Monday, April 6, 2020

सपनों की शहज़ादी जंगल जलेबी



नासिरा शर्मा

अनेक शीर्ष पुरस्कारों से सम्मानित, वरिष्ठ कथालेखिका नासिरा शर्मा ने  हिंदी साहित्ठीय जगतको अनेक महत्वपूर्ण  कृतिया दी हैं  यथा - ठीकरे की मंगनी,पारिजात, मेरी प्रिय कहानियां, अजनबी जजीरा, पत्थर गली तथा औरत के लिए औरत. इन  कृतियों के अलावा  नासिरा जी ने बच्चों के लिए भी अनेक रोचक कहानियां लिखी हैं. उनकी कुछ बाल-कहानियों को इस ब्लॉग, तथा फेसबुक-समूह: world of children's literature, art & culture, पर श्रंखला बद्ध रूप में प्रकाशित करते हुए हम गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं. आशा है आप सभी बालसाहित्य प्रेमी इन कहानियों को पढ़ते हुए स्वयं भी आनंदित होंगे  और अपने माध्यम से बच्चों को भी इनका आनंद लेने का अवसर प्रदान करेंगे.  हमेशा की तरह आपकी प्रतिक्रियाओं का भी प्रतीक्षा रहेगी.

आज प्रस्तुत है  नासिरा  जी  की बाल कहानी -सपनों की शहज़ादी जंगल जलेबी


अनीस लगभग रोज़ ही सपने में माँ की सुनाई कहानी का वह वृक्ष देखता था जो
सड़क किनारे खड़े बिजली के खम्भों से भी ऊंचा था। बादलों तक पहुँच कर जैसे कि
आसमान से बातें करता हुआ हरदम झूमता रहता था। कभी कभार वह हवा से खेलने लगता
तो उसकी हरी-हरी टहनियाँ अपनी पत्तियों के बीच से गोल-गोल आकार के कुछ फल
गिरातीं जिन्हें वहां से गुज़रते बच्चे उठाकर खाते और एक दूसरे को देखकर खिलखिला
उठते थे। पेड़ पर बैठे बन्दर मुंह चलाते हुए एकाएक अपने दाँत निकाल उन पर खौखियाते,
फिर खाने में मस्त हो जाते। यही हाल गिलहरियों का भी था। हरदम इस फुनगी से झूलती
दूसरी फुनगी पर छलांग लगाती कुछ न कुछ कुतरती रहती थीं। माँ ने बताया था वह जंगल
जलेबी का पेड़ था। माँ किसी न किसी बहाने दिन में एक बार उसका नाम जरूर लेती थीं।
जैसे, ”अरे इस कपड़े का रंग बिल्कुल जंगल जलेबी जैसा है या फिर - लाल हरा रंग
साथ-साथ ठीक जंगल जलेबी की तरह मनभावन लगता है।“
अनीस को माँ की बातें सच्ची लगती थीं मगर उसका मन यह बात मानने को हरगिज़
तैयार न था कि सुनहरी रसीली जलेबियां हलवाई के थाल से उड़कर पेड़ की शाखों से
लटक जायेंगी और अपना रंग रूप बदल हरी लाल हो जायेंगी, भला कैसे? अम्माँ मुझे
बहलाती हैं क्या? कुछ दिनों बाद वह एक और सपना देखने लगा जैसे वह हलवाई की
दुकान पर खड़ा है और हलवाई सर पकड़े खाली थाल को घूर रहा है, जहाँ कढ़ाई से
निकली कुरकुरी जलेबियां शीरे में डूबी मचल रही हैं और जैसे ही शीरे से निकाल वह थाल
में डाली जाती हैं तुरन्त उछल कर वह उड़ने लगती हैं।
अनीस ने माँ से पूछा था, ”क्या आपने कभी जंगलजलेबी खाई है?“
”क्यों नहीं, उसका मीठा स्वाद मुझे भूले नहीं भूलता, आज भी खाने का मन करता
है। गाँव के घर से जब हम पाठशाला की ओर जाते थे तब रास्ते में एक पेड़ मिलता था।
सब उसे जंगलजलेबी के नाम से जानते थे। तब हमारे गाँव में कोई हलवाई नहीं था। एक
बार हम क़स्बे की तरफ मेला देखने गए थे तो मेरे बाबा ने गुड़ की जलेबी हम सब
भाई-बहनों को खिलाई थी। तब मेरे मन में यह विचार आया था कि देखो हलवाई ने हमारे
जंगलजलेबी पेड़ के फल की कैसी नक़ल उतारी है, ढेरों मीठा डाल कर।“ इतना कह माँ
खूब हँसी थीं।

अनीस का बालमन यह सब बातें सुनकर सोचने लगता कि ज़रूर हलवाई जंगल से
किसी दिन गुज़रा होगा। ज़मीन पर गिरी जंगलजलेबी को भूख के कारण चखा होगा और
गाँव आकर नक़ल कर बैठा होगा। उम्र बढ़ने के साथ उसके मन में जंगलजलेबी के वृक्ष को
देखने की इच्छा तीव्र होने लगी और उसे खाने की भी, मगर मुम्बई शहर में उस पेड़ को
ढूंढने कहाँ जाएं? एक दिन इसी खोजी सोच ने टीचर द्वारा सजा भी दिलवा दी। जब वह
वृक्षरोपण पाठ पढ़ रहा था तो एकाएक पुस्तक में छपी वृक्षों की तस्वीर में ऐसा खोया कि वह
घना वृक्ष हरे से सुनहरा हो गया और रसीली जलेबियों से भर गया। उससे टपकते शीरे की
बूँद को वह मुँह खोल अपनी ज़बान पर लेने के लिए बेचैन हो उठा, तभी तेज़ आवाज़ से
चौंक  पड़ा।
”अनीस! यह क्या कर रहे हो?“
अनीस ने पाया कि सारी कक्षा हँस रही थी और वह गर्दन ऊँची किए ज़बान निकाले
छत पर नज़र गड़ाए है, वह हड़बड़ा गया। ”पढ़ाई की तरफ ध्यान दो, कक्षा का अनुशासन
खराब मत करो।“ इस बार टीचर्स ने डेस्क पर स्केल मार कर कहा तो हँसते बच्चे सहम गए
और अनीस रुहांसा सा हो गया। अनीस के पास बैठे उसके मित्र ने देखा कि उसकी आँख
से आंसू टपक कर पेड़ के चित्र पर गिरा है। उसने कनखियों से मित्र को देखा और सोचने
लगा कि अनीस क्लास का मानीटर है। पढ़ने में अच्छा है। आज यह शरारत कैसे कर बैठा?
लंच के समय जब सारे बच्चे अनीस को चिढ़ाने लगे तो अमित ने अपना टिफिन
बाक्स खोलते हुए अनीस से पूछा, ”लंच में आज क्या लाए हो?“
”जंगल जलेबी!“ अचानक हाथ पर हाथ धरे अनीस खीज उठा। ‘जंगल जलेबी!’
अमित ने चैंक कर मित्र को देखा और ज़ोर-ज़ोर हँसने लगा, ”तू पागल हो गया है ... जंगल
जलेबी! दिखा तो ज़रा! यह जंगल जलेबी क्या चीज़ होती है।“ अमित ने अनीस के बैग से
टिफिन बाक्स निकालते हुए पूछा। उसकी आवाज़ जिनके कानों में पहुंची वह भी ‘जंगल
जलेबी’ की रट लगा हँसने लगे। उदास अनीस भी मुस्कुरा पड़ा। टिफिन बाक्स खुल चुका
था उसमें दो पराठों का रोल रखा हुआ था आम के अचार की फाँक के साथ। चीखते,
चिल्लाते हँसते बच्चे जो ‘जंगल जलेबी’ ‘जंगल जलेबी; दोहरा रहे थे एकाएक चुप हो गए।
सबने एक दूसरे की तरफ सवालिया नज़रों से देखा और अपनी-अपनी जगहों पर लौट गए
और लंच खाने में मस्त हो गए।

अमित ने अनीस के लंच बाक्स से पराठा उठाया और अपने लंच से सैंडविच उठाकर
उसके बाक्स में रखा। दोनों चुपचाप लंच खाने में व्यस्त हो गए। जब पानी पी चुके तो अनीस
ने हाथ धोते हुए कहा, ”अमित मैं इस ‘जंगल जलेबी’ के पेड़ को हर हालत में देखकर
रहूँगा।“ यह सुनकर अमित बोला, ”पेड़ तो देख ले, पेड़ देखने को मना किसने किया है?
”वह तो है मगर इस पेड़ का नाम कुछ फनी सा है। शायद मेरी मम्मी ने मुझे नई
कहानी सुनाने के लिए ऐसा मज़ेदार नाम रख लिया हो?“
”तो चलें गूगल पर सर्च कर लेते हैं।“ अमित ने कहा तो अनीस का चेहरा खिल उठा,
परन्तु दूसरे पल मुरझा गया।
”क्यों क्या हुआ?“ अमित ने ताज्जुब से पूछा:”कुछ नहीं।“ अनीस ने कहा फिर बैग
कन्धे पर डाल क्लासरूम की तरफ बढ़ा। घन्टी बज उठी थी। फील्ड में फैली विद्यार्थियों की
भीड़ छटने लगी थी।
”बाटिनी के किसी अध्यापक से पूछा जा सकता है ...“ मन ही मन अनीस ने कहा और
अपने को हल्का महसूस किया, मगर दूसरे लम्बे वह उलझन में पड़ गया। यदि सर नाम
सुनकर हंस पड़े और कोरी कल्पना कह बैठे या फिर वास्तव में ऐसा पेड़ मौजूद हो और
उसका नाम कुछ और हुआ तो ...? माँ की जंगल जलेबी’ का मज़ाक उड़े, यह मुझे अच्छा
नहीं लगेगा। मगर अम्माँ मुझे झूठमूठ की कहानी क्यों सुनाएंगी। उन्होंने उस फल को खाया
है। यदि खाया है तो फिर वह बेर, शहतूत, बेल, खिन्नी, फालसा या फिर अमरख व कैथे की
तरह बाज़ार में बिकता क्यों नहीं है। सोचते-सोचते वह बुदबुदा उठा - जंगल जलेबी!
जंगल जलेबी! मेरी सपनों की शहज़ादी, जंगल जलेबी! कहते-कहते अनीस के चेहरे पर
मुस्कान फैल गई।

रात को खाने की मेज़ पर अनीस के पापा ने अपनी पत्नी से पूछा, ”कामनी! अगले
माह से अनीस और अरमान की छुट्टियाँ होने वाली हैं। मैं भी छुट्टी की अर्ज़ी दे चुका हूँ, तुमने
कुछ सोचा है कि कहाँ घूमने जाना है?“
”अम्माँ के गाँव।“ जल्दी से अनीस बोल उठा।
”मेरे गाँव?“ माँ चैंक पड़ी।
”वह भी इस गर्मी में?“ पापा हंस पड़े।
”मैं तो वाटर पार्क रिसाॅर्ट जाऊँगा। आपने वायदा किया था।“ अरमान ने रूठ कर
हाथ में पकड़ा कौर प्लेट में पटख दिया और हाथ सीने पर बांध कुर्सी की पीठ से कमर टिका
ली।
”अरे अभी हम सलाह मशविरा कर रहे हैं, इसमें रूठने वाली कौन-सी बात है।“ माँ
ने हैरत से बेटे को देखा।
”अरमान! तुम्हारी मम्मी ठीक कह रही हैं पहले खाना खाओ।“ इतना कह पापा ने
अरमान की प्लेट उसके आगे सरकाई। सब खामोशी से खाना खाने लगे।
अनीस खाना खाने के बाद पढ़ने बैठ गया। होमवर्क पूरा कर उसने किताबें समेटी,
लैम्प बुझाया और करवट बदल सोने की तैयारी करने लगा। आँखों में नींद नहीं थी मगर
पढ़ने में भी दिल नहीं लग रहा था। उसका मन अनमना सा हो रहा था।
”अम्माँ ने बचपन में जाने कितनी कहानियाँ सुनाई थीं। जिनमें से कुछ याद हैं कुछ
भूल गया, मगर यह जंगल जलेबी वाली अम्माँ की यादें जैसे मेरी यादें बन चुकी हैं। बार-बार
एक ही सपना आता है और कहानी को नए सिरे से याद कराके चला जाता है। जब तक
मैं यह पेड़ ढूँढ कर खुद अपनी आँखों से नहीं देख लेता हूं। मैं गूगल से इसकी जानकारी
नहीं लूंगा क्योकि माँ की बातों पर जो मेरा अटल विश्वास है उसमें दरार नहीं पड़ने दूंगा।
यह सब सोचते-सोचते अनीस नींद में डूब गया। और फिर वही सपना सामने था। हरा भरा
पेड़ और उसकी छाया में नीचे पड़े फलों को चुनती एक लड़की ... लहँगा व चुन्नी पहने हुए
फल का स्वाद लेती हुई।



पापा आफिस के लिए तैयार हो चुके थे। नाश्ते की मेज़ पर जब वह पहुँचा तो वह
नाश्ता करके उठ रहे थे। हाथ धोते हुए उन्होंने उसकी पढ़ाई के बारे में पूछा और बड़े प्यार
से कहा, ”देखो अनीस! अब तुम नवीं कक्षा में पहुंच चुके हो। पढ़ाई को अब सीरियसली लो
समझे बेटा!“
”जी पापा!“ इतना कह कर उसने टोस्ट पर जैम लगाया। माँ को नजर भर कर देखा
जो अरमान का स्कूल बैग में किताबें रख रही थीं। दिल चाहा कि उनसे कहे, ”अम्माँ! इस
बार गाँव ले चलो, चाहे दो ही दिन के लिए सही“ मगर ज़बान से कुछ बोला नहीं और
चुपचाप नाश्ता करने लगा। तभी पापा ने कार की चाबी उठाते हुए कहा, ‘अरे कामनी! मैं
तुम्हें बताना भूल गया कि तुम्हारे बड़े चाचा का मैसेज आया था। उनके छोटे बेटे की शादी
है और तुम्हें ख़ासतौर से बुलाया है। उन्हें फोन कर लो।“

”मैं गाँव नहीं जाऊँगा“ अरमान ने गुस्से से कहा।
”तुम्हें भेज कौन रहा है। सिर्फ तुम्हारी अम्माँ और अनीस जायेंगे क्योंकि उन्हीं दिनों
तुम्हारे बड़े अब्बा एलाज के लिए मुम्बई आ रहे हैं। उनके साथ तुम्हारी फूफी भी आ रही हैं।“
इतना कह कर उन्होंने अरमान का हाथ पकड़ा और दरवाज़े की तरफ बढ़े। उनके पीछे
अनीस भी चल पड़ा।

ट्रेन में बैठे वे दोनों जब गाँव की तरफ जा रहे थे तो भागते दृश्यों को देखते हुए
अचानक अनीस पूछ बैठा, ‘ए अम्माँ! हमको आप वह पेड़ दिखायेंगी न?’
”कौन-सा पेड़?“
”वही जंगल जलेबी वाला पेड़! जिसमें हरे सफेद से खुशबूदार फूल निकलते थे और
बाद में वह लाल-हरे, मीठे-कड़वे फल बन जाते थे। जिन्हें आप चाव से खाती थीं ... याद
आया अम्माँ।“
”मैं अपना बचपन कैसे भूल सकती हूँ पगले!“ माँ की आंखें तरल हो उठीं फिर हँस
कर बोली, ”तुझे कैसे याद रहा।“
”मेरे सपने में आता है कभी-कभी ...“ अनीस हँसा तो माँ ने उसे गौर से देखा और
धीमें से बोली, ‘मेरे भी।’
ट्रेन भाग रही थी। माँ सो गई वह भी ऊँघ गया।
अचानक शोर से आँख खुली। देखा सुबह के सूरज की लालिमा फूट चुकी थी। लोग
अपना सामान समेट रहे हैं और अम्माँ खिड़की से बाहर झाँक रही हैं। एकाएक चहक कर
बोली, ”अनीस, देखो ... देखो यह सारे पेड़ जंगल जलेबी के हैं। इस बार खूब कसके फला है।“
तभी पीछे से किसी ने कहा, ”अरे एका सिंगड़ी कहत है।“ यात्री ट्रेन से उतरने लगे।
उन दोनों को लेने आए रिश्तेदार सलाम करके सामान उठाने लगे। अनीस की नज़रें तो बस
पेड़ों पर जमीं थीं जिन पर चिड़ियों के झुँड के झुँड चहचहा रहे थे। छोटे से स्टेशन से बाहर
निकल कर सब रिक्शे पर बैठे तो अनीस बोला। ”अम्माँ अपना मोबाइल देना“ और इतना कह
उसने रिक्शे वाले को रुकने को कहा और रिक्शे से कूदा, फिर झटपट उन वृक्षों की कई
तस्वीरें खींची और दौड़ता हुआ जाकर पेड़ के नीचे खड़ा हो गया। ऊपर से कई जंगल
जलेबियाँ एक साथ उसके सर व कन्धे पर गिरीं जिन्हें उसने झुक कर रूमाल में समेटा और
भागता हुआ रिक्शे पर चढ़ कर बोला, ”लो अम्माँ चखो ... साथ-साथ खाते हैं।“
झटपट उसने अमित को तस्वीरें भेजीं और जंगल जलेबी को खाते हुए माँ और अपनी
सेल्फी भी ली। अभी कुछ पल ही गुज़रे थे कि गूगूल से ली सूचना का लिंक अमित ने उसको
भेज दिया। लिखा था, ‘जंगल जलेबी का वृक्ष नेटिव मैकसिको व सेन्टंल अमेरिका, बंगलादेश,
श्रीलंका, सेंटंल उत्तर प्रदेश, फिलिपिन, फेलोरीडा व केरोबियन में भी पाया जाता है जिसकी
ऊँचाई 30-50 फुट के अन्दर होती है’ सूखे में भी यह उगता है! गुजरात में इसको गोरस
अम्बली, मराठी में फिरंगी चिन्च, बंगाल में जंगल जलेबी, अंगे्रजी में मद्रास थ्रान कहते हैं।
हिन्दुस्तानियों द्वारा 1960 में यह कुवैत ले जाया गया जहाँ इसको ‘शौकत थ्रान’ कहते हैं
मगर यह पेड़ मद्रास में नहीं पाया जाता है। इसका तना, पत्तियाँ, बीज सभी कुछ दवा बनाने
के काम में आते हैं।’ यह सब पढ़ते-पढ़ते अनीस हँस पड़ा और माँ को देखने लगा जिनके
चेहरे पर बचपन का खोया स्वाद पाने की खुशी झलक रही थी। जिसे देखकर वह मन ही
मन कह उठा।
”मेरी अम्माँ! किसी गूगूल से कम हैं क्या!“
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