राष्ट्रीय पुस्तक न्यास-भारत द्वारा रविवार, 2 नवंबर, 2014 को गाज़ियाबाद में
आयोजित एक संगोष्ठी में पढ़ा गया आलेख
मित्रो,
आज की इस
बालसाहित्य संगोष्ठी में चर्चा का जो विषय
निर्धारित है उसमें दो शब्दों पर आपका ध्यान मैं विशेष रूप से आकर्षित करना
चाहूगा। पहला शब्द है आधुनिक और दूसरा वर्तमान।
क्या ये दोनों कालसूचक शब्द अपने आप में स्वतंत्र इकाई हैं? मुझे नहीं लगता कि कोई
भी आधुनिकता निरंतर गतिमान होकर भी पारंपरिकता से अपने आप को पूर्णत: विलग कर सकती है। इसी तरह वर्तमान के साथ भी उसका अतीत और भविष्य नाभि-नाल की तरह
जुड़ा रहता है, पिफर आप चाहें या न चाहें। लेकिन मेरी इस अवधारणा आप चौंके
नर्ही। सच तो यह है कि हम अपने वर्तमान में ही जीते हैं। साहित्य अथवा बालसाहित्य
के अस्तित्व की वास्तविकता भी उसके वर्तमान में ही ज्योतिर्मय दिखती है। एक तरह से
देखें तो इन दोनों शब्दों को हम अपनी समकालीनता का पर्याय भी मानकर चल सकते हैं।
अब
विचारणीय बात यह है कि आधुनिक भारत क्या है, कैसा है और यदि उसकी बालसाहित्य
अथवा बालसाहित्यकारों से कुछ अपेक्षा हैं तो वे कौनसी हैं और क्या वे वर्तमान में
पूरी हो रही हैं अथवा नहीं। प्रश्न यह भी
उठ सकता है कि आज का भारत जिसे हम आधुनिक भारत कह रहे हैं उसमें बालसाहित्य का
वर्तमान या प्रांसंÛिक होना कितना अर्थवान है। ये ऐसे संश्लिष्ट प्रश्न हैं
जिनका उत्तर ‘हां’ या ‘न’ में नहीं दिया जा सकता। हां, उनके प्रवृत्तिगत संकेत या संकेतात्मक उत्तर अवश्य
ढूंढ़े जा सकते हैं। अपने आलेख के जरि,
मैंने
यहां ऐसी ही एक विनम्र कोशिश की है जो स्पष्ट कारणों से हिंदी बालसाहित्य के परिदृश्य
तक ही सीमित है। यह अलग बात है कि ऐसा परिदृश्य कुछ अन्य
भाषाओं के बालसाहित्य में भी मौज़ूद हो।
हम जिस संक्रांतिकाल में जी रहे हैं वह बच्चों के स्वास्थ्य, शिक्षा, सुरक्षा, संस्कृति और व्यक्तित्व
विकास की दृष्टि से बहुत अनुकूल समय नहीं है। दुनिया के बच्चों पर आज अनेक तरह के
संकट गहराए हुए, हैं। ये संकट दैहिक शोषण के भी हैं और मानसिक शोषण
के भी । भारत जैसे विशाल और विकासशील देश
में यह समस्या और भी ज्यादा जटिल है। सवा सौ करोड़ वाले इस देश में, जहां लभ एक तिहाई आबादी 18 वर्ष से कम आयु वाले
बच्चों-बच्चियों की हो और जिसका बहुत बड़ा हिस्सा कुपोषण, अशिक्षा, असुरक्षा, और तरह-तरह की हिंसात्मक
विभीषिकाओं से त्रस्त हो, वहां सतही तौर पर कुछ गिनी-चुनी पसंदीदा अथवा नापसंदीदा
कृतियों की श्रेष्ठता या दयनीयता का बखान करके हम बालसाहित्य के वर्तमान पर कोई
र्निणयात्मक टिप्पणी चस्पां नहीं कर सकते।
पर इसका यह अर्थ नहीं कि हिंदी में बालसाहित्य की सृजनात्मक ,एवं आलोचनात्मक परंपरा
है ही नहीं। है, और इस समृद्ध परंपरा का उत्स भी लगभग शताध्कि वर्ष पीछे ढूंढा
जा सकता है। उसकी संक्षिप्त चर्चा मैं आगे करूंगा। पर अभी बालसाहित्य के वर्तमान
के कृष्ण पक्ष पर एक दृष्टि डाल ली जाए।
मोटे रूप में देखें तो बालसाहित्य की उपादेयता उन्हीं के लिए है जो साक्षर हैं, शिक्षित हैं, और जिनमें साहित्य के प्रति
अनुराग, संवेदना तथा ललक कमोवेश रूप में विद्यमान है। आधुनिक भारत में जिस तरह की
आयातित शिक्षण पद्धति की ओर न्वधनाढ्य ,व मध्य वर्ग भाग रहा है वह बच्चों को रोबोट तो बना सकती है पर मनुष्य
नहीं। कैरियरवादी शिक्षण में साहित्य की क्या जगह रह गई है यह आप पब्लिक स्कूलों
के प्राथमिक शिक्षण के पाठ्यक्रम को ही देखकर पता लगा सकते हैं। सुपरिचित लेखक, चिंतक डा0 प्रेममपाल शर्मा ने
अपने अनेक लेखों में इस बात को रेखांकित किया है कि आज की शिक्षण पद्धति ने बच्चों
को अनेक वर्गों में बांट दिया है जिनमें संपन्न और विपन्न दो बहुत बड़े वर्ग शामिल हैं। एक वर्ग ऐसा है जहां संपन्नता के बल पर महत्वाकांक्षाएं मूर्तमान
होती हैं और दूसरा वर्ग ऐसा है जहां विपन्नता के चलते महत्वाकांक्षाएं कुंठाओं में
परिवर्तित हो जाती हैं। यह हमारे वर्तमान में बाजार के बढ़ते प्रभाव का प्रतिपफल
है।
बाजार पहले भी था, पर जैसा कि एक लेखक ने कहा है, तब वह आपकी जरूरतें पूरी
करता था। अब वह आपकी जरूरतें ही पूरी नहीं करता बल्कि जरूरतें पैदा भी करता है और ऐसी
दुनिया में जीने के लि, आपको मजबूर करता है जिसमें साहित्य या विचार सिरे से नदारद
है। आज के बच्चों की जिंदगी देखिए ना, छोटी- छोटी उम्र के बच्चे आज पारंपरिक खेलों को छोड़
कर मोबाइल लैपटाप, टी-वी- गेम्स या उबाऊ सीरियलों में उलझे हे हैं। आठों पहर बोझिल होमवर्क का भूत
उनके सिर पर सवार रहता है। सिमटते परिवार और उनमें भी बुजुर्गों की अनुपस्थिति
बच्चों की दिनचर्या में बालसाहित्य का प्रवेश करने ही नहीं देते। प्राथमिक शिक्षा की बात करें तो हिंदी
पाठ्यपुस्तकों में उन्हें ऐसी रचनाएं पढ़ाई जाती हैं जिनके मूल रचनाकारों का परिचय
तक नहीं है और सुप्रसिद्ध रचनाओं की भौंड़ी नकल दूसरे रचनाकारों के नाम से शामिल
की जा रही है। बालसाहित्य की जो पुस्तकें लिखी जा रही हैं उनके प्रकाशन का आसन्न
संकट बना हुआ है और जिन सौभाग्यशाली बालसाहित्यकारों की पुस्तकें प्रकाशन का सबेरा
देखती हैं या जिनके सौभाग्य से अनेक संस्करण भी निकल जाते हैं उनमें संस्करण का वर्ष तो देखने को मिल
जाता है पर उस संस्करण कीआवृत्ति पहली है, दूसरी है या तीसरी है इसे
ढ़ूंढने में या तो आपकी आंखों के आगे अंधेरा छा जाएगा या फ़िर आपका पसीना छूट जाएगा। ऐसी परिस्थितियों
में डा0 प्रकाश मनु जैसे समर्पित बाल साहित्यकार जो वर्षों से हिंदी बालसाहित्य का
वृहत् इतिहास लिखने की धुन में लगे हैं,
किस
तरह की दुष्कर परिस्थितियों से होकर गुजर रहे होंगे इसकी कल्पना आप भली भांति कर सकते
हैं।
आप सोच रहे होंगे कि बालसाहित्य की श्रेष्ठ रचनाओं या कृतियों पर चर्चा न करके
मैं यह कौनसा प्रलाप करने यहां खड़ा हो गया हूं। पर मित्रो, यह तथाकथित प्रलाप भी
उसी यथार्थ का एक हिस्सा है जिसे आप ‘बालसाहित्य का वर्तमान’
नाम दे रहे
हैं। अपने पैंतीस वर्षों के मुट्ठी भर बालसाहित्य लेखन के बाद भी मुझे लगातार ऐसा
महसूस होता है जैसे एक दुःस्वप्न मेरा
पीछा कर रहा है। दुःस्वप्न यह है कि बाल साहित्य की धारा में जल तो कम होता जा रहा
है और प्रस्तर खंडों की संख्या बढ़ती जा रही है जिससे बालसाहित्य की धारा के सहज प्रवाह
में विचलन और अवरोध दोनों पैदा हो रहे हैं। संभव है कि आपको यह निराशा भरा वाक्य
अच्छा न लगे पर जरा इसकी गंभीरता पर आप सोचें कि एक बीज के खराब होने का अर्थ है -
पूरे वृक्ष का खराब हो जाना और एक पूरे वृक्ष के खराव होने का अर्थ है संपूर्ण वृक्षावली
की सेहत को खतरा। बाल साहित्य के वर्तमान परिदश्य पर नजर डालें तो ऐसा साहित्यिक
प्रदूषण आपको जगह-जगह देखने को मिल जाएगा।
यूरोपियन तथा अफ़्रीकी देशों में बालपुस्तकों के संदर्भ में एक सांस्कृतिक संकट
उत्पन्न हो गया है। वहां बालसाहित्य में जो कुछ अनुपस्थित है उसको लेकर अनेक सवाल
उठाए जा रहे हैं। यूरोप
में बालसाहित्य के आलोचकों को इस बात को लेकर चिंता है कि वहां की पुस्तकों में
श्वेतवर्णी पात्र ही क्यों भरे पड़े है, और श्याम वर्णी पात्र क्यों नहीं
है? या फ़िर विकलांग बालपात्रों को ले कर अच्छी बाल पुस्तकें क्यों नहीं
लिखी जा रही हैं। अफ़्रीका की सुविख्यात शिक्षाविद् ,व लेखिका डा0 शफातिमा अकीलु ने तो
आयातित उपनिवेशवादी संस्कृति दर्शाने वाली बाल पुस्तकों को अपने देश की शिक्षा
प्रणाली से हटवा कर स्वयं ऐसी अनेकों बालपुस्तकें लिख कर क्रांति कर दी है जिनमें
अफ़्रीकी संस्कृति का वर्चस्व दिखाई देता है अन्यथा तो उपनिवेशवादी संस्कृति वाली
बालपुस्तकों से तो वहां के बच्चे अपना
संबंध् जोड़ ही नहीं पाते थे क्योंकि उन पुस्तकों में न तो उन जैसे पात्र थे और न
ही उनका अपना सांस्कृतिक परिवेश था। भारतीय बालसाहित्य में भी ऐसा बहुत कुछ अनुपस्थित है जो हमें खलता है पर
फ़िलहाल इतने बड़े स्तर पर ऐसा सांस्कृतिक संकट हिंदी बाल साहित्य में नहीं उपजा
है। फ़िर भी जरूरी है कि हम बालसाहित्यकार अपने अनुभवों और दृष्टिपफलक का विस्तार
करें जिससे हमारी हिंदी की रचनाओं को विश्वव्यापी प्रसार मिल सके।
‘स्वतंत्रता के बाद वैज्ञानिक तकनीक और औद्योगिक क्षेत्र में
हुए त्वरित विकास ने भारत को एक नई जीवनशैली दी हैं। जिसके कुछ सकारात्मक परिणाम हु,
हैं तो कुछ
नकारात्मक परिणाम भी हु, हैं। सकारात्मक ये
कि जीवन के सभी क्षेत्रों में सुख, सुविधाओं तथा भौतिक संपन्नता में बढ़ोतरी हुई है और
नकारात्मक ये कि यह सारा वैभव मानव समाज के एक सीमित वर्ग में सिमटकर रह गया है।
यांत्रिक निर्भरता, क्रूरता, संवेदनहीनता तथी एकाकीपन जैसी व्याधियां न केवल सहज स्वीकार्य होने लगी हैं अपितु वे हमारे
जीवन को अपनी तरह से नियंत्रित एवं संचालित भी करने लगी हैं।
मौलिक स्तरीय रचनात्मक बालसाहित्य को अब तेजी से दोयम दर्जे का सूचनात्मक बालसाहित्य स्थानापन्न कर रहा है। एक जमाना था
जब दिल्ली के पटरीबाजार में उत्कृष्ट साहित्य की पुस्तकें कम से कम कीमत पर सहजता
से उपलब्ध हो जाया करती थीं और एक जमाना अब है जब हर जगह आयातित,व्यावसायिक
प्रतियोगिता तथा तकनीकी पुस्तकों-पत्रिकाओं का अंबार लगा दिखता है और बालसाहित्य
तो दूर की बात, वयस्क साहित्य की पुस्तकें भी वहां ढूंढे नहीं मिलतीं।
पुस्तकों का छपना एक बात है और उनका सही पाठकों के हाथों तक पहुंचना दूसरी
बात। पुस्तक मेलों में रंगविरंगी बाल-पुस्तकें देखकर बच्चे हर जगह आकर्षित होते
हैं और उन पुस्तकों को बड़े ही चाव से उलटते-पलटते हैं पर इसमें दो राय नहीं कि
बच्चों में साहित्य के प्रति अनुराग जगाने तथा साहित्य की जीवन में भूमिका समझाने का
पहला दायित्व अभिभावकों का ही होता है। यथार्थ में इस दायित्व का समुचित वहन कितने
अभिभावक करते हैं यह किसी से छुपा नहीं है। अंगरेजी बालपुस्तकों का वर्चस्व अभी भी
बना हुआ है और हिंदी बालपुस्तकें अभी भी अपना रोना रोती नजर आती हैं। पब्लिक स्कूलों
में यदि अंग्रेजी की जगह हिंदी का वाक्य मुंह से निकल जाये तो प्रताडंना के
साथ-साथ जुर्माना भी लग जाता है और यह सब आकस्मिक नहीं, बल्कि प्रायोजित ढंग से हो रहा है। सारा खेल उपनिवेशवादी मानसिकता को संरक्षण देने वालों का रचा
हुआ है।
बालसाहित्य के वर्तमान
का यह तो हुआ कृष्ण पक्ष। अब संक्षेप में
जरा शुक्ल पक्ष की भी बात कर लें। इसमें
संदेह नहीं कि हिंदी बालसाहित्य की परंपरा पिछले सौ-सवासौ सालों में काफी समृद्ध
हुई है। और ऐसा सिर्फ कहानी कविता के क्षेत्र में नहीं बल्कि साहित्य की अन्य विधाओं
में भी हुआ है। अनेकानेक कठिनाइयों के बावजूद इधर के कुछ दशकों में हिंदी बाल
साहित्य की रचना के साथ-साथ आलोचना में भी गंभीर काम हुआ है। भले ही यह बात वयस्क
हिंदी साहित्य के स्वनामध्न्य आलोंचकों के गले न उतरे। खुसरो की मुकरियों से लेकर आधुनिक बाल रचनाओं
तक हिंदी की बाल पुस्तकों पर नजर डालें तो सैंकड़ों उपन्यास कहानियां, कविता,ं, नाटक, जीवनियां, विज्ञान पुस्तकें तथा
अन्य विधाओं में रचा गया बालसाहित्य हमारे सामने आ चुका है पर एक खाई है जो
पुस्तकों और बच्चों के बीच अभी भी बनी हुई है।
हिंदी के बड़े-से बड़े लेखकों ने बालसाहित्य रचा है और उसके अतीत पर हम गर्व
कर सकते हैं। हमारे अपने समय के स्मरणीय बालसाहित्यकारों में प्रेमचंद, श्रीधर पाठक,दिनकर, महादेवी वर्मा, महावीर प्रसाद द्विवेदी,
जहूर बख्श,
रामनरेश त्रिपाठी
मन्नन द्विवेदी, सोहनलाल द्विवेदी, निरंकार देव सेवक, शकुतला सिरोठिया, द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
अमृतलाल नागर, मस्तराम कपूर,डा0 श्री प्रसाद से ले कर डा0 हरिकृष्ण देवसरे, जयप्रकाश भारती, डा0 राष्ट्रबंधु, प्रकाश मनु, देवेंद्र कुमार, दिविक रमेश, विनायक, हरिकृष्ण तैलंग, हसन जमाल, रोहिताश्व अस्थाना,
शंकर
सुलतानपुरी,संजीव जायसवाल संजय, अखिलेश श्रीवास्तव चमन, सुरेंद्र विक्रम, उषा यादव, क्षमा शर्मा, पंकज चतुर्वेदी, जाकिर अली रजनीश,
मोहम्मद
साजिद खान, अरशद खान, आदि युवा एवं वरिष्ठ बालसाहित्यकारों की लंबी पांत है जिनकी पूरी सूची दी जा,
तो ऐसे कई
आलेख सैंकड़ों पृष्ठों में भी नहीं समा सकेंगे।
यहां यह बात स्मरण रखने योग्य है कि शिक्षा और बालसाहित्य दोनों एक दूसरे पर
परस्पररूप से निर्भर है। भारत की आशा उसकी नई पीढ़ी पर ही टिकी है और नई पीढ़ी को
यदि यांत्रिकता और संवेदनहीनता से बचे रखना है तो न केवल
श्रेष्ठ बालसाहित्य को उसके जीवन का अंग बनाना होगा बल्कि इसके
लिए, प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च्तर शिक्षा तक के ढांचे में भी वांछित परिवर्तन
लाना होगा।
अंत में एक छोटी-सी महत्वपूर्ण बात कहकर मैं अपने वक्तव्य को यहां विराम देना
चाहूंगा। और वह यह है कि यदि आधुनिक भारत की बालसाहित्य और बालसाहित्यकारों से कुछ
अपेक्षाएं हैं तो बालसाहित्यकारों की भी अपने देश के कर्णधारों से कुछ अपेक्षाएं
हैं। ऐसा क्यों नहीं होता कि सरकारें मसिजीवी साहित्यकारों के प्रति संवेदनशील
रहती हैआ।
मसिजीवी हिंदी साहित्यकारों की स्थित दयनीय भले ही न हो पर चिंतनीय अवश्य है।
उनके हितों को ध्यान में रखते हुए कम से कम पुस्तकों के प्रकाशन के समय प्रकाशकीय विवरण
में मुद्रित प्रतियों की संख्या, आवृत्ति या संस्करण की संख्या तथा लेखकों की एक
वाक्यीय धोषणा कि उन्हें उनकी रचना का समुचित पारिश्रमिक दिया जा चुका है, आदि का उल्लेख कानूनी रूप
से अनिवार्य कर दिया जाना चाहए।
लेखक-प्रकाशक के संबंधें के बीच पारदर्शिता बनाए रखने में यह एक सार्थक
कदम होगा। जहां तक बालसाहित्य की पुस्तकों की कीमत का संबंध् है तो निजी प्रकाशकों
की तो सदा से मनमानी चली है। हां, सरकारी स्वायत्त प्रकाशन गृह काफी समय तक इस पर कुछ
नियंत्रण रखे हु, थे। लेकिन अब वे भी इस दौड़ में निजी प्रकाशकों को पीछे
छोड़ रहे हैं। यदि यही प्रतियोगिता चलती रही तो बालसाहित्य का वर्तमान तो प्रभावित
होगा ही, उसका भविष्य भी संकटापन्न हो जाएगा।
इसलिए
इस विषम स्थिति से बचने के लिए जरूरी है
कि लेखक, प्रकाशक और पाठक के त्रिकोणीय संबंधों में पारदर्शिता, शुचिता और पारस्परिक
विश्वसनीयता सतत रूप से बनी रहे । एक संवेदनशील बाल-साहित्यकार होने के नाते कम से
कम इतनी दुआ तो मुझे करनी ही चाहिए।
अच्छे विचार है।
ReplyDeleteएक ईमानदारी भरा आलेख। बधाई।
ReplyDeleteआलेख मे कहीं कहीं प्रूफ की गलतियों के लिए क्षमा ।
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