Friday, July 5, 2013

अमृतलाल नागर की बाल कहानी -'अमृतलाल नागर बैंक लिमिटेड'




अमृतलाल नागर बैंक लिमिटेड

मुझे खूब अच्छी तरह याद है, तब मैं शायद छः या सात  वर्ष का था. दादाजी ने किसी गलती पर मेरे कान उमेठ दिए थे. नौकर वहीं खड़ा था. मैं इस अपमान को न सह सका. सोचने लगा, यह बड़े हैं, इसीलिये इन्होने मेरा अपमान किया. मैं भी बड़ा होने की तरकीब सोचने लगा.
मेरे दादा स्वर्गीय पंडित शिवरामजानीजी इलाहाबाद बैंक के संस्थापकों में से थे. लखनऊ के विशेष सम्मानित व्यक्तियों में उनका स्थान था. मैंने भी सोचा - एक बैंक खोलना चाहिए. बैंक खोलकर ही झट से बड़ा आदमी बना जा सकता है, इसका मुझे सहसा विश्वास हो गया.
मैंने अपने दोस्तों को इकठ्ठा किया. उनसे कहा -'यहाँ जितने आते हैं, सब बड़े-बड़े ही आते हैं. हम लोग अपने पैसे बैंक में जमा नहीं करते, इसीलिए तो सब खर्च हो जाते हैं. रासबिहारी टंडन ने कहा -'यह तो तुम ठीक कहते हो, अमृत!'
मैं अपनी बात का समर्थन पा और भी जोश में कहने लगा, 'इसीलिये मैंने सोच रखा है क एक बैंक खोला जाए. बैंक खोलने में एक सबसे बड़ी शान यह रहेगी कि हम लोगों पर कोई धौंस न जमा सकेगा. जब हमारा बैंक होगा, तब पढने-लिखने से भी छुटकारा मिल जाएगा. तुम लोग तो खुद ही देखते हो, हमारे दादाजी को कभी सी-ए-टी कैट, कैट माने बिल्ली नहीं पढना पढता' और न उन्हें पंडित जी का ही डर रहता है. तुम लोग जानते हो, इसका कारण क्या है? यही कि वह बैंक के मैनेजर हैं. इसलिए सब उनका अदब करते हैं. बैंक खुल जाने के बाद हमारी भी लोग इसी तरह इज्ज़त करेंगे.  क्या समझे टंडन?'
टंडन मेरी बातों के सहारे शायद किसी सुनहरे संसार में  घूमने लगा था. मेरे प्रश्न पर सहसा चौंककर बोला -'हाँ, तो तुमने क्या कहा?'
मुझे गुस्सा आ गया. मैंने कहा -'तुम सूअर हो.'
टंडन को भी गुस्सा आ गया. खड़ा होकर बोला - 'बैंक में आप ऐसी बातें नहीं कह सकते.'
मैंने कहा -'मैं कह सकता हूँ.'
टंडन बोला - 'बैंक में सूअर वगैरह नहीं कहा जाता.'
मैंने मेज पर हाथ पटककर कहा -'हमारे बैंक में कहा जाएगा. मैं फिर कहता हूँ -'टंडन सूअर.'
'अगर तुम कहोगे, तो मैं भी कहूँगा -'अमृत सूअर!'
अपना इतना बड़ा अपमान सहने के लिए मैं बिलकुल तैयार न था. मैं गुस्से के मारे कांपने लगा और बदला लेने के लिए बढ़ ही रहा था की पंडितजी की आवाज सुनायी पडी.
पंडितजी से हम सभी डरते ठे. दुसरे साथी तो भाग निकले लेकिन, टंडन के तो देवता कूच कर गए. वह भी उन्हीं से पढता था. कमरे में आते ही टंडन को देखकर  उन्होंने पूछा ;'क्यों बे सूअर, तू भी यहीं है? और तुम लोग लड़ क्यों रहे हो?'
 मुझे फ़ौरन ही एक बात सूझी. टंडन से अपने अपमान का बदला लेने के लिए अच्छा मौका देख मैंने कहा -'पंडितजी, टंडन कहता है - I goes और किताब में लिखा है -I go और पंडितजी, यह ये भी कहता है की आपने बताया है की किताब में गलत लिखा है.'
लाल-लाल आँखों से टंडन की तरफ घूरकर पंडितजी बोले..'क्यों बे सूअर, मैंने यह सब कब बताया था, बोल?'
बेचारा टंडन मिमियाने लगे. वह अपनी सफाई भी न दे पाया था की पंडितजी ने उसके दोनों कान पकड़कर अपनी और घसीटते हुए उसकी पीठ पर दो घूंसे जमा दिए. टंडन बिलबिला उठा. उसकी दशा देखकर मुझे दया आ गई.
पंडितजी के जाने के बाद मैंने कहा -'टंडन!'
टंडन मुंह फुलाकर बोला-'मैं आपसे नहीं बोलता.'
मैंने उसे समझाना शुरू किया. कहा, 'मैं तो तुम्हे एक सबक दे रहा था. आज तुम पंडितजी से इतना डरते हो. अगर बैंक खुल जाएगा, तो पंडितजी की मजाल नहीं की तुम्हारे बदन पर उंगली भी लगा सकें. फिर चाहे तुम I go कहो या I goes दोनों ठीक हैं.'
'लेकिन मैंने I goes कहा ही कब था, जो आपने पंडितजी से झूठमूठ मेरी शिकायत कर दी.'
मैंने उसे समझाया-'वह तो जो बात होनी थी सो हो गयी. अब उसका ज़िक्र छोडो. मगर मैं तुमसे कहता हूँ, बैंक खुल जाने के बाद अगर तुम I goes भी कहा कहोगे, तो भी ठीक होगा.
टंडन अब जरा धीरे-धीरे राह पर आया. कहने लगा -'तो क्या बैंक खुल जाने पर पढ़ाई ख़त्म हो जाएगी?'
'वह तो हो ही जायेगी. तब कोई हमें जबरदस्ती पढने न बैठा सकेगा. हाँ, जब हमारा मन चाहेगा, दिन भर में किसी वक्त अखबार पढ़ लिया करेंगे, जैसे हमारे दादाजी पढ़ते हैं.'
'और यह पंडितजी?'
'अजी, पंडितजी की बात भली बतायी. इनको उसी वक्त शहर से बाहर निकाल दूंगा.'
टंडन ने उतावली के साथ कहा-'तो फिर उसमें देर क्या है? आज ही बैंक खोल दो.'
मैंने कहा-'आज क्या, अभी से ही खुल गया. तुम्हारे पास कितने पैसे हैं?'
टंडन को इस बैंक में शंका हुई.बोला-'वाह, अभी कैसे खुल गया? न तो इसका नाम ही रखा गया है, न तेलेफोने ही है, न बाबू लोग काम कर रहे हैं और न चपरासी है. बैंक कहीं इस तरह खुलता है?'
मैंने कहा-'तो इसमें बात क्या है? नाम अभी सोच लो. मेरा ख्याल तो यह है, उसका नाम इलाहबाद बैंक लिमिटेड है, तो हम 'लखनऊ बैंक लिमिटेड' रख लें.'
टंडन बोला-'हम लखनऊ-इलाहाबाद के फेर में नहीं पड़ते. अगर कहीं लखनऊ-भर के आदमी आकर उसमें घुस गए तो बड़ी मुश्किल होगी.'
बात मेरी भी समझ में आ गयी. मैंने टंडन की पीठ ठोकी, कहा-'हो भोंदू, मगर बात कभी-कभी पते की करते हो. अच्छा, तो बैंक का नाम सोचो.'
थोड़ी देर तक सोचने के बाद टंडन मुस्कराकर बोला-'बैंक का नाम रक्खो  रासबिहारी टंडन बैंक लिमिटेड.'
मैंने कहा-'बैंक मैं खोलूँगा, और नाम तुम्हारा रखा जाएगा. यह हरगिज़ नहीं हो सकता. बैंक मेरे नाम से खुलेगा.
इसमें केवल टंडन को आपत्ति ठे. मैंने तब एक बात सोची, कहा-"अच्छा, जो ज्यादा पैसे जमा करे, उसी के नाम से बैंक खुले. सबने इसे मंजूर किया. मैं बेहद खर्चीला था. टंडन ने भी सोचा होगा की मेरे आस अधिक-से-अधिक दो तीन आने पैसे निकलेंगे. और वह अपने पैसे बचाता था.
मैंने पूछा-'तुम्हारे पास कितने पैसे हैं.'
उसने कहा-सवा बारह आने.'
दिल बैठने लगा-मेरे पास वाकई में सवा बारह पैसे भी न थे. फिर भी अकड़ के साथ मैं बोला-'मेरे पास एक रुपया है.'
दादाजी से रुपया ले लेना मेरे लिए बाएं हाथ का खेल था. दुसरे साथी बैंक के बाबू बने. टंडन खजांची बना, लेकिन गोलक की ताली मेरे पास ही रही. छेड़ा चपरासी का लड़का सदन हमारे बैंक का चपरासी बना. कुल्हड़ में छेड़ करके टेलेफोन बनाया और मैं ठाट से मैनेजर बनकर बैठ गया. छत पर घर-भर की धोतियाँ तानकर औफ़िस बना लिया. बैंक का काम चालू हो गया.
थोड़ी देर बाद टंडन ने टेलेफोन किया -'अमृत!'
' मैंने कुल्हड़ में मुंह लगाकर कहा-'अबे, मैनेजर साहब कह, नहीं तो मार बैठूंगा.'
टंडन ने बजाय टेलेफोन पर बात कहने के पर्देवाली धोती उठाकर कहा-'आप मैनेजर हों या कुछ भी हों, बैंक में मार नहीं सकते.'
मैंने कहा-'तो आप भी बैंक में मुझे अमृत नहीं कह सकते. मैनेजर साहब कहा कीजिये.'
टंडन ने कहा-'तो आपको भी खजांची साहब कहना होगा.'
मैंने कहा-'मैं कहूँगा.'
इसके बाद पर्दा ठीक कर दिया गया. खजांची साहब ने मैनेजर साहब को तेलेफोने किया-'बैंक में चेक- बुक तो है ही नहीं! लोग रुपया कैसे भुनाएंगे? लेजर-बुक भी नहीं है.
दो मिनट तक गौर करने के बाद मैंने टेलेफोन पर कहा- 'हेलो, खजांची साहब! आप एक काम कीजिये. अपनी हिसाब वाली कापी फाड़कर कल लेजर-बुक बना लाइयेगा. मैं चेक-बुक का इंतजाम करूंगा.'
खजांची साहब बोले- 'लेकिन मैनेजर साहब, पंडित जी फिर कुछ कहेंगे तो नहीं?
मैंने कहा- 'आप खजांची हो कर पंडितजी से डरते हैं?'
खजांची साहब अकड़कर बोले-'मैं बिलकुल नहीं डरता, कल बना लाऊंगा.' शाम को दादाजी की चेकबुक मैं उठा लाया. सोचा, इनके पास तो बहुत सी हैं, एक मैं ले लूं.'
दुसरे दिन इतवार था. लेकिन हमारा बैंक खुला रहा. दिन-भर दनादन चेक कटीं. लेजर लिखा गया. बाबू लोगों ने भी काम किया. सदन चपरासी बाहर बैठा रहा. मैनेजर और खजांची दिन-भर टेलेफोन पर ही बातें करते रहे.
सोमवार के दिन सबेरे ही दादाजी अपनी चेकबुक तलाश कर रहे ठे. मैं एकदम चुप्पी साध गया.
दिन में उधर दादाजी अपने बैंक गए, और मैं अपने बैंक में पहुंचा, धोतियाँ वगैरह ठीक तरह से बंध्वायीं. थोड़ी देर में बाबू लोग भी आ गए. मुझे उस दिन घर से इकन्नी मिली थी और बाबू लोग भी पैसे लाये ठे. लेकिन खजांची अभी तक आये ही नहीं थे. मैं गुस्से के मारे लाल हो उठा. करीब एक बजे टंडन आया, और आते ही पर्दा उठाकर बोला-'अमृत, अब बैंक बंद हो गया.'
मैंने कहा-'आप टेलेफोन पर बात कीजिये. बैंक बंद नहीं हुआ. टंडन अकड़कर बोला-'टेलेफोन की ऐसी-तैसी. अब मैं बैंक में काम नहीं करूंगा.'
और बाबू लोग भी धोतियाँ हटाकर वहां आ गए. मैंने टंडन से कारण पूछा. मालूम हुआ कि जैसे ही दस बजे, हमारे खजांची साहब अकड़ते हुए अपने घर से बैंक की तरफ चले. पंडितजी उन्हें पढ़ाने जा पहुंचे. खजांची साहब मेरे आश्वासन के अनुसार उनसे अकाद गए और पढने से कटाई इनकार कर दिया. उस पर पंडित जी ने उनकी खजान्ची गिरी की बिलकुल परवाह न कर वहीं गली में ही उनकी अच्छी तरह मरम्मत की और कान पकड़कर घसीटे हुए घर ले गबैंक ए. घर पर भी हिसाब की कापी को लेजर-बुक बना देने के कारण बहुत मार पडी. लिहाजा अब वह बैंक के खजांची नहीं बनेंगे.
इसके बाद टंडन ने कहा-'बैंक अब टूट गया, और आप मेरे पैसे वापस कर दीजिये.'
दुसरे बाबू लोग भी इस घटना से डरकर अपने पैसे मांगने लगे.
मैं अभी इस विद्रोह को शांत करने की सोच ही रहा था की छत पर एक पतंग आकर मेरी तरफ गिरी. हमारे चपरासी साहब कायदा-ताज्जीब, सब भूलकर उसे लेने झपटे. मैं गुस्से में भरा हुआ तो था ही, दो-तीन तमाचे कसकर जड़ गिये. चपरासी साहब रोते हुए नीचे भागे.
इधर अभी पैसे लौटाने के फेर में झगडा हो ही रहा था की दादाजी एकाएक छत पर आते हुए दिखाई पड़े. सदन ने शायद बैंक का हाल भी उन्हें सुना दिया था.
अपनी चेक-बुक उन्होंने हमारे बैंक में देखी. इधर विद्रोही-खजांची और बाबुओं ने पैसों की शिकायत की. सदन चपरासी पहले ही भंडाफोड़ कर चुका था.
दादाजी को गुस्सा आ ही रहा था. उसी समय पंडितजी ने आवाज लगाई. दादाजी ने उन्हें भी अन्दर ही बुला लिया. ...फिर तो न कहना ही अच्छा होगा क्योंकि' अमृतलाल नागर बैंक लिमिटेड के मैनेजर साहब के दोनों कान सारंगी की खूंटियों की तरह कस-कसकर उमेठे जा रहे थे , गालों पर तड़ातड़ तमाचे पड़ रहे थे, और चपरासी, खजांची तथा बाबू लोगों के दिलों में ठंडक पड़ रही थी.#


(शरद नागर द्वारा संपादित 'अमृतलाल नागर सम्पूर्ण बाल रचनाएं' से साभार )














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