरक्षित करने की  प्रेरणा देने और पुराने राजाओं को अपनी सामंती सोच को अब बदलने  प्रेरणा देता है. इस पूरे उपन्यास में डाकुओं द्वारा एक भी गोली नहीं चलायी गयी है और बच्चे उन्हे आत्मसमर्पण के लिए जिस तरह तेयार कर लेते है वो प्रेरणादायक हो सके ऐसी मैने कोशिश  की ही . अब कितनी सफलता मिल पाई है ये पाठक तय करेंगे. आदरणीय रमेश जी और ओम प्रकाश जी का आभारी हूँ जिन्होंने मार्गदर्शन किया ही है विश्वास है की वरिष्ट रचनाकारों का विश्वास भविष्य में अर्जित कर सकूंगा. धन्यवाद.

Monday, October 29, 2012

Welcome to the World of Children's Literature

बाल साहित्य के संसार में आप सभी का हार्दिक स्वागत है 


Friends,

I welcome you all to the amazing world of children's literature.
This is a bilingual  (Hindi & English) blog  primarily focusing on the critical analysis of and discussions on various aspects of Indian & Global children's literature. Before we give it a proper shape, I invite you all to kindly feed me back with your valued suggestions about one and everything which you would like to insert/include in this blog so that it may make a fantastic valuable start.

Our Email address is : wochilit@gmail.com




मित्रो,

वर्ल्ड ऑफ चिल्ड्रेन'स  लिटरेचर (बाल साहित्य संसार) में आप सभी का स्वागत है. यह एक द्विभाषी (हिंदी एवं अंग्रेजी) ब्लॉग  है जिसमे मुख्य रूप से भारतीय तथा विश्व बाल साहित्य के विविध पक्षों पर समालोचनात्मक विमर्श किया जाएगा. इससे पहले कि इस ब्लॉग का समुचित रूप निर्धारित किया जा सके, मेरा आप सभी से विनम्र निवेदन है कि आप इस ब्लॉग की अपेक्षित सामग्री, प्रस्तुति तथा  अन्य  सभी संवंधित पक्षों पर अपने विचारों से हमें शीघ्रातिशीघ्र अवगत कराने की कृपा करेंगे.

यह ब्लॉग आप सभी बाल साहित्यकारों/बालसाहित्य प्रेमियों का है और आपकी सहभागिता इसे समृद्ध करने में हमारा मार्गदर्शन करेगी.

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