Wednesday, July 17, 2013

बालसाहित्य ऐसा हो जो बच्चों को उनके स्वदेशी जीवन और संस्कृति से परिचित करा सके

प्रेरक व्यक्तित्व 



देबोरा अहैन्कोरा! 
एक ऐसा नाम जो अफ्रीकी बालसाहित्य को नया रूप देने की अथक कोशिश में है. 
देबोरा ने जब देखा कि अफ्रीका में जो विदेशी बालसाहित्य आ रहा है या उपलब्ध है उसमें अफ्रीकी जीवन के यथार्थ और संस्कृति की कोई झलक नहीं है तो उन्हें बहुत दुःख हुआ. उन्होंने मन ही मन एक सपना संजोया. इस सपने को साकार करने के लिए उन्होंने "गोल्डन बओबाब" नामक एक संस्था की शुरुआत की और अफ्रीका में साक्षरता को बढ़ावा देने के लिए दान में दी गई पुस्तकों तथा अमेरीका में वित्तीय संसाधन जुटाने का कदम उठाया जिसके द्वारा अफ्रीका स्थित स्कूलों तथा पुस्तकालयों को समृद्ध बनाने में सहयोग दिया जा सके. इसके साथ ही देबोरा को लगा कि यदि वे ऐसी पुस्तकें तैयार करवा सकें जिनमे अफ्रीकी जीवन की सच्चाइयाँ और संस्कृति की मौजूदगी हो और जिनसे बच्चे ज्यादा जुड़ाव महसूस कर सकें तो इससे बच्चों में पढने की रूचि अधिक जागृत होगी . उन्हें अपनी कल्पनाओं और आकांक्षाओं को विस्तार देने के अनेक अवसर मिलेंगे  और साक्षरता की बहुत सी समस्याएं आप ही आप सुलझने लगेंगी जिसका वर्तमान स्थिति में बिलकुल अभाव है.
देबोरा अहेंकोरा को बच्चों के बीच साक्षरता बढाने के लिए, 'वर्ल्ड इकोनोमिक फोरम ग्लोबल शेपर फॉर अक्क्रा, घाना की हैसियत से हाल में 'एस्पिन इंस्टीटयूट द्वारा न्यू वोयसिस फेलोशिप से समानित किया गया है.
अफ़्रीकी बाल साक्षरता अभियान की अपनी योजना के अंतर्गत उन्होंने गोल्डन बओबाब पुरस्कार भी शुरू किया है जिससे अफ्रीकन लेखकों को ऐसी बाल पुस्तकों को पुरस्कृत किया जा सके जो अफ़्रीकी जीवन और उसे संस्कृति का सही परिचय दे सकें. इस पुरस्कार को शुरू हुए पांच वर्ष हो चुके हैं और अपने इस अभियान के अंतर्गत अहेंकोरा अफ़्रीकी बच्चों के लिए अब तक आठ सौ से अधिक ऐसी कहानियां लिखवा चुकी हैं जिनमे अफ़्रीकी जनजीवन की पहचान मौजूद है.
देबोरा अहेंकोरा का सपना है कि अफ्रीकी द्वीप  में एक ऐसा रचनात्मक  सामग्री उद्योग स्थापित हो  जो अफ़्रीकी बच्चों के लिए उनकी ज़रूरतों के अनुसार पुस्तकें, खेल, खिलौने आदि तैयार कर सके#

इनपुट सौजन्य : http://allafrica.com/stories/201307121638.html
photo credit: aspin institute /allafrica.com

1 comment:

  1. अपने यहाँ देश और उसकी संस्कृति के बारे में सोचने का चलन कम-से-कम इन दिनों तो नहीं है। इस विचार को ही घृणित राजनीतिक रूप दे दिया गया है। प्रगतिशीलता के नाम पर हमारा बालसाहित्य भी मशीनीकृत सोच का शिकार होता लगता है। इसमें दो राय नहीं कि हमें विदेशी बालसाहित्य से बहुत-कुछ सीखने की ज़रूरत है लेकिन इसका यह मतलब बिल्कुल नहीं कि अपने बालसाहित्य से हम देसी फ्लेवर को 'पिछड़ा' कहकर हेय समझने लगें और धीरे-धीरे उसे खत्म कर दें। देबोरा अहैंकोरा जैसे राष्ट्र की सांस्कृतिक समझवाले बालसाहित्यकार हिंदी में न हों, ऐसा नहीं है लेकिन उनकी संख्या में बढ़ोतरी की आवश्यकता है।

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