Thursday, December 18, 2014

बचपन की यादें : संदीपन विमलकांत नागर


   बचपन की यादें  
 संदीपन विमलकांत नागर


(सुपरिचित रंगमंच कलाकार, फ़िल्म अभिनेता-निर्देशक संदीपन विमलकांत नागर प्रख्यात उपन्यासकार श्री अमृतलाल नागर के दौहित्र तथा वि्दुषी कथा, पटकथा एवम संवाद लेखिका अचला नागर के पुत्र हैं। उन्होंने हमारे विशेष आग्रह पर बल साहित्य संसार (World of Children's Literature) के लिये अपने बचपन की ये स्मृतियां लिखकर भेजी हैं। हम संदीपन जी के हृदय से आभारी हैं और आशा करते हैं कि वे हमें आगे भी बच्चों के लिये कुछ न कुछ् लिखकर भेजते रहेंगे - रमेश तैलंग)

मेरा  जन्म 1960 में मेरे ननसाल लखनऊ में हुआ था। मेरे नाना हिंदी के मूर्धन्य उपन्यासकार पद्मभूषण अमृतलंाल नागर जी थे, और ददिहाल मथुरा में था। मेरे दादा लक्ष्मणप्रसाद नागर जी वहां के प्रसिद्ध व्यवसायी थे और उनका दवा निर्माण का काम था। सौभाग्य से दोनों ही जगह हमारा संयुक्त परिवार था। मथुरा में जहां मेरे पिता श्री विमलकांत जी के भाइयों के परिवार में कुल मिलाकर हम 8 भाई एवं 9 बहनें थे, जिसका मतलब था खूब धमाचैकड़ी, स्पाई, पकड़म-पकड़ाई, घर-घर, इक्कल-दुक्कल जैसे कई खेल। हम सब भाई बहन घर में खेलते थे। मजा चार गुणा और बढ़ जाता था जब बुआ एवं उनका परिवार छुट्टियां बिताने आ जाता था।

हम लोग इसी कारण बड़े होने तक ज्यादातर बाहर नहीं जाते थे और अगर जाते थे तो अपनी दादी या ताऊजी, जो हमारे हैड आफ फेमिली थे, को बता कर। वो भी कहते -‘हो आओ, पर सूरज छुपने से पहले आ जाना!’ और हम ऐसा ही करते भी थे। लौट कर उन्हें बता देते-‘ताऊ जी हम लौट आए हैं’।

इस बात ने हमें नियमों में बंधना सिखाया। बड़ों की बात मानना और सुनना सिखाया और संयुक्त परिवार के, मोहल्ले के, शहर के संबन्धों के क्या मायने होते हैं, ये बताया। मेरी दादी परिवार की सूत्रा थीं और मेरी ताईयां काकी और मां उनकी मिनिस्टर्स। सुबह से लेकर रात तक वो हम 50 लोगों के परिवार के लिए अपना दिन न्योछावर करतीं। हमें बड़ा करने में, ख्याल रखने में उन्होंने खुद अपना खयाल न रखते हुए पहले हम बच्चों के बारे में सोचा। मेरी दादी और दोनों बड़ी ताईयां अब इस दुनिया में नहीं पर उनसे मिले आशीर्वाद की भीनी सुगंध में आज भी महसूस करता हूं।

गर्मी की छुट्टियों का,हमारे जमाने में मतलब इोता था। छृट्टियां और छृट्टियां का मतलब होता था ननिहाल लखनऊ जाना और मेरा छोटा भाई वहां जाने के दिन एग्जाम पीरियड में गिनना शुरु कर देते थे। और लखनऊ के लिए ट्रेन में बैठते ही चारबाग स्टेशन पर हमें लेने नानाजी अपनी खादी की धोती, कुर्ता पहने, हाथ में नई छड़ी लिए मुंह में पान की गिलौरी दाबे खडे दीखने लगते। और सुबह उनको स्टेशन पर पाते ही हमारी बाछें खिल जातीं। नाना जी................ की आवाज लगाते उनके पास दौड़े जाते और फिर चारबाग से चौक, उनके घर जाना। रिक्शे की सैर के समय तक उनकी विद्वत्तापूर्ण लच्छेदार बातें..वाह! वो हर बार बिना घबराए हमें सारे बीच में पड़ने वाले मोहल्लों, खास जगहों के बारे  में बातें चलतीं और चैक में मिर्जा की मंडी, गली में पहुंचते ही जो हमारी दौड़ लगती तो उनके निवास स्थान शाह जी की कोठी पहुंच कर ही पूरी होती। पुरानी हवेली जो कभी बेगम हजरतमहल जी की बारहदरी का हिस्सा होती थी, का दरवाजा ही इतना बड़ा होता था कि अकेले खोलने से न खुलता और सीधा जोर लगा उसे खोलते तो सामने आ जाता विशाल आंगन, जिसमें बाई तरफ मधुमालती की बेल, तो दूसरी तंरफ हरसिंगार का पेड़, सामने रोमन स्टाइल के लंबे ऊंचे खंबो वाला वरामदा और उसके अंदर नानाजी की बैठक, जहां उन्होंने कंई कालजयी उपन्यासों की रचना की है।

अंदर घर में पहुंचते ही हम अपनी नानी को जोर से ंआवाज लगाते - ‘बा! और हमारी नानी दौडी आतीं। सुबह का वक्त होता तो हमारे बड़े मामा, सुप्रसिद्ध रंगकर्मी, रेडियो तथा टेलिविजन नाटकों के निर्देशक जो अपनी फ्रेंच कट दाढ़ी के कारण हमें बचपन में अग्रेज लगते थे, हमारी बड़ी मामी, छोटे मामा डा. शरद नागर जी, मामी और हंमारे लिए सबसे बड़ा आकर्षण मामाओं के बच्चे  हमारे भाई-बहन, पारिजात, ऋचा, दीक्षा, प्रचेता, माशी, संचित बाबा सभी कमरों से निकल आंगन में आ जाते। मां अचला जी जहां अपने माता पिता भाई बहनों से गुजराती में बतियाने लगती।, बहीं हम सभी बच्चे नानाजी, दादाजी एंड कंपनी, अपनी मस्तियों में खो जाते। दोपहर होने का इंतजार करते, क्योंकि अपने लेखन कार्य से फ्री हो, दोपहर के खाने के बाद का समय होता था हमारा नाना जी और दादाजी से कहानी सुनने का, रोज एक नई कहानी।


लखनऊ के बचपन की घटनाएं आज भी शीशे की तरह साफ हैं। हमारे परिवार में ये परंपरा शुरू से थी कि बच्चों को ऐसा माहौल दिया जाए जिससे वो विचारवान बनें पर उनकी उंगली पकड़ आसानी से उपलब्ध न करा उन्हें प्रेरित किया जाए ताकि वो स्वयं इस काबिल बन सकें, कि जीवन में जो करना चाहें वो कर पाएं। हमें भी आदरणीय नाना जी .नागर जी ने ये प्रोसेस दिया। बाल्यकाल के शुरूआती दिनों में हमें कहानी सुनने का चस्का लगाया फिर उस जमाने में आने वाली बाल पत्रिकाएं, जैसे चंदामामा, नंदन, पराग आदि पढ़ने की आदत डाली और फि हम बड़े हुए, और हमारे छोटे भाई बहन यम जिद करते कि दादाजी और नानाजी कहानी सुनाएं तो वो उनसे कहते- भाई से जा कर सुनो। इस तरह से उन्होंने हमें सुनने, पढ़ने और सुनाने की प्रक्रिया से हमें अवगत कराया। दूसरे उनकी एक विशेष आदत थी।

जब भी हम उनके साथ किसी नाटक या कार्यक्रम में जाते तो वो रवींद्रालय या बंगाली क्लब या समारोह के किसी भी स्थान पर हमसे जाकर कहते -‘पूथल जाइ ने बैठो’ (पीछे जाकर बैठो) मुझे ये बात काफी अखरतीं बड़े होने पर मैंने उनसे इसका कारण जानना चाहा। मैंने उनसे पूछा -‘ नानाजी, सभी जने तो आगे की कुर्सियों पर, अपने साथ लाए लोगों को अपने पास बैठाते हैं पर आप हमें पीछे बैठने के लिए क्यों कहते हैं। उन्होंने जवाब दिया -क्योंकि बेटा जी हमने 50 वर्ष मेहनत कर ये आगे की कुर्सी कमाई है। पीछे से  शुरूआत कर के। इसलिए मान स्वरूप ये अब हमारी हैं, हर उसकी हैं जो स्वयं मेहनत और लगन से इसे कमाना चाहता है। मैं भी तुम्हें आगे वाली कुर्सी पर तुम्हारी स्वयं की मेहनत के सहारे आकर बैठा देखना चाहता हूं, अगर आगे बैठना  चाहते हो भविष्य में तो इसके लिए मेहनत करना शुरु कर दो। उन्हीं की प्रेरणा से मैंने उस कुर्सी और सम्मान का सपना देख तल्लीनता से रंगमंच पर काम शुरु किया और जब वर्ष 2000 में मेरी उत्तर प्रदेश सरकार ने मुझे संगीत नाटक अकादमी सम्मान दिया और मुझे आगे की पंक्ति में बैठाया तो मेरी यादों में सिर्फ मेरे नाना की कही बात थी जिसके कारण मैं खुद की पोजीशन हासिल कर पाया।

मैं बच्चों से कहना चाहूंगा कि उन्हें स्वावलंबी बनना ही चाहिए।
   

1 comment:

  1. मेरे ब्लॉग पर भी कृपा दृष्टि डालें....WWW.ankahepal.blogspot.com

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