Wednesday, July 17, 2013

बालसाहित्य ऐसा हो जो बच्चों को उनके स्वदेशी जीवन और संस्कृति से परिचित करा सके

प्रेरक व्यक्तित्व 



देबोरा अहैन्कोरा! 
एक ऐसा नाम जो अफ्रीकी बालसाहित्य को नया रूप देने की अथक कोशिश में है. 
देबोरा ने जब देखा कि अफ्रीका में जो विदेशी बालसाहित्य आ रहा है या उपलब्ध है उसमें अफ्रीकी जीवन के यथार्थ और संस्कृति की कोई झलक नहीं है तो उन्हें बहुत दुःख हुआ. उन्होंने मन ही मन एक सपना संजोया. इस सपने को साकार करने के लिए उन्होंने "गोल्डन बओबाब" नामक एक संस्था की शुरुआत की और अफ्रीका में साक्षरता को बढ़ावा देने के लिए दान में दी गई पुस्तकों तथा अमेरीका में वित्तीय संसाधन जुटाने का कदम उठाया जिसके द्वारा अफ्रीका स्थित स्कूलों तथा पुस्तकालयों को समृद्ध बनाने में सहयोग दिया जा सके. इसके साथ ही देबोरा को लगा कि यदि वे ऐसी पुस्तकें तैयार करवा सकें जिनमे अफ्रीकी जीवन की सच्चाइयाँ और संस्कृति की मौजूदगी हो और जिनसे बच्चे ज्यादा जुड़ाव महसूस कर सकें तो इससे बच्चों में पढने की रूचि अधिक जागृत होगी . उन्हें अपनी कल्पनाओं और आकांक्षाओं को विस्तार देने के अनेक अवसर मिलेंगे  और साक्षरता की बहुत सी समस्याएं आप ही आप सुलझने लगेंगी जिसका वर्तमान स्थिति में बिलकुल अभाव है.
देबोरा अहेंकोरा को बच्चों के बीच साक्षरता बढाने के लिए, 'वर्ल्ड इकोनोमिक फोरम ग्लोबल शेपर फॉर अक्क्रा, घाना की हैसियत से हाल में 'एस्पिन इंस्टीटयूट द्वारा न्यू वोयसिस फेलोशिप से समानित किया गया है.
अफ़्रीकी बाल साक्षरता अभियान की अपनी योजना के अंतर्गत उन्होंने गोल्डन बओबाब पुरस्कार भी शुरू किया है जिससे अफ्रीकन लेखकों को ऐसी बाल पुस्तकों को पुरस्कृत किया जा सके जो अफ़्रीकी जीवन और उसे संस्कृति का सही परिचय दे सकें. इस पुरस्कार को शुरू हुए पांच वर्ष हो चुके हैं और अपने इस अभियान के अंतर्गत अहेंकोरा अफ़्रीकी बच्चों के लिए अब तक आठ सौ से अधिक ऐसी कहानियां लिखवा चुकी हैं जिनमे अफ़्रीकी जनजीवन की पहचान मौजूद है.
देबोरा अहेंकोरा का सपना है कि अफ्रीकी द्वीप  में एक ऐसा रचनात्मक  सामग्री उद्योग स्थापित हो  जो अफ़्रीकी बच्चों के लिए उनकी ज़रूरतों के अनुसार पुस्तकें, खेल, खिलौने आदि तैयार कर सके#

इनपुट सौजन्य : http://allafrica.com/stories/201307121638.html
photo credit: aspin institute /allafrica.com

Tuesday, July 9, 2013

एक छोटी बांसुरी :देवेन्द्र कुमार का सम्पूर्ण किशोर उपन्यास




बच्चों की हंसमुख पत्रिका नंदन के पूर्व सहायक सम्पादक और वरिष्ठ बालसाहित्यकार देवेन्द्र कुमार का सम्पूर्ण किशोर उपन्यास -एक छोटी बांसुरी आप इस वेब लिंक पर पढ़ सकते हैं...

http://devendrakumar.com/?p=951

Friday, July 5, 2013

अमृतलाल नागर की बाल कहानी -'अमृतलाल नागर बैंक लिमिटेड'




अमृतलाल नागर बैंक लिमिटेड

मुझे खूब अच्छी तरह याद है, तब मैं शायद छः या सात  वर्ष का था. दादाजी ने किसी गलती पर मेरे कान उमेठ दिए थे. नौकर वहीं खड़ा था. मैं इस अपमान को न सह सका. सोचने लगा, यह बड़े हैं, इसीलिये इन्होने मेरा अपमान किया. मैं भी बड़ा होने की तरकीब सोचने लगा.
मेरे दादा स्वर्गीय पंडित शिवरामजानीजी इलाहाबाद बैंक के संस्थापकों में से थे. लखनऊ के विशेष सम्मानित व्यक्तियों में उनका स्थान था. मैंने भी सोचा - एक बैंक खोलना चाहिए. बैंक खोलकर ही झट से बड़ा आदमी बना जा सकता है, इसका मुझे सहसा विश्वास हो गया.
मैंने अपने दोस्तों को इकठ्ठा किया. उनसे कहा -'यहाँ जितने आते हैं, सब बड़े-बड़े ही आते हैं. हम लोग अपने पैसे बैंक में जमा नहीं करते, इसीलिए तो सब खर्च हो जाते हैं. रासबिहारी टंडन ने कहा -'यह तो तुम ठीक कहते हो, अमृत!'
मैं अपनी बात का समर्थन पा और भी जोश में कहने लगा, 'इसीलिये मैंने सोच रखा है क एक बैंक खोला जाए. बैंक खोलने में एक सबसे बड़ी शान यह रहेगी कि हम लोगों पर कोई धौंस न जमा सकेगा. जब हमारा बैंक होगा, तब पढने-लिखने से भी छुटकारा मिल जाएगा. तुम लोग तो खुद ही देखते हो, हमारे दादाजी को कभी सी-ए-टी कैट, कैट माने बिल्ली नहीं पढना पढता' और न उन्हें पंडित जी का ही डर रहता है. तुम लोग जानते हो, इसका कारण क्या है? यही कि वह बैंक के मैनेजर हैं. इसलिए सब उनका अदब करते हैं. बैंक खुल जाने के बाद हमारी भी लोग इसी तरह इज्ज़त करेंगे.  क्या समझे टंडन?'
टंडन मेरी बातों के सहारे शायद किसी सुनहरे संसार में  घूमने लगा था. मेरे प्रश्न पर सहसा चौंककर बोला -'हाँ, तो तुमने क्या कहा?'
मुझे गुस्सा आ गया. मैंने कहा -'तुम सूअर हो.'
टंडन को भी गुस्सा आ गया. खड़ा होकर बोला - 'बैंक में आप ऐसी बातें नहीं कह सकते.'
मैंने कहा -'मैं कह सकता हूँ.'
टंडन बोला - 'बैंक में सूअर वगैरह नहीं कहा जाता.'
मैंने मेज पर हाथ पटककर कहा -'हमारे बैंक में कहा जाएगा. मैं फिर कहता हूँ -'टंडन सूअर.'
'अगर तुम कहोगे, तो मैं भी कहूँगा -'अमृत सूअर!'
अपना इतना बड़ा अपमान सहने के लिए मैं बिलकुल तैयार न था. मैं गुस्से के मारे कांपने लगा और बदला लेने के लिए बढ़ ही रहा था की पंडितजी की आवाज सुनायी पडी.
पंडितजी से हम सभी डरते ठे. दुसरे साथी तो भाग निकले लेकिन, टंडन के तो देवता कूच कर गए. वह भी उन्हीं से पढता था. कमरे में आते ही टंडन को देखकर  उन्होंने पूछा ;'क्यों बे सूअर, तू भी यहीं है? और तुम लोग लड़ क्यों रहे हो?'
 मुझे फ़ौरन ही एक बात सूझी. टंडन से अपने अपमान का बदला लेने के लिए अच्छा मौका देख मैंने कहा -'पंडितजी, टंडन कहता है - I goes और किताब में लिखा है -I go और पंडितजी, यह ये भी कहता है की आपने बताया है की किताब में गलत लिखा है.'
लाल-लाल आँखों से टंडन की तरफ घूरकर पंडितजी बोले..'क्यों बे सूअर, मैंने यह सब कब बताया था, बोल?'
बेचारा टंडन मिमियाने लगे. वह अपनी सफाई भी न दे पाया था की पंडितजी ने उसके दोनों कान पकड़कर अपनी और घसीटते हुए उसकी पीठ पर दो घूंसे जमा दिए. टंडन बिलबिला उठा. उसकी दशा देखकर मुझे दया आ गई.
पंडितजी के जाने के बाद मैंने कहा -'टंडन!'
टंडन मुंह फुलाकर बोला-'मैं आपसे नहीं बोलता.'
मैंने उसे समझाना शुरू किया. कहा, 'मैं तो तुम्हे एक सबक दे रहा था. आज तुम पंडितजी से इतना डरते हो. अगर बैंक खुल जाएगा, तो पंडितजी की मजाल नहीं की तुम्हारे बदन पर उंगली भी लगा सकें. फिर चाहे तुम I go कहो या I goes दोनों ठीक हैं.'
'लेकिन मैंने I goes कहा ही कब था, जो आपने पंडितजी से झूठमूठ मेरी शिकायत कर दी.'
मैंने उसे समझाया-'वह तो जो बात होनी थी सो हो गयी. अब उसका ज़िक्र छोडो. मगर मैं तुमसे कहता हूँ, बैंक खुल जाने के बाद अगर तुम I goes भी कहा कहोगे, तो भी ठीक होगा.
टंडन अब जरा धीरे-धीरे राह पर आया. कहने लगा -'तो क्या बैंक खुल जाने पर पढ़ाई ख़त्म हो जाएगी?'
'वह तो हो ही जायेगी. तब कोई हमें जबरदस्ती पढने न बैठा सकेगा. हाँ, जब हमारा मन चाहेगा, दिन भर में किसी वक्त अखबार पढ़ लिया करेंगे, जैसे हमारे दादाजी पढ़ते हैं.'
'और यह पंडितजी?'
'अजी, पंडितजी की बात भली बतायी. इनको उसी वक्त शहर से बाहर निकाल दूंगा.'
टंडन ने उतावली के साथ कहा-'तो फिर उसमें देर क्या है? आज ही बैंक खोल दो.'
मैंने कहा-'आज क्या, अभी से ही खुल गया. तुम्हारे पास कितने पैसे हैं?'
टंडन को इस बैंक में शंका हुई.बोला-'वाह, अभी कैसे खुल गया? न तो इसका नाम ही रखा गया है, न तेलेफोने ही है, न बाबू लोग काम कर रहे हैं और न चपरासी है. बैंक कहीं इस तरह खुलता है?'
मैंने कहा-'तो इसमें बात क्या है? नाम अभी सोच लो. मेरा ख्याल तो यह है, उसका नाम इलाहबाद बैंक लिमिटेड है, तो हम 'लखनऊ बैंक लिमिटेड' रख लें.'
टंडन बोला-'हम लखनऊ-इलाहाबाद के फेर में नहीं पड़ते. अगर कहीं लखनऊ-भर के आदमी आकर उसमें घुस गए तो बड़ी मुश्किल होगी.'
बात मेरी भी समझ में आ गयी. मैंने टंडन की पीठ ठोकी, कहा-'हो भोंदू, मगर बात कभी-कभी पते की करते हो. अच्छा, तो बैंक का नाम सोचो.'
थोड़ी देर तक सोचने के बाद टंडन मुस्कराकर बोला-'बैंक का नाम रक्खो  रासबिहारी टंडन बैंक लिमिटेड.'
मैंने कहा-'बैंक मैं खोलूँगा, और नाम तुम्हारा रखा जाएगा. यह हरगिज़ नहीं हो सकता. बैंक मेरे नाम से खुलेगा.
इसमें केवल टंडन को आपत्ति ठे. मैंने तब एक बात सोची, कहा-"अच्छा, जो ज्यादा पैसे जमा करे, उसी के नाम से बैंक खुले. सबने इसे मंजूर किया. मैं बेहद खर्चीला था. टंडन ने भी सोचा होगा की मेरे आस अधिक-से-अधिक दो तीन आने पैसे निकलेंगे. और वह अपने पैसे बचाता था.
मैंने पूछा-'तुम्हारे पास कितने पैसे हैं.'
उसने कहा-सवा बारह आने.'
दिल बैठने लगा-मेरे पास वाकई में सवा बारह पैसे भी न थे. फिर भी अकड़ के साथ मैं बोला-'मेरे पास एक रुपया है.'
दादाजी से रुपया ले लेना मेरे लिए बाएं हाथ का खेल था. दुसरे साथी बैंक के बाबू बने. टंडन खजांची बना, लेकिन गोलक की ताली मेरे पास ही रही. छेड़ा चपरासी का लड़का सदन हमारे बैंक का चपरासी बना. कुल्हड़ में छेड़ करके टेलेफोन बनाया और मैं ठाट से मैनेजर बनकर बैठ गया. छत पर घर-भर की धोतियाँ तानकर औफ़िस बना लिया. बैंक का काम चालू हो गया.
थोड़ी देर बाद टंडन ने टेलेफोन किया -'अमृत!'
' मैंने कुल्हड़ में मुंह लगाकर कहा-'अबे, मैनेजर साहब कह, नहीं तो मार बैठूंगा.'
टंडन ने बजाय टेलेफोन पर बात कहने के पर्देवाली धोती उठाकर कहा-'आप मैनेजर हों या कुछ भी हों, बैंक में मार नहीं सकते.'
मैंने कहा-'तो आप भी बैंक में मुझे अमृत नहीं कह सकते. मैनेजर साहब कहा कीजिये.'
टंडन ने कहा-'तो आपको भी खजांची साहब कहना होगा.'
मैंने कहा-'मैं कहूँगा.'
इसके बाद पर्दा ठीक कर दिया गया. खजांची साहब ने मैनेजर साहब को तेलेफोने किया-'बैंक में चेक- बुक तो है ही नहीं! लोग रुपया कैसे भुनाएंगे? लेजर-बुक भी नहीं है.
दो मिनट तक गौर करने के बाद मैंने टेलेफोन पर कहा- 'हेलो, खजांची साहब! आप एक काम कीजिये. अपनी हिसाब वाली कापी फाड़कर कल लेजर-बुक बना लाइयेगा. मैं चेक-बुक का इंतजाम करूंगा.'
खजांची साहब बोले- 'लेकिन मैनेजर साहब, पंडित जी फिर कुछ कहेंगे तो नहीं?
मैंने कहा- 'आप खजांची हो कर पंडितजी से डरते हैं?'
खजांची साहब अकड़कर बोले-'मैं बिलकुल नहीं डरता, कल बना लाऊंगा.' शाम को दादाजी की चेकबुक मैं उठा लाया. सोचा, इनके पास तो बहुत सी हैं, एक मैं ले लूं.'
दुसरे दिन इतवार था. लेकिन हमारा बैंक खुला रहा. दिन-भर दनादन चेक कटीं. लेजर लिखा गया. बाबू लोगों ने भी काम किया. सदन चपरासी बाहर बैठा रहा. मैनेजर और खजांची दिन-भर टेलेफोन पर ही बातें करते रहे.
सोमवार के दिन सबेरे ही दादाजी अपनी चेकबुक तलाश कर रहे ठे. मैं एकदम चुप्पी साध गया.
दिन में उधर दादाजी अपने बैंक गए, और मैं अपने बैंक में पहुंचा, धोतियाँ वगैरह ठीक तरह से बंध्वायीं. थोड़ी देर में बाबू लोग भी आ गए. मुझे उस दिन घर से इकन्नी मिली थी और बाबू लोग भी पैसे लाये ठे. लेकिन खजांची अभी तक आये ही नहीं थे. मैं गुस्से के मारे लाल हो उठा. करीब एक बजे टंडन आया, और आते ही पर्दा उठाकर बोला-'अमृत, अब बैंक बंद हो गया.'
मैंने कहा-'आप टेलेफोन पर बात कीजिये. बैंक बंद नहीं हुआ. टंडन अकड़कर बोला-'टेलेफोन की ऐसी-तैसी. अब मैं बैंक में काम नहीं करूंगा.'
और बाबू लोग भी धोतियाँ हटाकर वहां आ गए. मैंने टंडन से कारण पूछा. मालूम हुआ कि जैसे ही दस बजे, हमारे खजांची साहब अकड़ते हुए अपने घर से बैंक की तरफ चले. पंडितजी उन्हें पढ़ाने जा पहुंचे. खजांची साहब मेरे आश्वासन के अनुसार उनसे अकाद गए और पढने से कटाई इनकार कर दिया. उस पर पंडित जी ने उनकी खजान्ची गिरी की बिलकुल परवाह न कर वहीं गली में ही उनकी अच्छी तरह मरम्मत की और कान पकड़कर घसीटे हुए घर ले गबैंक ए. घर पर भी हिसाब की कापी को लेजर-बुक बना देने के कारण बहुत मार पडी. लिहाजा अब वह बैंक के खजांची नहीं बनेंगे.
इसके बाद टंडन ने कहा-'बैंक अब टूट गया, और आप मेरे पैसे वापस कर दीजिये.'
दुसरे बाबू लोग भी इस घटना से डरकर अपने पैसे मांगने लगे.
मैं अभी इस विद्रोह को शांत करने की सोच ही रहा था की छत पर एक पतंग आकर मेरी तरफ गिरी. हमारे चपरासी साहब कायदा-ताज्जीब, सब भूलकर उसे लेने झपटे. मैं गुस्से में भरा हुआ तो था ही, दो-तीन तमाचे कसकर जड़ गिये. चपरासी साहब रोते हुए नीचे भागे.
इधर अभी पैसे लौटाने के फेर में झगडा हो ही रहा था की दादाजी एकाएक छत पर आते हुए दिखाई पड़े. सदन ने शायद बैंक का हाल भी उन्हें सुना दिया था.
अपनी चेक-बुक उन्होंने हमारे बैंक में देखी. इधर विद्रोही-खजांची और बाबुओं ने पैसों की शिकायत की. सदन चपरासी पहले ही भंडाफोड़ कर चुका था.
दादाजी को गुस्सा आ ही रहा था. उसी समय पंडितजी ने आवाज लगाई. दादाजी ने उन्हें भी अन्दर ही बुला लिया. ...फिर तो न कहना ही अच्छा होगा क्योंकि' अमृतलाल नागर बैंक लिमिटेड के मैनेजर साहब के दोनों कान सारंगी की खूंटियों की तरह कस-कसकर उमेठे जा रहे थे , गालों पर तड़ातड़ तमाचे पड़ रहे थे, और चपरासी, खजांची तथा बाबू लोगों के दिलों में ठंडक पड़ रही थी.#


(शरद नागर द्वारा संपादित 'अमृतलाल नागर सम्पूर्ण बाल रचनाएं' से साभार )














Thursday, July 4, 2013

मेरे प्रिय बालगीत पुस्तक पर समीक्षक अबध बिहारी पाठक की समीक्षकीय दृष्टि

लेखकमंच डॉट कॉम से साभार 

बच्चों की दुनिया के अंग संग :अवध बिहारी पाठक

कवि रमेश तैलंग के बालगीतों में प्रयोगधर्मी विविधता है। उनके बालगीतों के संग्रह ‘मेरे प्रिय बालगीत’ पर वरिष्‍ठ कवि अवधबिहारी पाठक की आलोचनात्‍मक टिप्‍पणी-
‘हर रात/लौटता हूं/रेंगता रेंगता/उसी गली में/जहां मुस्कुराता है एक
बच्चा/हर शाम/मुझे पंख देने के लिए- राजकुमार केसवानी (‘बाकी बचें जो’ से)
बीसवीं सदी के अर्धशतक तक साहित्य सृजन, पठन पाठन आदमी की जिंदगी का एक अहम हिस्सा बना रहा, परंतु उसके बाद का समय साहित्य के पठन-पाठन भी बड़ी दर्दनाक तस्वीर खींचता है। लेखन में उदात्तता आई,  परंतु पढऩे वालों का अकाल पड़ गया, क्योंकि साहित्य में इन दिनों बाजारवाद की बड़ी जोरदार धमक है। अर्थ जहां जिंदगी का लक्ष्‍य बन जाए, वहां बाल साहित्‍य और बाल संवेदना कैसे जिंदा रहे।  परिणामत: उसकी भी उपेक्षा हुई, किंतु ऐसी जटिल परिस्थिति में भी बाल साहित्‍य लिखा जा रहा है  तो यह प्रयत्न उत्साहवर्धक है और नई संभावनाओं से लैस भी, क्योंकि बकौल राजकुमार केसवानी बच्चे समाज की जिंदगी को उड़ान भरने की ताकत देते हैं। मेरे देखने में रमेश तैलंग की पुस्‍तक ‘मेरे प्रिय बाल गीत’ अभी-अभी आई है, जो बाल सहित्‍य लेखन में एक अद्भुत प्रयत्न है। यूं रमेश तैलंग बाल साहित्य लेखन के अप्रतिम स्तंभ है।  उनका योगदान इस क्षेत्र में बहुत चर्चित रहा है, सम्मानित पुरस्‍कृत भी।
जाहिर है, बच्चों की दुनिया उनकी अपनी दुनिया होती है- सभी प्रकार के काइयांपन से कोसों दूर, वहां सब कुछ नैसर्गिक है, कवि का मन और विचार चेतना बच्चों की दुनिया में बहुत गहरे डूब कर एकाकार हो गई। फलत: बच्‍चों की दुनिया का हर पहलू सोच-विचार, आचार, मान-अपमान, स्वाभिमान, प्यार, दुलार, धिक्कार और हकों की मांग भी शामिल है बच्चों की इस गीत दुनिया में। मनुष्य की ‘चतुराई का शिल्प’ नहीं उसके स्थान पर शुद्ध नैसर्गिक मन की हलचल मूर्त हुई है जो तैलंग जी के संवेदना पक्ष को उजागर करती है।
यहां रचना के कन्टेंट की बात कहना भी जरूरी-सा लगता है। पुस्‍तक में 163 बालगीत हैं जो छोटे, मझोले, बड़े सभी आकार हैं। ये गीत वस्‍तुत: बालक के मन पर आई  उस मनोवैज्ञानिक स्थिति की व्याख्या है, जो बालक अपने समग्र परिवेश के प्रति व्यक्त करता है। कवि इतना समर्थ है बाल मनोविज्ञान को पढऩे में कि बालक की बात काल्पनिक हो या यथार्थ लेखक ने हर उस विचार-लहर को पकड़ा है, जहां उसके क्रियाकलाप उसके अंतर्मन के गंभीर विचार प्रस्ताव बन जाते हैं, वे रोचक हैं, त्रासक भी और चैलेंजिंग भी। हर बाल गीत की अपनी एक जमीन है और उसमें बच्चे के उस मोहक क्षण का वर्णन है, जहां बच्चा निपट अकेला खड़ा होकर अपने परिवेश को रूपायित करता है। फलत: उनमें बाल जीवन का आल्हाद भी है और विडम्‍बनाएं भी। सभी कविताओं में निहित कवि भी व्यंजना को प्रस्तुत करने में विस्तार मय है अस्तु बिल्कुल जीवंत रूपकों का दर्जा यहां इष्ट है। यथा।
बाल श्रमिक हमारे देश की दुखती रग है। हजार कानून बने, परंतु बाल श्रमिकों का शोषण अब भी जारी है। उन्हें अपने शिक्षा के अधिकार की जानकारी भी शासन नहीं दे सका। बाल श्रमिकों के माता-पिता पेट की आग की गिरफ्त में पड़कर बच्चों को स्कूल नहीं भेज पाते। ‘भोलू’ नामक कविता में बाल श्रमिक भोलू का साथी उसे स्कूल जाने को प्रेरित करता है तो भोलू उत्तर देता है कि ठीक है मैं पढऩे जाऊंगा, परंतु ‘अच्छा पढऩे की तनख्वाह क्या दोगे ?’ (पृष्‍ठ-34)  कवि यहां उन बच्चों का हाहाकार उकेर सका, जो पेट की खातिर अपने हर क्रियाकलाप को केवल पैसे से तोलते हैं। ‘ मैं ढाबे का छोटू हूँ’ कविता होटलों में देर रात तक काम करने वाले बच्चों की पीड़ा को साकार कर सकी है- ‘देर रात में सोता हूँ/कप और प्याली धोता हूँ/रोते-रोते हँसता हूँ/हँसते- हँसते रोता हूँ।’ यहाँ बाल श्रमिक की लाचारी साकार हो उठी है जिसकी चिंता न समाज को है और न शासन को। कवि यहां एक भयंकर सच को व्यक्त कर गया कि शायद कविता के बहाने ही सही, किसी का ध्यान इस तरफ जाए और कुछ कारगर उपाय हों।
हमारे देश में प्रांतों की विविधता से विविधवर्णी संस्कृति का मेल हमें घरों में भी दिखाई देता है। ‘घर है छोटा देश हमारा’  कविता में घर में विभिन्न प्रांतों की उन मां,  चाची,  भरजाई का जिक्र है जो अलग होकर भी खानपान,  आचार-विचार के स्‍तर पर सामान्‍जस्‍य बैठाकर घर चलाती हैं- ‘छोटे से घर में हिलमिलकर सारे करें गुजारा।’ (पृष्‍ठ 46)। जैसा कथन देश प्रेम और एकता की प्रेरणा देता है।
‘पापा की तनख्वाह’ और ‘महंगे खिलौने’  कविताएं बच्चों के मुंह से कही गई बाजार में व्याप्त महंगाई की कहानी हैं,  जहां खिलौनों के अभाव में उनका बचपन छीज रहा है। बच्चा अबोध है, परंतु भीतर से कितना जागरूक कि उसके पापा ‘चिंटू का बस्ता/मिंटी की गुडिय़ा/अम्‍मा की साड़ी/दादी को पुडिय़ा’ (पृ0 64)। बाजार से उधार लाए हैं। इसका घाटा अगले महीने खर्च कम करके झेलना पड़ेगा। यहां कवि मझोले पगारधारी लोगों के बच्चों की तकलीफ को ठीक से प्रस्तुत कर गया है। आगे का दृश्य और भी मोहक है। बच्चा भले ही छोटा है, परंतु बाजार की उठक-पटक से अनजाना नहीं है। एक अन्‍य कविता ‘महंगे खिलौने’ में बच्‍चा कहता है-  ’छोटे हैं, फिर भी हम इतना समझते/ कैसे गृहस्थी के खर्चे है चलते/जिद की जो हमने तो पापा जी अपने/न चाहते भी उधारी करेंगे/रहने दो, रहने दो ये महंगे खिलौने/ जेब पर अपनी ये भारी पड़ेंगे,’ (पृष्‍ठ 137)। अर्थ ने कितना समझदार बना डाला है बच्‍चों को कि वे अपना बचपन भी इस महंगाई के सामने समर्पित, नहीं सरेंडर कर देते हैं। कवि की दृष्टि यहां गहरी होकर भीतर तक हिला जाती है, बच्चों की बेबसी से।
विज्ञान की दौड़ और शहरीकरण की बीमारी के चलते आज के बच्चों का प्रकृति से निकट का वास्ता लगभग टूट ही गया है। कवि ने बच्चों के दर्द की बखूबी पकड़ा है- ‘पेड, फूल, फल पड़े ढूंढने/ हमको रोज किताबों में/हरियाली रह जाय विंधकर/सिर्फ हमारे ख्वाबों में/ ऐसा जीवन नहीं चाहिए (पृष्‍ठ 163)। चिडिय़ों की कमी से भी चिंतित है बच्चा- ‘क्या उसको/बढ़ती आबादी के दानव ने मार दिया?’ (पृष्‍ठ 76)। कविता ‘पंछी बोल रहे है’ में अपील है- ‘पंछी, पेड़, जानवर, जंगल/बचे रहे तो होगा मंगल’ (पृष्‍ठ 90)। कवि यहां समग्र पर्यावरण के प्रति बच्चों की वाणी में चौकस है। विश्व में भले ही कंप्यूटर की तूती बोले, पर धरती से जुड़ा़ बच्चा, उसे ‘दुनिया का कूड़ा’ (पृष्‍ठ 163) मानता है। बच्चे तन और मन दोनों स्तरों पर फुर्ती चाहते हैं, किंतु मशीनीकरण से फुर्ती तो आई परंतु ‘मन बूढ़ा हो गया’। उल्‍लास  रहित बच्‍चे ईमेल के पक्षधर नहीं- ‘ऐसी त्वरित गति किस काम की जिसमें ‘पोस्टकार्ड हो गया फिसड्डी और चिट्ठी-पत्री फेल हो रही हो’(पृष्‍ठ 146)। पत्र अपने प्रिय के पास पहुंचकर मन में जो एक अजीब सिहरन पैदा करते थे, वो फोन-ईमेल ने छीन ली। अब ‘मेल मिलाप हो गया जल्दी, पर खतरों का है ये खेल’ उन वैयक्तिक विडंबनाओं की ओर संकेत है जो उसे सहज न रख कर तनावयुक्त ही करते है, मुक्त नहीं। फोन कर संवादों में अब वह गर्माहट कहां? बड़ा प्रश्न है, ‘फ्रिज है रईसों के घर भी निशानी/ पर भैया, अमृत है मटके का पानी’ (पृष्‍ठ 126)। कविता में सप्रमाण मटके की उपयोगिता दिखी जो आधुनिक साधनों को नकारती है।
बच्चों भी प्रकृति में तर्क और जिज्ञासा सदैव से रहते आए हैं। ‘डॉक्टर अंकल’ कविता में डॉक्‍टर भी बच्‍चे के तर्क से पराजित होता दिखा। इसी तरह काली बकरी द्वारा दिया गया दूध सफेद, और हरे रंग की मेहंदी की पत्‍ती का रचाव लाल रंग का कैसे?  हवा की मुट्ठी में न आना ऐसे स्थल है कविताओं के जिनमें बच्चों की प्रश्नाकुलता मूर्तिमान हुई है। यहां एक तथ्य ओर भी उल्‍लेखनीय है कि प्रत्येक कविता के साथ उसके भाव को चित्र में मूर्तिमान किया गया है। इससे कवि के मूल काव्य विम्ब योजना तक पहुंचने में सुविधा होती है।
पुस्तक फ्लेप पर उल्‍लेख है कि बाल गीतों का वय के अनुसार शिशु काल और किशोर गीतों जैसा कोई तकनीकी वर्गीकरण नहीं है। पर यह बात मेरे गले नहीं उतरी क्‍योंकि ‘धत् तेरे की अपनी किस्मत में तो बोतल का दूध लिखा है’ जैसी कविताएं शुद्धत: शिशु भाव पर केन्द्रित  हैं। इसी प्रकार ‘पापा ! घोड़ा बनो’, ‘ढपलूजी रोए आँ… ऊँ’, ‘मैं त्‍या छतमुत तुतलाता हूं’ जैसी कविताएं बाल वय की एवं इसी तरह, ‘ऐसा जीवन नहीं चाहिए’ और ‘दूध वाले भैया’ आदि गीत किशोर मन की अभिव्‍यक्तियां हैं। अस्‍तु वर्गीकरण साफ है।
कवि का भाषा पर असाधारण अधिकार है। भाषा और भाव का कथनों में अद्भुत मेल है। तत्ता, म्हारा, थारा, गप्प, गुइयां जैसे विभिन्न बोलियों के शब्‍द कथ्‍य को प्रभावी बना सके हैं।
सामाजिक फलक पर बच्चों को देखें तो इस अर्थ युग में सामाजिक जीवन में बच्चे बोझ की ही अनुभूति देते हैं और यदि बोझ नहीं तो किनारे पर तो अवश्य ही कहे जायेंगे। वह यूं कि अभिजात्य वर्ग के सभी भौतिक सुविधाओं से लैस बच्चे मां-बाप के सानिध्य को तरसते हैं क्योंकि माता-पिता के पास उनसे बोलने-बताने का समय ही नहीं, मध्यवर्ग के बच्चे महंगाई और उच्च वर्ग की नकल न कर पाने से कुंठित और निम्न वर्ग के बच्चे सीमित साधनों और अभावों के कारण माता-पिता का दुलार नहीं पाते। इस प्रकार से बचपन तो साफतौर पर ठगा ही जा रहा है क्योंकि मातृ-पितृ स्‍नेह के जो दो पल बच्‍चे को मिलने चाहिए, उनसे बच्‍चे वंचित हैं और ऐसे में तैलंग जी द्वारा  लिखित बाल गीत मन में गुदगुदी तो पैदा करते ही हैं, जो एक बड़ी बात है आज के वक्त में। कुल मिला कर कहा जाए तो निराश होने की बात नहीं है। राष्ट्रकवि दिनकर ने समाजवाद के पक्ष में गर्जना की थी, ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ की टोन पर तैलांग जी ‘सड़कें खाली करो कि बच्चे आते हैं’ की घोषणा करते हैं तो एक आशा बंधती है कि आगामी कल बच्चों का होगा, जिन पर भविष्य का भार है। पुस्तक बाल साहित्याकाश मैं एक सितारा बन कर चमकेगी इसी आशा के साथ और कवि के लिए सतत लेखन की शुभकामनाओं के साथ।
पुस्‍तक: मेरे प्रिय बालगीत (संग्रह, 2010), पृष्‍ठ: 180, मूल्‍य:250 रुपये  प्रकाशक : कृतिका बुक्‍स, 19 रामनगर एक्‍स्‍टेंशन-2, निकट पुरानी अनारकली का गुरुद्वारा, दिल्‍ली-110051

Monday, July 1, 2013

परियां फिर लौट आईं -लेखक विष्णु प्रसाद चतुर्वेदी





विज्ञान बाल कथाओं की एक अनूठी पुस्तक
- रमेश तैलंग


हिंदी बालसाहित्य में विज्ञान पर आधारित कथाओं का सृजन जो गिने-चुने  लेखक कर रहे हैं उनमें विष्णु प्रसाद चतुर्वेदी का नाम अग्रिम पंक्ति में आता है. चतुर्वेदी जी विज्ञान की दुरूह अवधारणाओं को कथा का आधार बना कर न केवल कहानी को शिक्षा का सहज माध्यम बनाते हैं बल्कि बच्चों की जिज्ञासु प्रवृत्ति को भी वे अपनी कहानियों के ज़रिये एक तार्किक निष्कर्ष तक  पहुंचाते हैं.  यह एक दोहरा काम है जो कई तरह के खतरों से भरा है. खतरे इस मायने में कि एक और तो आपको सही वैज्ञानिक तथ्यों का ध्यान रखना है और दूसरी ओर बाल मनोविज्ञान के दायरे में कथा की रोचकता भी बनाए रखनी है. 
     चतुर्वेदी जी का हाल में प्रकाशित बाल कथा संग्रह परियां फिर लौट आईं इन  दोनों मानदंडों को केंद्र में रख कर लिखा गया है. इस संग्रह में लेखक की २५ विज्ञान बाल कथाएं हैं जो पाठकों को कथारस के साथ-साथ कार्य-कारण संवंध के आधार पर उस कथा सूत्र का वैज्ञानिक विश्लेषण भी अलग से प्रस्तुत करती हैं. इसमें कोई संदेह नहीं कि इस तरह की कहानियां एक विशेष उद्द्येश्य को सामने रख कर लिखी जाती हैं और उनमें वह स्वाभाविक सहजता नहीं रह पाती जो उन कहानियों में दिखती  है जहाँ कहानी का अंत कहां होगा, स्वयं लेखक को पता नहीं होता. फिर भी ऐसे कथा प्रयोग विज्ञान और साहित्य के अन्तःसम्बन्धों को परिभाषित तथा प्रगाढ़ करने में अत्यधिक सहायक होते हैं और  चतुर्वेदी जी की यह पुस्तक इस दिशा में एक आवश्यक हस्तक्षेप करती है.
     परियां फिर लौट आईं की कुछ कहानियों के शीर्षक भी काफी रोचक हैं और जिज्ञासु पाठकों को आकर्षित कर सकते हैं. उदाहरण  के लिए अजगर हुआ पंक्चर, डीजल का पेड़, भोजनशाला का सबक , कुँए का भूत, परियां लौट आईं, कोई नहीं स्थिर यहाँ, सब गतिमान है, तिथि क्यों टूटी, शून्य है पृथ्वी का भार, नीली पहाड़ी के पीछे, निशा नगर  का राजकुमार शुक्र, ओ पापड वाले पंगा न ले.
     कथा शीर्षकों को देखकर ही लगता है कि लेखक बच्चों की रुचियों को भरपूर समझता है. गौर से देखा जाए तो इस संग्रह की हर कहानी एक सवाल का एक जवाब है जो सीधे-सीधे न दे कर कहानी के ज़रिये दिया गया है. इसलिए ये कहानियां यहाँ केवल बच्चों को ही शिक्षित नहीं करती  बल्कि उन शिक्षकों को भी, जो विज्ञान से सामान्यतः दूर रहें हैं, शिक्षित करती है. इसी बिन्दु  को जरा और विस्तार देते हुए अब संग्रह की इन्ही कुछ कहानियों पर थोड़ी चर्चा कर ली जाए.  तो समीचीन होगा. अजगर हुआ पंक्चर जानवरों को पात्र बनाकर लिखी गई रोचक कहानी है. यह तो सभी जानते हैं कि अजगर जब किसी भी प्राणी को अपने शिकंजे में जकड लेता है तो उसके प्राणों के लाले पड़ जाते हैं कारण, शिकार से लिपटने के बाद अजगर अपने फेफड़ों में हवा भरता जाता और शिकार का दम घुटने लगता है लेकिन यदि अजगर के फूलते शरीर में नुकीली  और पैनी चीज चुभो दी जाए तो उसकी पकड़ ढीली पड़ जाती है और जब मिंकू कछुवा अजगर की लपेट में आया तो रोमी, चीकू और छन्कू ने इसी तरह सेही के कांटे चुभोकर अजगर से मिंकू को बचाया. नकची लोमड़ी की चाल धरी की धरी रह गई.
     डीजल का पेड़  का नाम आपने भले ही न सुना हो पर जब खारिया-मीठापुर के लोग वर्षा की कमी के कारण फसल न होने की चिंता करने लगे और जब उन्हें पता चला कि रतनजोत नाम की झाडी से प्राप्त बीजों का तेल डीजल का विकल्प बन सकता है और यह झाडी उस ज़मीन पर भी उग सकती है जहाँ फसल नहीं होती, तो उनकी सारी  चिंताएं दूर हो गई और उन्होंने रतनजोत को अपना कर अपनी आमदनी का अच्छा उपाय ढूंढ लिया.
     भोजनशाला का सबक कहानी में भोजनोपरांत भोजन की थाली में बचे अन्नकणों को पानी डालकर पी जाना आज के ज़माने में दकियानूसी भले ही समझा जाए पर उसकी भी एक उपयोगिता है. वह क्या है, इस कहानी को पढ़कर भली-भांति समझा जा सकता है.
     कुँए का भूत उस अंधविश्वास का निराकरण करती है जिसके तहत अज्ञानी  लोग  गहराई में  नीचे उतरने पर जहरीली गैसों के कारण दम घुटने की घटना को भी भूत का कारनामा मानते हैं 
     परियां लौट आईं की आधारभूमि बिगड़ते पर्यावरण की और लोगों का ध्यान आकर्षित करना हैं. परियों को आसमान से धरती पर आना तभी अच्छा लगता है जब धरती पर प्राकृतिक संतुलन और स्वस्थ पर्यावरण की उपस्थिति बनी हो अन्यथा वे भी यहाँ आते हुए घबराती है.
     संग्रह की अन्य  कहानियां भी इसी तरह विज्ञान का कोई न कोई सूत्र अपने में निहित किये हुए हैं और इस सूत्र की समझ विकसित करने के साथ वे सामान्य पाठक को वह  सन्देश भी देती है जो लेखक कहानी के जरिये पाठक तक पहुंचाना चाहता है.
     आशा की जानी चाहिए कि चतुर्वेदी जी की यह नई कथापुस्तक विज्ञान आधारित बाल कथासाहित्य में न केवल उपयोगी सिद्ध होगी बल्कि नए लेखकों को भी आगे बहुत कुछ जोड़ने की प्रेरणा देगी.


समीक्ष्य पुस्तक :
परियां फिर लौट आईं
लेखक विष्णु प्रसाद चतुर्वेदी
प्रकाशक साहित्य चन्द्रिका प्रकाशन
२४ न्यू पिंक सिटी मार्किट, सिद्धेश्वर मंदिर के पीछे,
पंचवटी, राजा पार्क, जयपुर राजस्थान
संस्करण २०१३, मूल्य २००/- रुपये मात्र.


संपर्क :
रमेश तैलंग
५०६ गौड़ गंगा-१, सेक्टर -४
वैशाली २०१०१२ (गाज़ियाबाद)

मोबायल ०९२११६८८७४९