डा. शेरजंग गर्ग
बालसुलम भाषा, छंद-लय
का अद्भुत रचाव और कसाव
80 के दशक की बात होगी। मैं
हिंदुस्तान टाइम्स प्रकाशन समूह के प्रशासनिक विभाग में कार्यरत था। तब एच।टी।
हाउस में हिंदी तथा अन्य भाषाओं के
बड़े-बड़े लेखक-कवि, अक्सर आते-जाते
दिख जाया करते थे। साप्ताहिक हिंदुस्तान, कादंबिनी
और नंदन जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं के संपादकगण और साहित्यकारों का मेला लगा रहता
था वहां। आदरणीय राही जी तो वहां थे ही और शेरजंग गर्ग जी भी शाम को यदा-कदा आते
रहते थे। आप सभी को शायद पता होगा कि दिल्ली के कनाॅटप्लेस क्षेत्र में दो जगहें
बड़ी मशहूर रही हैं, पहला टी हाउस और
दूसरा एच।टी। हाउस। टी हाउस के बारे में शेरजंगजी ने अद्भुत संस्मरण लिखा है और
बलदेव बंशी ने तो उस पर एक बेमिसाल बड़ी किताब ही संपादित कर दी है। बहरहाल, मैं कहने यह जा रहा था कि साहित्य जंगत
की इन दो बड़ी हस्तियों -राही जी और शेरजंग गर्ग को मैंने कविसम्मेलनों के अलावा
हिंदुस्तान टाइम्स के भवन में ही देखा।
उनके साहित्यिक अवदान से मैं परिचित था और
यह वह जमाना था जब साहित्यकार भी सेलिब्रिटीज हुआ करते थे। आज भी होते हैं
पर अब कुछ दूसरी तरह के होते हैं।
मेरी व्यक्तिगत साहित्यिक रुचि गीत, गजल,
बालकविता सहित गद्य की अनेक विधाओं में थी इसलिए राही जी और शेरजंगजी दोनों
मेरे प्रिय कवियों में से थे और अब भी है। पर यहां अपने लोभ का संवरण करते हुए विषयांतर
नहीं करूंगा और अपने केंद्रीय विषय-‘शेरजंग
गर्ग की बालकविताओ के रंग’ तक ही
अपने को सीमित रखूंगा।
देहरादून में जन्मे डा0 शेरजंग गर्ग की बालकविताओं के बारे में
मेरे जैसे अदना कद के पाठक को कुछ बोलते हुए संकोच भी हो रहा है, क्योंकि गर्गजी और राहीजी उन कवियों में
से है जिनकी बालकविताएं पढ़ते हुए हमने बालकविता की बारहखड़ी सीखी है। इस कथन को
आप मेरी “माडेस्टी” न
समझें बल्कि इसे यथोचित गंभीरता से लें। गर्गजी का जब मुझे फोन आया तो उन्होने
अन्य बातों के बीच यह भी कहा कि मैं पूरी निर्ममता से उनकी बालकविताओं का आकलन
करूं। अब मित्रों, निर्ममता तो
कसाइयों में होती है और चाटुकारिता चारणों-भाटों में। यदि ये वृत्ति की मजबूरी है
तो और बात है पर अभी ये तमोगुण मुझसे दूर हैं।
गर्गजी ने हिंदी बालकविता को न केवल आधार बल्कि एक
ऊंचा मयार दिया है। बालसुलम भाषा, छंद-लय
का रचाव और कसाव, और थोड़े शब्दों
में बड़ी बात बिना कोई उपदेश के बालकविता में कह देना कोई गर्ग जी से सीखे। हिंदी
बालसाहित्य में बच्चों के कार्यकलाप और उनके संसार की अनेक मनोहारी छवियां और
विविध रस-रंग आपको देखने को मिलेंगे पर गर्गजी की बालकविताओं, खासकर उनके शिशुगीतों में जो विशिष्टता
है, वह अन्यत्र दुर्लभ
है। अक्सर शिकायत की जाती है कि हिंदी बालकविताओं
में हास्य और विशेष रूप से व्यंग्य की गुंजाइश न के बराबर है पर गर्गजी की
बालकविताएं सिर्फ बच्चों को गुदगुदाती नहीं बल्कि बड़ों की सोच पर दस्तक भी देती
है और व्यंग्य की मीठी चुभन भी आपको वहां देखने को मिल जाती है। उदाहरण के लिए
उनकी यदि ‘पेड़ों पर उगते
पैसे’ बाल कविता को
लीजिए - ‘अनुभव होते
कैसे-कैसे/ जीवन चलता जैसे-तैसे/ सारे उल्लू चुगते पैसे/यदि पेडों पर उगते पैसे/जो
होता अमीर ही होता/फिर गरीब क्यों पत्थर ढोता/क्यों कोई किस्मत को रोता/जीवन नींद
चैन की सोता/ हर कोई
पैसा ही बोता/स्वप्न न आते ऐसे-वैसे/यदि पेड़ों पर उगते पैसे । पर
आप जानते हैं कि पैसा मनु’य से
बड़ा कभी नहीं हो सकता । गर्गजी की भी यही
मान्यता है- यदि होती पैसे की सत्ता/निर्मम होता पत्ता-पत्ता/हो कितना मनमोहक पैसा/लेकिन कब फल-फूलों जैसा/पैसा ताजी
हवा नहीं है/सब रोगों की दवा नहीं है/सचमुच नया रोग है पैसा/हम इसको अपनाते कैसे/यदि
पेडों पे उगते पैसे/जाहिर है कि यह बच्चों
के लिए बड़ी कविता है और बडों के लिए यह बचकानी कविता हो क्योकि उनकी अक्ल परं तो
इसका असर होने से रहा।
व्यंग्य की ही थोड़ी बहुत महक लिए गर्ग जी की एक और बालकविता है ‘तीनों बंदर महाधुरंधर’ । ये बंदर कौन हैं, ये बापू के ही बंदर हैं जो पहले आंख, मुंह और कान बंद किए रहते थे। पर अब वे
दुनिया की चालाकियां समझ गए हैं और इसलिए तीनों में से हर एक बंदर ने सोच लिया है
कि -‘दुष्टजनों से
सदा लड़ेगा/इस चश्मे से रोज पढेगा/..आया नया जमाना आया/नया तरीका सबको भाया/तीनों
बंदर बदल गए हैं/तीनों बंदर संभल गए हैं।’
खिड़की और
उल्लूमियां भी गर्गजी की बहुत ही मनोरंजक
बाल कविताएं हैं पर उनकी एक बहुत ही यादगार बाल कविता है ‘देश’। देशभक्ति के यांत्रिक नारे उछाले
बिना, बड़ी बात को
सरल-सहज “शब्दों में
बच्चों को किस तरह समझाया जा सकता है इसका अनुपम उदाहरण है ये कविता -इसकी उठान और
ढलान दोनों देखिए -
‘ग्राम नगर या कुछ लोगों का काम
नहीं होता है देश/ संसद, सड़कों आयोगों का नाम नहीं होता है देश/देश
नहीं होता है केवल सीमाओं से घिरा मकान/ देश नहीं होता है कोई सजी हुई ऊंची दूकान/देश नहीं क्लब
जिसमें बैठे करते रहें सदा हम मौज/ देश नहीं केवल बंदूकें, देश नहीं होता है फौज/ ....जहां प्रेम
के दीपक जलते वहीं हुआ करता है देश/जहां इरादे नहीं बदलते, वहीं हुआ करता है देश/ पहले हम खुद को पहचानें फिर पहचानें
अपना देश/ एक दमकता सत्य
बनेगा, नहीं रहेगा
सपना देश”।
गर्गजी के चुस्त-दुरुस्त और चुटीले शिशुगीतों की
चर्चा करूं इससे पहले मैं गर्गजी की एक और बालकविता का उल्लेख यहां करना चाहूंगा
जो बच्चों के लिए नए साल का “शुभसंदेश
लिए हुए है। गौर करें कि यहां मैंने “शुभसंदेश
की बात की है, “शुभ उपदेशकी
नहीं। नए साल की “शुरूआत “शुभ हो और वह भी इस बालकविता जैसी तो
किसका मन नहीं खिल उठेगा - ‘नए साल
में ताजे सुंदर फूल खिलेंगे / नए साल
में नए-पुराने मित्र मिलेंगे/ नए साल
में भैया-दीदी खूब पढ़ेंगे/कोई कितनी करे शरारत, नहीं लड़ेंगे/नए साल में रंग खुशी का चोखा होगा/नए साल में
हर त्योहार अनोखा होगा/स्वस्थ रहेगी प्यारी दादी नए साल में/गुडि़या की भी होगी शादी
नए साल में। अच्छे-अच्छे काम करेंगे नए साल में/सीधे सच्चे नहीं डरेंगे नए साल में@/भैया की उग आए दाढ़ी नए साल में/ छुक-छुक चले हमारी गाड़ी नए साल में/”
विध्वंसात्मक गतिविधयों से रचनात्मक गतिविधि की ओर
प्रेरित करने वाली गर्ग जी की यह बाल कविता भी मुझे बहुत प्रिय है -‘ईंट नहीं लड़ने की चीज/यह है कुछ गढ़ने
की चीज
यदि आपको लग रहा है कि ये कुछ बड़े फलक की बाल
कविताएं हैं तो अब आते हैं गर्गजी के शिशुगीतों पर। हालांकि जिन बालकविताओं का
जिक्र अभी तक हुआ है वे भी ”शिशुगीतों
में शामिल की जा सकती हैं क्योंकि वे दस-बारह पंक्तियों से अधिक की नहीं हैं। फिर
भी अच्छे उस्ताद के फन की जो खूबसूरती होती है वह गर्गजी की हर बाल कविता में
दिखाई देती है...... धर्मयुग, पराग
जैसी पत्रिकाओं में धूम मचाने वाले शिशुगीतों के रचनाकारों में गर्गजी प्रथम
पंक्ति में आते हैं- गाय बाला ”शिशुगीत
तो आप में से शायद बहुतों को याद होगा -कितनी भोली-प्यारी गाय@सब पशुओं से न्यारी गाय/सारा दूध हमें
दे देती/आओं इसे पिला दें चाय/अब यहां जो गाय को चाय पिलाने वाली कल्पना है वह
अपने आप में मौलिक और अद्भुत है। आप जानते हैं कि सामान्यतः गाय अपने ही उत्पादन
जैसे दूध, दही, घी आदि से बनी हुई चीजों को देखकर मुंह
फेर लेती है। लेकिन गाय यदि आधुनिक युग की हुई तो वह चाय को अवश्य ग्रहण कर लेगी।
और यदि बिस्कुट साथ होंगे तो आप भी परहेज नहीं करेंगे। अब खाने-पीने की बात चली है
तो हलवा खाने वाली अम्मा का भी शिशुगीत सुन लिया जाए तो क्या बुरा है- ‘हलवा खाने वाली अम्मां/लोरी गाने वाली
अम्मां/मुझे सुनाती रोज कहानी/नानी की है मित्र पुरानी्/पापा की है आधी अम्मा/मेरी
पूरी दादी अम्मां/
गर्गजी के शिशुगीतों को पढ़ते-सुनते समय लगता है
जैसे वह बातचीत के लहजे में ही बहुत कुछ कह डालते हैंं उनके पास न शब्दों की कमी
है और न ”शिल्प की। एक
अद्भुत ध्वन्यात्मकता लिए उनका ये शिशुगीत देखिए- ‘फुदक-फुदक कर नाची चिडि़या/चहल-पहल की चाची चिडि़या/लाई खबर
सुबह की चिडि़या/ बात-बात
में चहकी चिडि़या/अब आप जरा गौरैया,जो
दुर्भाग्य से महानगरों में अब कहीं नहीं दीखती,
पर एक नजर डालें, तो ये
पूरा शिशुगीत आपके सामने जीवंत हो उठेगा। कितने कवि हैं जो ‘चहल-चहल की चाची चिडि़या जैसा विरल
प्रयोग कर सकेंगे।
बिल्ली-चूहे पर अनगिनत बाल कविताएं लिखी गई हैं, हिंदी में ही नहीं, अन्य देसी-विदेसी भाषाओं में भी पर कुछ शिशुगीत ऐसे हैं जो अपनी अलग ही छाप
छोड़ते हैं। गर्गजी का यह शिशुगीत
बिल्ली-चूहे की पारंपरिक दुशमनी से परे उनकी दोस्ती की राह खोलता है -‘बिल्ली-चूहा, चूहा-बिल्ली/साथ-साथ
जब पहुंचे दिल्ली/घूमे लालकिले तक पहले/फिर इंडिया गेट पर टहले/घूमा करते बने-ठने
से/इसी तरह वे दोस्त बने से/ चूहे
के कागज कुतरने की फितरत पर राही जी की भी एक बहुत ही प्यारी बालकविता है -जिसकी दो चार पंक्तियां संदर्भवश यहां देख
लीजिए - ‘चढ़ा मेज
कुर्सी पर मेरी/चीजें कुतर लगादी ढेरी/कई पुस्तकें रद्दी कर दीं/कई कापियां भददी
करदीं/
अब देखे> कि ये चूहे तो कागज रद्दी तक ही सीमित
रहे, पर आप इसे
विनोद में लें तो आधुनिक कंप्यूटराइज्ड डिवाइस से संपन्न चूहे तो देश की अर्थव्यवस्था
को ही कुतर कर सफा कर गए।
पारंपरिक बालकहानियों में राजा-रानी भरे पडे हैं पर
गर्गजी के शिशुगीत में राजा-रानी थोड़ी अलग धज के हैं-‘राम नगर से आए राजा/श्याम नगर से रानी/ रानी रोटी सेंका करती/राजा भरते पानी।
इन राजा रानियों का जबसे प्रीवी पर्स छिना तब से उनका यही हाल हो चुका है।
गुड्डे-गुडि़यों पर भी अनेक बालकवियों ने कलम चलाई है पर गर्गजी की गुडिया तो
अनोखी गुडि़या है जो बहुभाषी है और पीढि़या भी गुजर जाएं पर वह बुढि़या नहीं होती।
देखिए -‘गुडि़या है आफत
की पुड़िया/बोले हिंदी, कन्नड़, उडि़या/ नानी के संग भी खेली थी/किंतु
अभी तक हुई न बुढि़या।’
ये तो केवल चंद उदाहरण है। गर्गजी के अनेक बालकविता
संग्रहों, यथा गीतों के
रसगुल्ले, गीतों के
इंद्रधुनष, नटखट गीत, भालू की हड़ताल, अक्षर गीत, मात्राओं के गीत, तीनों बंदर महा धुरंधर, शरारत का मौसम, यदि पेड़ों पर उगते पैसे, की सभी रचनाओं पर बात की जाए तो एक पूरी
किताब बन जाए।
लेकिन एक बात तो तय है कि ऐसी बालकविताओं का आनंद
लेने के लिए आपको शिशुमन होना पड़ेगा। क्योंकि बालसाहित्य का सृजन-पठन-पाठन-और श्रवण आरोहण की न होकर
अवरोहण की प्रक्रिया है। शिशुओं को आप हर परिवार में देख सकते हैं पर शिशुमन वाले
सभी जगह नहीं होते। सूखी मिटटी पर पानी डालने का काम साहित्यकार, कलाकार करते हैं।
ऐसी संगोष्ठियों के बहाने आप बालसाहित्य को
प्रोत्साहन देकर बालसाहित्यकारों का सम्मान कर रहे हैं, यह हम
सबके लिए गौरव की बात है। आपने मुझे गर्ग साहब की बालकविताओं पर अपने थोड़े-से
विचार रखने का अवसर दिया इसके लिए आप सभी का हार्दिक धन्यवाद, आभार!
रमेश तैलंग
(+91) 9211688748
(दिल्ली विश्वविद्यालय परिसर में 15-नवंबर, 2014 को आयोजित“शेरजंग गर्ग की संपूर्ण बाल कविताएं” (प्रकाशक-कितब घर, नई दिल्ली) के लोकार्पण के अवसर पर पढ़ा
गया आलेख)
डा0 शेरजंग गर्ग की बालकविताओं के रंग में उदाहरण स्वरुप जितनी भी रचनाओं के अंश पढ़ने को मिले ....मन को प्रभावित करते हैं ....अभिभूत हूँ आलेख पढ़कर...आदरणीय रमेश तैलंग जी को बहुत- बहुत बधाई ....
ReplyDeleteवरिष्ठ साहित्यकार डाक्टर शेरजंग गर्ग जी का साहित्य संसार ज्ञानवर्धक होने के साथ -साथ अत्यंत रोचक है ।बाल साहित्यकार रमेश तैलंग जी हार्दिक बधाई
ReplyDeleteशेर जंग गर्ग जी की बाल रचनाएँ बड़े छोटों दोनों में ताज़गी भरती हैं ।ये कविताएँ मेरी आत्मीय हैं ।मैं जब भी उनसे मिलने जाती मुझे उनकी हँसी में बाल सहजता झलकती । रमेश तैलंग भाई आपका आलेख उनकी शक्सियत को विस्तार दे रही है । बधाई सुन्दर आलेख के लिये । शेरजंग जी को नमन
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