Wednesday, December 11, 2013

साहित्य अमृत का बालसाहित्य विशेषांक -नवम्बर, 2013


साहित्य अमृत का बाल-साहित्य विशेषांक'
  -मनोहर चमोली ‘मनु’.


कुछ वर्षों से साहित्य एवं संस्कृति का संवाहक ‘साहित्य अमृत’ अपने कुछ अंक विशेषांक के रूप में प्रकाशित कर रहा है। इसके विशेषांक समूचे साहित्य
जगत में बेहद चर्चित ही नहीं रहते, अपितु विमर्श को आगे बढ़ाने में कारगर
भूमिका भी निभाते हैं। नवम्बर 2012 में इस मासिक पत्रिका ने बाल-साहित्य
विशेषांक प्रकाशित किया था। उस बहुचर्चित अंक की शानदार कड़ी में पुनः
नवम्बर 2013 का अंक बाल-साहित्य विशेषांक के रूप में सराहा जा रहा है। यह
अंक पठनीय, अतुलनीय और बेजोड़ ही नहीं हैं, संग्रहणीय भी है।

    अठारह वर्षों से निरंतर प्रकाशित पत्रिका के संस्थापक संपादक पं0
विद्यानिवास मिश्र, डाॅ0 लक्ष्मीमल्ल सिंघवी और वर्तमान संपादक
त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी का संपादन रेखांकित कराता है कि भले ही साहित्य
अमृत प्रभात प्रकाशन का ही एक अंग है, लेकिन इसका ध्येय अपने प्रकाशनों
की सूची और समाचार प्रकाशित करना भर नहीं है। पाठकों के समक्ष वह प्रति
माह एक नपे-तुले आकार में ही सही किन्तु साहित्य की विहंगम दृष्टि लेकर
आता है।

    एक बात तो तय है कि बाल-साहित्य पर विशेषांक निकालने की युक्ति आधा
दर्जन नियमित पत्रिकाएं कुछ वर्षों से कर तो रही हैं, लेकिन साहित्य अमृत
के ये दोनों अंक विशेषांक कई अर्थों में अन्य पत्रिकाओं से बीस रहे है।

    बाल-साहित्य का यह ताज़ा अंक बीते सौ वर्षों के बाल साहित्य में रत
चार-पीढ़ी के रचनाकारों की बेहतरीन रचनाएं पाठकों के समक्ष लाने में सफल
रहा है। ये ओर बात है कि एक अंक में समग्र बाल-साहित्य और सभी रचनाकार
शामिल नहीं हो सकते। इस अंक में युवा साहित्यकारों को भी काफी स्थान
प्राप्त हो सका है। यह अंक बाल-साहित्य की विहंगम झलक तो दिखाता ही है,
साथ में युवा बाल साहित्यकारों की दशा-दिशा उनकी रचनाओं से प्रस्तुत कर
पाया है। यह बाल-साहित्य विशेषांक भारतीय ही नहीं विश्व बाल-साहित्य की
संक्षिप्त सैर भी कराता है।

    विशेषांक निकालने और एक अंक में बहुरंगी विविधता रखने और रख पाने में
अन्तर होता है। किसी भी अंक की अपनी सीमाएं होती हैं। फिर भी इस अंक में
सौ वर्षों से बह रही बाल साहित्य की नदी से पैंसठ कविताएं शामिल रख पाना
प्रशंसनीय है। देश-काल, परिस्थिति और बहाव के स्तर की विविधता से भरी
चैंतीस कहानियां शामिल करना किसी भगीरथ प्रयास से कम नहीं है। पांच
महत्वपूर्ण और दिलचस्प आलेख, तीन नाटक, एक उपन्यास अंश, एक संस्मरण, दो
विज्ञान कथाएं, पांच बाल गीत, एक यात्रा वृतांत भी इस अंक में शामिल है।

    यह महत्वपूर्ण बात है कि अंक में अधिकतर रचनाकारों का परिचय, पता व
सम्पर्क सूत्र भी पाठकों के लिए प्रस्तुत है। अलबत्ता कवियों के मामले
मंे यह संभव नहीं हो सका है। पृष्ठों की संख्या शब्दों में दी गई है।

    जयशंकर प्रसाद (1889-1937) की बेहद संवेदनशील और बार-बार पढ़ने योग्य
कहानी ‘छोटा जादूगर’ को सबसे प्रारंभ में दिया गया है। इस मर्मस्पर्शी
कहानी में एक बार पाठक फिर से मेला-हाट बाजार की ओर चल पड़ते है। नई पीढ़ी
के लिए अब वैसे भी पारम्परिक मेला इतिहास की बात हो गए हैं। यह कहानी
मुंशी प्रेमचन्द की ‘ईदगाह’ से कमतर नहीं हैं। बच्चा जादूगर अपनी बीमार
मां के लिए सीमा और सामथ्र्य से अधिक जतन करता है, लेकिन फिर भी अपनी मां
को बचा नहीं पाता।

     कथा सम्राट प्रेमचंद (1880-1936) की सुप्रसिद्व कहानी ‘मिट्ठू’
पाठकों के लिए यहां मौजूद है। गोपाल सर्कस के बंदर मिट्ठू से हिल-मिल
जाता है। गोपाल को चीता के अप्रत्याशित हमले से मिट्ठू बचाता है। अंत में
सर्कस मालिक मिट्ठू को गोपाल के हाथ दे देता है। कहानी अचानक नया मोड़
लेती है और अंत भी बड़ा खुशगवार महसूस होता है।

    सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला (1899-1961) की सात लघु और रोचक कहानियां
धरोहर के रूप में पाठकों के सामने हैं। यह कहानियां कई बार प्रेरक के रूप
में आंचलिकता की चाश्नी में डूबों कर कई-कई बार सुनी-पढ़ी जा चुकी हैं।
यहां वे मौलिक रूप मंे प्रस्तुत हैं।

    प्रसिद्ध लेखिका पुष्पा भारती का आलेख ‘बाल साहित्य नई तरह से रचना
होगा’ प्राचीन काल से अब तक के बाल साहित्य के इर्द-गिर्द प्रसिद्ध
पुस्तकों की जानकारी भी देता है। लेखिका प्राचीनतम् बालोपयोगी साहित्य को
जीवन मूल्य का अनमोल खजाना बताती हैं। वहीं वह वर्तमान समय की
चुनौतियों-स्थितियों के सापेक्ष नई पौध की रुचियों के अनुरूप साहित्य
लेखन की अपील भी करती है।

    लक्ष्मीनारायण लाल का नाटक बंदर का खेल चुटीला नाटक है। मजेदार बात
यह है कि इसे छोटे बच्चे भी आसानी से खेल सकते हैं। बंदर-बंदरिया के
विवाह में ना-नुकुर कैसे हां में बदलती है,यही नाटक का सार है।

    उपन्यासकार और कथाकार अमृतलाल नागर की विज्ञान कथा ‘अंतरिक्ष सूट में
बन्दर’ उनके फंतासी और काल्पनिकता सोच से पाठकों को चैंकाती है। यह कथा
अंत तक बांध सकने में सफल हुई है।

        हाल ही में दिवंगत हरिकृष्ण देवसरे को बाल-साहित्य को मान-सम्मान
दिलाने के रूप में हमेशा याद किया जाएगा। देवसरे जी का महत्वपूर्ण आलेख
पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी पर है। उन्होंने द्विवेदी जी के बालसखा के
प्रकाशन से जुड़ी रोचक जानकारियां भी दी हैं। बाल साहित्य के
प्रचार-प्रसार में द्विवेदी जी के योगदान को इस आलेख में रेखांकित किया
गया है।

     आलमशाह खान की बेहद चर्चित कहानी ‘मिनी महात्मा’ बच्चों के सरल
व्यवहार के साथ अपनी पर आ जाने के मिश्रित रूप का धारदार रूप है। कथाकार
ने बेहद करीब से बाल मनोभावों को जाना है और बच्चे को बड़ों द्वारा मासूम
बालमन मान लेने की गलती न करने की ओर संकेत अनायास ही दे दिया है। यह ऐसी
कहानी है कि जिसे पूरा पढ़ लेने और बार-बार पढ़ने का मन करता है।

    अमर गोस्वामी की हास्य कथा ‘शेर सिंह का चश्मा’ मनुष्य और जानवरों के
बीच संवाद करती है और लगता ही नहीं कि यह बेहद काल्पनिक है। भला शेर भी
मनुष्यों के चश्मों को अपनी आंखों में पहन-पहन कर अनफिट करार कैसे दे
सकता है? अंत में किसी का चश्मा से शेर को ठीक-ठाक दिखने लगता है और वह
फिट कह देता है। ये बड़ी ही दिलचस्प और सधी हुई कहानी है। इस कहानी को
पढ़ते समय हर एक पाठक मुस्कराए बिना नहीं रहता। यही इस कहानी की विशेषता
है।

    प्रख्यात बाल साहित्यकार क्षमा शर्मा का उपन्यास अंश ‘घर उड़ा आकाश’
पढ़कर कमोबेश हर पाठक इस उपन्यास को खोजकर पढ़ने के लिए बाध्य कर सकता है।
लेकिन यह उपन्यास किस प्रकाशन ने छापा है? कब छापा है। यह उल्लेख यदि हो
जाता तो पाठकों को इस उपन्यास की ढूंढ-खोज करने में और आसानी हो जाती।

    प्रकाश मनु का आलेख ‘बचपन का बहुरंगी उत्सव हैं आज के बाल नाटक’  एक
महत्वपूर्ण दस्तावेज बन पड़ा है। हैरानी का बात तो यह है कि शायद ही कोई
जरूरी नाटक होगा, जिसका उल्लेख इस आलेख में न हुआ होगा। प्रकाश मनु का यह
आलेख साबित करता है कि बाल-साहित्य पर सूक्ष्म नज़र रखना किसी तपस्या से
कम नहीं है। प्रकाश मनु ढूंढ-खोज कर बाल-साहित्य पढ़ते हैं। यह आलेख इस
बात की पुष्टि करता है। प्रकाश मनु ने आजादी से पहले, आजादी के बाद और
वर्तमान समय के नाटक में इन नाटकों पर अपनी पारखी नज़र डाली है। यही नहीं
उन्होंने प्रख्यात रचनाकारों के लिखे नाटकों पर भी विहंगम रोशनी बिखेरी
है।

    बांग्ला रचनाकार महाश्वेता देवी की कहानी ‘बूढ़ी मां का मुर्ग बेटा’
में लोक कथा की छाया दिखाई देती है। अकेली गरीब भूखी बुढ़िया को भीख में
एक दिन एक अंडा मिलता है। बेचारी बुढ़िया उपवास रखकर उस अंडे को संभाल
देती है। अगले दिन उस अंडे में से मुर्गा निकलता है। गरीब बुढ़िया उसे
पालती है। जादुई मुर्गा एक दिन अपनी शादी की बात चलाता है। मुर्गा की
शादी का किस्सा महाश्वेता जी ने ऐसे पिरोया है कि पूरी कहानी को झट से
पढ़लेने का मोह पाठक नहीं छोड़ पाते। काल्पनिकता और पात्रों का संयोजन
देखते ही बनता है।

    श्री प्रसाद की कहानी मोनू मुक्त हुआ में मोनू का अपहरण दिलचस्प मोड़
ले लेता है। कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ती है पाठक कहानी में खुद का रमता हुआ
पाता है। विदेशी भाषा की जानकारी ही मोनू को उसके घरवालों और पुलिस के
हाथों अपहरणकर्ताओं की पकड़ का कारण बनती है। यह कहानी अप्रत्यक्ष रूप से
यह अहसास कराती है कि आंचलिक या विदेशी भाषा की जानकारी कभी -कभी आपके
बहुत काम आ सकती है। कुछ हिन्दी फिल्म चैन्नई एक्सप्रेस की कहानी भी ऐसी
ही है। यह इस बात की ओर इशारा करती है कि सीखा हुआ कुछ भी कहीं भी कभी भी
काम आ सकता है।

    प्रताप सहगल का नाटक नई रीत में बच्चे हिन्दी में अंत्याक्षरी खेलते
हैं। अंतिम वर्ण से अंत्याक्षरी को आगे बढ़ाते हैं। नाटक के अंत में
देवांश का  रिटर्न गिफ्ट में दोस्तों को किताबें देना मन को मोह लेता है।
यह नाटक भी बच्चे आसानी से खेल सकते है। बच्चों को नाटक खेलते हुए देख
रहे बच्चे भी अंत्याक्षरी की ओर उन्मुक्त होंगे। सबसे बड़ी बात यह है कि
खेल-खेल में बच्चे बहुत कुछ सीखते हैं। यही नाटक का उद्देश्य दिखाई पड़ता
है।

    अभिमन्यु अनत की कहानी ‘सुदनवा’ बेहद मार्मिक है। यह कहानी दस वर्षीय
रनिया पर केन्द्रित है। यह कहानी बच्चों के कोमल हृदय में निहित पशु
प्रेम पर आधारित है। रनिया का सुदनवा बकरे से अगाध प्रेम है। कहानी का
घटनाक्रम आगे बढ़ता है तो सुदनवा को संक्राति के दिन गोश्त के लिए मार
दिया जाता है। दो दिन से भूखी रनिया भोजन करने से इंकार कर देती है।

    विनायक की कहानी ‘आइ लव यू’ बच्चों के खिलौने के प्रति बेहद लगाव और
उस लगाव से मिली उर्जा पर केन्द्रित है। मिस सुखलाल की पांचवी कक्षा में
पढ़ रही बेटी की ट्यूटर मिस ब्यूला और बच्ची के एक महीने के टूयशन पढ़ने के
आस-पास घूमती है। बार्बी डाॅल वाली परी की इस कहानी में महती भूमिका है।
एक महीने मिस ब्यूला के आने का भ्रम बाद में तब खुलता है जब वह वास्तव
में एक माह बाद आती है। काॅपी पर बच्ची के खुद किए गए अभ्यास से यह
खुलासा होता है कि मैथ्स पढ़ाने आने वाली ब्यूला महीने भर के लिए बाहर चली
ही गई थीं। अब जब आई हैं तो बच्ची को पढ़ाने आने वाली कौन थी। इस रहस्य पर
पाठक को खुद को बार्बी डाॅल से जोड़ना होगा। यह बेहद दिलचस्प कहानी बन पड़ी
है।

    जाने-माने बाल साहित्यकार देवेन्द्र कुमार की कहानी स्कूल चलो एक
अच्छी कहानी है। यह कहानी भरतू रिक्शावाले और छात्र रमेश के आस-पास घूमती
है। बच्चे अक्सर रिक्शा में आते-जाते अपनी कोई किताब-काॅपी भूल जाते हैं।
रमेश का बचपना भरतू को पसंद आता है। वह रमेश के नजदीक होता चला जाता है।
बातों ही बातों में रमेश एक बार भरतू को पढ़ाने के लिए तैयार हो जाता है।
लेकिन अभी एबी का सबक शुरू ही हुआ था कि रमेश बीमार पड़ जाता है और दो-तीन
स्कूल न जाने की बात सुन-सुनकर भरतू का दिल बैठ जाता है। रमेश की मां
सरिता देवी से वह एक दिन दोपहर में रमेश को देख लेने की बात कह ही देता
है। भरतू रमेश को मास्टरजी कहता है। बाद में कहानी ऐसा मोड़ लेती है कि
रमेश की मां भरतू को पढ़ाने के लिए तैयार हो जाती है। रमेश से मिलने आया
भरतू जाने से पहले रमेश के सिर पर हाथ रखने का मोह नहीं छोड़ पाता और ऐसा
करते हुए उसकी आंखे भीग जाती है। यह कहानी पाठक के मन में भी भावनात्मक
लगाव पैदा करती है। यही नहीं अनायास ही रमेश,भरतू और सरिता देवी का
रेखाचित्र आंखों के सामने खुद-ब-खुद खींच जाता है।

    मनोहर वर्मा की कहानी कुटकुट और अनार भी बेहद भावुक कहानी है। दरअसल
बाल-साहित्य में केवल चुटीला अंदाज ही रहे। नटखटपन और बचपना ही दिखाई
पड़े। ऐसा नहीं है। कई बेहद मार्मिक और भावुक कहानियां इस बात की ओर संकेत
करती हैं कि यदि कहानी में जज़्बात नहीं हैं,मानवीयता नहीं है। संवेग
नहीं हैं, मानवीय मूल्य नहीं हैं, तो भले ही वे कहानियां कितनी ही अच्छी
हों, भूली-बिसरी हो सकती हैं। लेकिन मूल्यों से ओत-प्रोत कहानियां भी बाल
कहानियांे का अहम् हिस्सा हैं और रहेंगी। कुटकुट और अनार ऐसी ही कहानी
है। कुटकुट और अनार के पेड़ पर लगे अनार की मित्रता का अंत बेहद मार्मिक
है। एक गिलहरी किस कदर किसी फल से इतना अगाध प्रेम कैसे कर सकती है। घोडा
घास से दोस्ती करेगा कया? यह प्रश्न यहां विचलित नहीं करता। अंत में जब
अनार शाख से टूट जाता है और गिलहरी को यह कहता है कि मैं पूरी तरह से पक
चुका हूं। यदि तुमने मुझे नहीं खाया तो मेरे दाने सड़ जाएंगे। आंसूओं से
भरी कुटकुट गिलहरी अनार को अपने हाथों में ले लेती है।

    उषा यादव की कहानी ‘नन्ही परी और जादुई छड़ी’ लींजी की मासूमियत और
मां के प्रति कोमल भावनाओं का ही प्रतिफल है। उषा यादव ने बच्चों को ही
परी माना है। कैसे एक कैंसर से जूझ रही और अपनी मौत स्वीकार कर चुकी मां
को उसकी नन्ही बेटी रोजाना एक पत्र लिख कर बचा लेती है। यही कहानी का सार
है। संवाद बेहद मर्मस्पर्शी बन पड़े हैं। यह कहानी आसानी से बच्चों में
कही जा सकती है।

    रूस के चर्चित कथाकार विताउते जिलिंस्काइते की प्रसिद्ध कहानी ‘रोबट
और तितली’ भले ही विदेशी धरती के ताने-बाने में बुनी है। लेकिन इसमें मन
खूब रमता है। तितली के नाजुक पंखों और रोबट की मशीनी काया कहीं भी कथा
में बाधक नहीं बनती। संवाद तो बेहद मनभावन हैं ही। जीवों और मशीनों में
भावनात्मक अंतर को कहानी में बड़े सशक्त ढंग से रखा गया है। तितली के दम
तोड़ देने के बाद रोबट की आंखें आखिरकार डबडबा ही जाती है। दर्द का रिश्ता
इस कहानी में अच्छे से रेखांकित हो सका है।

    डाॅ.सुनीता की चुलबुली कहानी ‘साकरा गांव की रामलीला’ नानी के गांव
की याद दिलाती है। रामलीला के बहाने दीपा और उसकी नानी के बीच जो संवाद
हैं, वे मन ही मन प्रसन्नता का भाव भरते हैं। औरतों की रामलीला और साकरा
गांव का चित्र आंखों में स्वतः ही बन पड़ता है।

    विभा देवसरे की मर्मस्पर्शी प्रसिद्ध कहानी ‘रामचरण की भिंडी’ तबादले
के कारण रोचक और भावपूर्ण बनी है। नौकर रामचरण और घर के बच्चों के बीच
होने वाली नटखट शैतानियों का अंत उस समय हो गया जब लेखिका के मुख्य पात्र
का तबादला मुरादाबाद से इलाहाबाद हो गया। कहानी ‘रामचरण भिंडी’ का अंत
बेहद भावुक है। भिंडी से चिढ़ने वाला तबादला का नाम सुनकर ही उदास हो जाता
है। बच्चों से लिपटकर फूट-फूट कर रोने का चित्र उभर जाता है।

    विद्या विंदु सिंह की कहानी ‘आदमी और जानवर’ में लोकतत्व है। जानवरों
पर दया करना इस कहानी में अच्छे से आया है। यही नहीं इंसानों के भिन्न
स्वभाव का चित्रण भी इस कहानी में हुआ है। गोकुल के आदमी व्यापार में
उसका सब कुछ ले लेता है और जंगल से पकड़ कर लाया कुत्ता, कछुआ और बंदर दे
देता है। गोकुल इन्हें घर ले आता है, गोकुल का पिता उस पर नाराज होता है।
फिर ये तीनांे जानवर मिलकर गोकुल की मदद ही नहीं करते, खुद भी महसूस करते
हैं कि स्वार्थ की इस दुनिया में सभी मनुष्य एक जैसे नहीं होते।



    बलराम अग्रवाल का नाटक ‘सूरज का इंतजार’ महात्मा गांधी जी पर आधारित
है। यह नाटक उनके बचपन और वयोवृद्ध अवस्था दोनों पर प्रकाश डालता है।
अभिनय की दृष्टि से इस नाटक में अपार संभावनाएं हैं। मां के व्रत के साथ
जो कि सूरज के दिखने पर ही खोला जाता है। मोहन का भोजन को छिपाने का भाव
बड़ा ही मृदु है। गांधीजी के मुख से नाटककार ने यह कहलवाया है कि उन्हें
अहिंसा की ताकत माताजी से मिली है। संवाद भी बेहद प्रभावशाली है।
पुतलीबाई के मुख से नाटककार ने बहुत ही मननीय बातें कहीं हैं।

    सूर्यनाथ सिंह की कहानी ‘पंडित मोदकमल शास्त्री’ अच्छा-खासा मनोरंजन
करती है। पंडित जी के खर्राटें उनकी मुसीबत का कारण बन जाते हैं। कहानी
में खर्राटे ऐसी घटना का कारण बन जाते हैं कि पंडित जी बाहर न सोने की
कसम खा लेते हैं। गरमी में वे मचान बनाकर सोते हैं। मचान पर सोने से वह
उड़ने लग जाते हैं। उड़ते-उड़ते वे रामलीला का दृश्य देखने में मग्न हो जाते
हैं। कहानी का अंत भी बेहद हास्य से भरा है। रोचकता और चुटीला अंदाज
पाठकों को अवश्य भाएगा।

    ओमप्रकाश कश्यप लंबी कहानी और लंबे संवादों में पारंगत है। लेकिन
उनकी यह कहानी ‘नन्हा दीपक’ कुछ हटकर है। कहानी में दर्शन है। सूझ-बूझ
है। गहराई है। भाव हैं। नन्हा दीपक अंधेरे में जलता है लेकिन उसके उजाले
में चोर चोरी का माल बांटते हैं। दीपक सोचता है कि उसका उजाला उसे पाप का
भागीदार बना गया। अवसाद से भरा दीपक पिता सूरज से इस संबंध में बात करता
है। सूरज के दीपक को समझाने वाले संवाद बेहद सशक्त और मार्मिक बन पड़े
हैं। कहानी में उन्हीं चार चोरों द्वारा अपनी मेहनत से बनाई गई धर्मशाला
का उल्लेख कहानी को ही उलट देती है। कहानी का अंत सोचने को बाध्य करता
है।

    जाकिर अली रजनीश की विज्ञान कथा ‘एक नई शुरुआत’ में प्रवाह है। प्रो.
रामिश का मानव प्रक्षेपण ड्रीम प्रोजेक्ट है। माधवन की सहायता से मानव
प्रक्षेपण का सफल प्रयोग खुद रामिश अपने ऊपर करते हैं। लेकिन मानव
प्रक्षेपण यंत्र की दूसरी इकाई ठप्प हो जाने के कारण प्रो. रामिश का तरंग
स्वरूप अपनी गति खो बैठता है और हवा के बहाव के साथ प्रयोगशाला के पीछे
बहने वाले नाले की ओर उड़ पड़ता है। इसके बाद तो माधवन की दशा क्या होती
है। प्रो. रामिश के साथ क्या होगा? यह जिज्ञासा ही इस विज्ञान कथा का
प्राण है।

    भैरूंलाल गर्ग की कहानी ‘रक्षा का उपाय’ मनुष्यों द्वारा जंगल और
जंगली जानवरों को नष्ट कर देने पर केन्द्रित है। जंगल के सभी छोटे बड़े
पशु-पक्षी बैठक बुलाते हैं और मनुष्य को सबक सिखाने का निर्णय लेते हैं।
तय होता है कि यदि सब मिलकर मनुष्य पर हमला बोल दें तो वह मनमानी करने से
बाज़ आएगा। यही होता है। सुंदरवन के सभी जानवर एक हो जाते हैं। वे अपनी
रक्षा का उपाय जो सोच लेते हैं।

    विमला भण्डारी की कहानी ‘बन गए सब घनचक्कर’ में लोमड़ ने बंदरू हलवाई,
गरदू दरजी और लंगूरी दरजन की मिली भगत से मुरगी समाज को ठगने का अच्छा
खासा प्रबंध कर लिया था। लेकिन इकलू चूज़ा टिकलू चूज़ा की सहायता से भांप
लेता है कि कुछ तो गड़बड़ है। भांडा फूटने पर सभी को पता चलता है कि यह तो
उन्हें लूटने की एक ठग योजना थी। सरल और प्रवाहमय शैली ने कहानी को
दिलचस्प बना दिया है।

    गोविंद शर्मा की कहानी ‘मामा-मौसी’ पात्रों के माध्यम से बड़े ही
दिलचस्प और सोचनीय सवाल उठाती है। बंदर को मामा और बिल्ली को मौसी कहने
के पीछे का भाव और तर्क गुदगुदाता है।

     अनुजा भट्ट की कहानी ‘चीनू ने खोली आंटी की आंखें‘ विविध मनोभावों
के बच्चों में बदलाव दिखाने वाली कहानी है। कहानी का घटनाक्रम कुछ ऐसे
घटता है कि बच्चे पिकनिक की मस्ती छोड़ हर तीसरे रविवार उन हमउम्र बच्चों
को पढ़ाने का संकल्प ले लेते हैं, जो धनाभाव के कारण से नियमित स्कूल नहीं
जा पाते।

    पंकज चतुर्वेदी की कहानी ‘क्या बनोगी मुनिया’ बच्चों में पल-प्रतिपल
बदल रही धारणाओं पर आधारित है। मुनिया भी बड़ी होकर कुछ बनना चाहती है।
कुछ बनने और फिर उस इरादे को त्यागने के उसके अपने सटीक तर्क हैं। वह कुछ
ऐसा तो करना ही चाहती है कि बड़े उसका लोहा मानें। उसे यह मौका गड्ढे में
गिरे बकरी के बच्चे को बचाने से मिल जाता है। मुनिया के मासूम और
प्रभावशाली प्रश्न मन को भाते हैं।

    शकुंतला कालरा का यात्रा वृतांत पृथ्वी का स्वर्ग माॅरीशस भले ही
बच्चों के लिए नहीं लगता लेकिन किसी यात्रा को लिखा कैसे जाता है, यह
बेहद सशक्त ढंग से लिखा गया है।

    अंत में ब्रजेंद्र त्रिपाठी का आलेख नई सदी का बाल साहित्य विमर्श के
लिए कई सवाल उठाता है। यह बहस का मुद्दा है ही कि क्या बाल-साहित्य में
परी,राजा-रानी और राक्षस के पात्र हों या न हों। आखिर यह बहस रह-रह कर
बार-बार उठती है। नई सदी के बच्चे क्या पढ़ें और क्या न पढ़ें, यह हम उन पर
ही छोड़ दें तो कैसा रहेगा?

    अंक में शामिल सभी कविताओं पर बात करना संभव नहीं है। किसी कविता को
कमतर भी नहीं कहा जा सकता। बहुरंगी और बहुत सारे प्रतीक, विषयों पर
आधारित कई कविताएं गुनगुनाने लायक हैं। यही कहा जा सकता है कि रस, भाव और
सौन्दर्य का आनंद उठाने के लिए यह विशेषांक पढ़ना ही होगा।

    इस अंक में कन्हैया लाल मत्त, महादेवी वर्मा, शकुंतला सिरोठिया,
सरस्वती कुमार पाठक, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, दामोदर अग्रवाल, बाल कवि
बैरागी, बाल स्वरूप राही, यश मालवीय, रमेश तैलंग, शेरजंग गर्ग, भगवती
प्रसाद द्विवेदी, रमापति शुक्ल, आनंद प्रकाश, राष्ट्रबंधु, अश्वघोष,
दिविक रमेश, प्रकाश मनु, कृष्ण शलभ, पुष्पा राही, योगेन्द्र कुमार लल्ला,
शिवकुमार गोयल, नागेश पांडेय सजय, हेमंत कुमार, राजनारायण चैधरी,
राजेन्द्र उपाध्याय, रमेश आजाद, संजीव ठाकुर, सुशील शुक्ल, अनुप्रिया ,
नरेन्द्र गोयल, श्याम सुशील, योगेन्द्र दत्त शर्मा, रामेश्वर दयाल दुबे,
रामवचन सिंह, चंद्र दत्त इंदु, चंद्रपाल सिंह यादव, नारायालाल परमार,
रमेश रंजक, ऋता शुक्ल की मोहक कविताएं इस अंक में पढ़ी जा सकती हैं।

   ये ओर बात है कि पत्रिका का वर्ष 2012 का बाल-साहित्य विशेषांक दो सौ
पृष्ठों का था। यह नवीन अंक एक सौ तीस पृष्ठों का है। दोनों अंकों में
परामर्श,समन्वय, सामग्री जुटाने से लेकर उन्हें संकलित करने का अथक
परिश्रम वरिष्ठ कथाकार-कवि प्रकाश मनु ने किया है।

    प्रकाश मनु को साहित्य अमृत ने अपना परामर्शदाता माना है। यह बड़ी बात
है। निश्चित रूप से जिस पत्रिका ने भी प्रकाश मनु से परामर्श और सहयोग
लिया है, उसकी गूंज हमेशा चहूं ओर सुनाई पड़ी है। साहित्य अमृत का नियमित
अंक तीस रुपए का होता है, लेकिन यह अंक पचास रुपए का है। एक कमी अवश्य
खलती है। काश! रचनाकारों का जन्म समय भी दिया होता तो पाठक हर रचनाकार के
समय का ठीक-ठीक अंदाजा लगा लेता।

5 comments:

  1. बडे विस्‍तार से और मन से समीक्षा की है, बधाई।

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  2. dekhne kaa saubhaagya nahi milaa,iskaa mujhe bahut dukh hai.vaise maine bhi 4 october 2012 ko E-mail se phalon par aadhaarit a se am tak 10 kavitaayen sahitya amrit ke Nov.baal sahitya visheshaank ke liye bheji thin,sambhavtah mili na hon ya pahunchi na hon.iski antim tithi 6-7 oct 2012 thee.lekin yahan sameekshaa padhkar bahut achchhaa lagaa.sabhi rachnaakaaron ko bahut-bahut badhaai.

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  3. ये लिंक मै अभी देख सका हूँ.माफ़ करेंगे
    कैसे ये पत्रिका/अंक मंगाई जा सकती है.
    गाइड करे कृपया

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  4. मनु जी बाल साहित्‍य के गहरे अध्‍येता हैं। उनकी प्रतिबद्धता काबिलेदाद है।

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