Monday, November 5, 2012

संवाद -2 : मोहम्मद साजिद खान का बाल कहानी संग्रह: रहमत चचा का घोड़ा

बाल साहित्य पर सार्थक विमर्श की श्रंखला में 
संवाद-२ के रूप में 
इस बार प्रस्तुत है मोहम्मद साजिद खान का बाल कहानी संग्रह
 रहमत चाचा का घोड़ा
 श्री जाकिर अली 'रजनीश ' की पहली टिप्पणी के साथ 

बिखरते सामाजिक मूल्‍यों की जीवंत दास्‍तान

बहुत से लोग बाल साहित्‍य का मतलब आज भी राजा-रानी और परियों की कहानियों से लगाते हैं। ऐसे लोग बाल साहित्‍य को उपदेश और संस्‍कार प्रदान करने के एक माध्‍यम के रूप में देखते हैं। जबकि जमाना बहुत आगे निकल आया है। आज का बच्‍चा कम्‍प्‍यूटर युग का प्राणी है और वह हर कदम पर प्रतियोगिता का सामना करने के लिए अभिशप्‍त है। यही कारण है कि उसकी रूचियों, उसकी प्राथमिकताओं में ही नहीं, उसके सपनों में भी जबरदस्‍त बदलाव आ चुका है। ऐसे में आवश्‍यक हो गया है कि उन्‍हें ऐसा साहित्‍य उपलबध कराया जाए, जो न सिर्फ अपने आसपास के वास्‍तविक माहौल से रूबरू कराए वरन पाठकों को समाज में सकारात्‍मक बदलाव के लिए प्रेरित भी कर सके।

यह प्रसन्‍नता का विषय है कि युवा रचनाकारों ने न सिर्फ समय की इस माँग को भलीभाँति समझा है, वरन वे अपनी अपनी रचनाओं में उसे ढ़ालकर साहित्‍य को एक नई ऊँचाई भी प्रदान कर रहे हैं। ऐसे ही गम्‍भीर उद्देश्‍य के साथ साहित्‍य रचना करने वाले चर्चित एवं सशक्‍त बाल साहित्‍यकार हैं मोहम्‍म्‍द साजिद खान, जिनका सद्य प्रकाशित बाल कथा संग्रह है ‘रहमत चचा का घोड़ा’।

आलोच्‍य संग्रह में साजिद खान की चार लम्‍बी कहानियाँ ‘रहमत चचा का घोड़ा’, ‘अफरे में बसा गाँव’, ‘हादसा’ और ‘बदलाव’ संग्रहीत हैं, जो बिखरते सामाजिक मूल्‍यों और ग्रामीण जीवन में तेजी से आ रहे बदलावों की जीवन्‍त दास्‍तां को बयाँ करती हैं। ये कहानियाँ अपने ‘फार्म’ और ‘विज़न’ दोनों के कारण बाल कहानियों को एक नया आयाम प्रदान करती हैं। इन कहानियों को लेखक ने ‘लम्‍बी कहानी’ कहकर सम्‍बोधित किया है, जो औपन्‍यासिक उद्देश्‍यों के साथ गढ़ी गयी हैं। आलोच्‍य संग्रह की ‘बदलाव’ कहानी इससे पूर्व ‘ग्‍यारह बाल उपन्‍यास’ (सं0 ज़ाकिर अली ‘रजनीश’) में संग्रहीत होकर पाठकों का ध्‍यान अपनी ओर आकर्षित कर चुकी है। ये अपने तरह की अद्भुत कहानियाँ हैं, क्‍योंकि न तो इनमें कहीं बच्‍चे हैं न बचपना और न ही बाल साहित्‍य के तमाम तथाकथित तत्‍व। लेकिन बावजूद इसके इनमें मौजूद घटनाएँ और संवेदनाएँ न सिर्फ पाठक को बाँधे रखती हैं, वरन उसे बुरी तरह से झकझोरती भी हैं।

परियों और फैंटेसी की काल्‍पनिक नगरी से दूर ये कहानियाँ हमारे अधिसंख्‍य समाज के चुभते यथार्थ पर केन्द्रित हैं और उनके दर्द को अविकल रूप में प्रस्‍तुत करती हैं। इन्‍हें पढ़ते हुए पाठक के मस्तिष्‍क में समाज की विकृत लेकिन सच्‍ची तस्‍वीर उभरती है, जो उसे सोचने के लिए विवश करती है और एक अर्थ में पाठक की रूचि के परिष्‍कार का गुरूतर दायित्‍व का निर्वहन करती भी प्रतीत होती हैं। अपनी इस विशिष्‍ट अप्रोच के कारण ही यह कहानियाँ वर्ष 2008 में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के भारतेन्‍दु पुरस्‍कार से भी समादृत हो चुकी हैं।

‘मार्मिक बाल कहानियाँ’ (प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय) के द्वारा बाल साहित्‍य में अपनी एक विशिष्‍ट पहचान बना चुके मोहम्‍म्‍द साजिद खान इस संग्रह के द्वारा बाल साहित्‍य में ग्रामीण परिवेश की यथार्थपरक कहानियों की एक शानदार नींव रखते हुए नजर आते हैं। इस नींव में गाँव की माटी की महक ही नहीं प्रेमचंद की स्‍वर्णिम परम्‍परा की झलक भी है। आशा है बाल साहित्‍य के वायवीय परिवेश के बीच ये कहानियाँ न सिर्फ पाठकों के बीच सराही जाएँगी, वरन अपनी गम्‍भीर शैली के कारण एक ठोस विमर्श की शुरूआत करने में भी समर्थ होंगीं।

पुस्‍तक: रहमत चचा का घोड़ा
लेखक: मोहम्‍मद साजिद खान
सम्‍पादक: आर. अनुराधा  
प्रकाशक: प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रलाय, सी.जी.ओ. काम्‍प्‍लेक्‍स, लोधी रोड, नई दिल्‍ली-110003
पृष्‍ठ: 65, मुल्‍य: 65


ओमप्रकाश कश्यप11/03/2012 5:32 pm
...बिना किसी भावुकता के पूरे होशोहवास में लिख रहा हूं....ये चारों बालकहानियां हमारे देखे-भाले परिवेश की होकर भी आगे की रचनाएं हैं. हिंदी बालसाहित्य को अभी तक इस दृष्टि से देखा ही नहीं गया है. हालांकि इसकी आवश्यकता बहुत पहले से थी. इसलिए निवेदन है कि बालसाहित्य की जो टेक आपने पकड़ी है, उसको छोड़ना मत. संभव है कि इन कहानियों को पत्रिकाओं और अखबारों में जगह ही न मिले. या कुछ लोग इन्हें बालकहानी मानने से ही इन्कार कर दें. पर ये कहानियां अद्भुत हैं. अगर इसी तरह लिखते रहे तो निश्चय ही आप हिंदी बालसाहित्य अनूठा अवदान देने वाले बनेंगे.
पुस्तक पढ़ने के बाद पता चला कि वह प्रकाशन विभाग, भारत सरकार का प्रतिष्ठित ‘भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार’ प्राप्त कर चुकी है. इसलिए मेरे मन में प्रकाशन विभाग के प्रति भी अतिरिक्त सम्मान है, जिससे बालकथाओं के बंधे-बंधाए ढर्रे से बाहर निकलकर इस पुस्तक को पुरस्कार योग्य माना है. इन दिनों राजेंद्र भट्ट वहां इस काम को देख रहे हैं. इस पुस्तक को उन्होंने देखा है या नहीं, यह तो मैं नहीं जानता, मगर भट्ट जी के पास बालसाहित्य की अनूठी समझ है. इस पुस्तक की बालकहानियों में बालसाहित्य को लेकर उनका सोच भी झलकता है. 
इनमें से प्रत्येक कहानी पर लंबी-लंबी बात की जा सकती है....फिलहाल बस. 
ओमप्रकाश कश्यप

ओमप्रकाश कश्यप11/03/2012 5:31 pm
साजिद भाई ने यह पुस्तक मुझे भेजी थी. पुस्तक पर जो प्रारंभिक प्रतिक्रिया हुई उसको लेखक के नाम पत्र में इस तरह शब्द-बद्ध किया गया था. आपकी समीक्षा में विस्तार देने की कोशिश के रूप में वही यहां प्रस्तुत है—

हिंदी बालसाहित्य में गांव लगभग नदारद रहा है. हालांकि अधिकांश साहित्यकार ग्रामीण पृष्ठभूमि से आए हैं. मगर नौकरी या व्यवसाय के चलते वे शहरों-कस्बों के बाशिंदे बन गए. चूंकि वे अपने बच्चों को गांव के पुराने परिवेश में नहीं लौटाना चाहते, उन्हें शिक्षा में अव्वल, संस्कार में नागरियत के करीब तथा भौतिक दृष्टि से कामयाब देखना चाहते हैं, इसलिए गांव की समस्याएं तथा वहां की सामंती परिवेश के भीतर जीवित सामासिक संस्कृति, उन्हें अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पातीं. इस कारण उनकी रचनाओं में मध्यवर्गीय बालक के सपने तथा उसकी समस्याएं तो हैं, मगर गांव और वहां के बच्चे नहीं हैं. समाचारपत्र गंवईं परिवेश की कहानियां छापने से इसलिए बचते हैं क्योंकि विज्ञापनदाताओं के लिए वहां अपेक्षित बाजार नहीं है; और वे अपने ‘अन्नदाताओं’ को नाराज नहीं करना चाहते. बाजार जैसे-जैसे गांव जाएगा, वहां की चीजें भी अखबार में आने लगेंगी, यद्यपि उनकी दृष्टि वैसी होगी, जैसी बाजार निर्धारित करेगा. उनके लिए यह सीधे-सीधे लेन-देन का मसला है. कस्बाई मानसिकता से रचे गए उनके पात्र धूल-मिट्टी से परहेज करते हैं. लंच लेकर ठीक समय पर पाठशाला को निकलते हैं. अच्छे बच्चे की भांति समय पर होमवर्क निपटाते हैं तथा जेबखर्च की मांग के साथ ‘जेबखर्च जिंदाबाद’ के नारे लगाते हुए आधुनिक होने का भ्रम पाल लेते हैं. जो बच्चे ऐसा नहीं करते, वे ‘अच्छे बच्चे’ भी नहीं हैं. इसलिए उनकी सारी सारी साहित्यिक चिंताएं उन्हें अच्छे बच्चों की श्रेणी में लाने की रहती हैं. अधिकांश बालसाहित्यकारों के लिए गांव अधिक से अधिक अतीतमोह का हिस्सा हैं. ऐसे में ‘रहमत चचा का घोड़ा’, ‘अफरे में बसा गांव’, ‘बदलाव’ और ‘हादसा’ जैसी कहानियां गंवई संवेदना को उसकी पूरी पाकीजगी और निष्ठा के साथ सामने लाती हैं. इस पुस्तक के लिए बधाई देने अथवा सराहना करने के लिए मेरे पास उपयुक्त शब्द नहीं हैं. बस इतना कहूंगा कि आपने बालसाहित्य के खालीपन को भरने की कामयाब कोशिश की है.
अपनी छोटी-सी भूमिका में लेखक ने इन्हें नाहक ही लंबी कहानियां कहा है. मेरी राय में असली कहानियां तो यही हैं. जिन्हें बालकहानी बताकर अखबारों में कालम की भरपाई की जाती है, उनमें से अधिकांश को कहानी कहते हुए भी मुझे संकोच होता है. साहित्य के वृहद उद्देश्य उनसे नहीं साधे जा सकते. जो लेखक यह मानते हैं कि बालक केवल 1000—1500 शब्दों की कहानी पढ़ सकते हैं, वे स्वयं बालक के सामथ्र्य से परिचित नहीं हैं, या जानबूझकर उसको झुठलाना चाहते हैं. और इनमें बहुत-से लोग वही हैं जो चाहते हैं बारह-तेरह वर्ष का बालक कुरआन शरीफ की आयतें पढ़ ले. रामायण, महाभारत के लंबे-लंबे कथानक से परिचित हो जाए, सुखसागर का पाठ कर डाले, लेकिन साहित्य के नाम पर कहानी यदि 1000—1500 शब्दों से बड़ी हुई तो इनके कलेजे कांपने लगेंगे—हाय रे, मासूम बालक इतनी बड़ी कहानी कैसे पढ़ पाएगा! वह बेचारा तो पहले ही पाठ्य पुस्तकों के ‘बोझ’ से दबा है, साहित्य के लिए समय कहां से समय निकाल पाएगा....वगैरह-वगैरह. मुझे तो यह भी एक षड्यंत्र जान पड़ता है. विभेदकारी धार्मिक-सामाजिक कट्टरता, असमानता एवं यथास्थिति को बनाए रखने का षड्यंत्र. शायद हम नहीं चाहते कि बालक का आधुनिकताबोध इतना विकसित हो जो परंपरा से चली आ रही किस्म-किस्म की धंधागिरी को चुनौती दे सके. इसलिए अनुकूलित कहानियों के काटे-तराशे ‘बोन्साई’ संस्करण पढ़ते हुए बालक जब तक बड़ा होता है, तब तक उसको प्रचलित रूढ़ियों और जड़ मान्यताओं के साथ पूरी तरह ढाल दिया जाता है. 
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DrZakir Ali Rajnish11/04/2012 9:01 pm
कश्‍यप जी, आपने सचमुच पुस्‍तक समीक्षा को विस्‍तार दिया है। बाल साहित्‍य आज वास्‍तव में अपनी सीमाएं लांघ रहा है। कुछ लोगों के लिए यह खटकने वाली बात भले ही हो, पर यह एक शुभ संकेत है। साजिद की कहानियां इसी बात की गवाह हैं। इस तरह की बहुत सी कहानियां यादराम रसेन्‍द्र और अनंत कुशवाहा जी ने भी लिखी हैं। पर अफसोस कि ऐसी सार्थक रचनाओं पर कोई चर्चा नहीं हो पाती

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