WORLD OF CHILDREN'S LITERATURE ART AND CULTURE
Monday, April 20, 2020
Friday, April 17, 2020
डॉ राष्ट्रबंधु हिंदी बालसाहित्य के प्रमुख कर्णधारों में एक रहे हैं. हमारा सौभाग्य है की हमें राष्ट्रबंधु का लम्बा सानिध्य और स्नेह मिला. बनारस में मेरी उनसे अंतिम भेंट हुई और उस समय वे मुझे सपत्नीक अमृतसर चलने के लिए आग्रह करते रहे पर विधि का विधान कुछ और ही था. आज उनकी चर्चित बाल कहानी फटी शर्ट पर बनी यह फिल्म you tube पर नज़र आई तो मन किया आप सभी से इसे साझा कर लूं. डॉ राष्ट्रबंधु के स्मृति को सादर नमन के साथ ....
Thursday, April 16, 2020
कहानी विद कनुप्रिया RJ कनुप्रिया का लोकप्रिय youtube चैनल है. आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि कनुप्रिया का मधुर स्वर आपके woclac ग्रुप की कुछ रचनाओं में भी शीघ्र सुनाई देगा. बस थोड़ी सी प्रतीक्षा कीजिये. और फिलहाल कनुप्रिया के चैनल से साभार साझा किये गए इस विडियो का आनंद लीजिये /सब्सक्राइब कीजिये और उन्हें फीडबैक दीजिये....
Wednesday, April 15, 2020
बाल कहानी - पापा मान जाइए प्लीज!
05/09/1959 को कानपुर उत्तर प्रदेश में जन्मे जाने-माने पत्रकार, नेशनल दुनिया के पूर्व सम्पादक और चार चर्चित उपन्यासों ( मुन्नी मोबाइल, तीसरी ताली, देश भीतर देश, और सिर्फ तितली ) के प्रणेता प्रदीप सौरभ का नाम आज हिंदी साहित्य तथा पत्रकारिता जगत में सुविदित है. टी.वी पर प्रसारित बहस-मुबाहसों में उनकी बेवाक टिप्पणियां चर्चा का विषय रही हैं. लेकिन बहुत कम लोगों को पता है कि प्रदीप सौरभ ने लीक से हटकर बच्चों की कहानियां, कवितायें भी लिखीं हैं और हिंदुस्तान टाइम्स प्रकाशन समूह की लोकप्रिय पत्रिका साप्ताहिक हिंदुस्तान में उनके द्वारा सम्पादित बाल-स्तम्भ "भानुमती का पिटारा" अपने समय में काफी लोकप्रिय रहा है. आज यहाँ प्रस्तुत है उनकी एक प्रेरक बाल कहानी -
प्रदीप सौरभ
पापा मान जाइए, प्लीज!
- प्रदीप सौरभ
इधर कई दिनों से पापा परेशान दिखाई देते हैं।
रात को ठीक से सो भी नहीं पाते। रात-रात भर खों-खों खांसते रहते हैं। दरअसल उन्हें
सांस फूलने की पुरानी बीमारी है। पिछले कई सालों से वह इस बीमारी से परेशान रहे। क्या-क्या
इलाज नहीं हुआ! बड़े से बड़े डॉक्टर को दिखाया गया। सभी की एक राय थी, ‘‘डॉ.
व्यास, आप सिगरेट छोड़ देते तो
जरूर ठीक हो जाते!’’
लेकिन पापा थे कि सिगरेट छोड़ ही नहीं पाते थे। खत्म होती सिगरेट से ही दूसरी सिगरेट
जलाने की उनकी आदत थी। ऐसा नहीं है कि उन्होंने सिगरेट छोड़ने की कोशिश ही न की हो!
खूब की! पर छोड़ न सके। ताज्जुब की बात तो यह थी कि वह खुद भी बहुत बड़े डॉक्टर थे। वह
सिगरेट पीने के नुकसान-फायदे से अच्छी तरह वाकिफ थे। कई बार मरीजों को सिगरेट से होने
वाले नुकसान के बारे में बताते हुए भी मैंने उन्हें देखा है। पर पापा तो पापा, सिगरेट भला कैसे छूट सकती है!
पापा को तड़फते देखकर मुझे और बहन गुड्डी को बहुत-बहुत
दुख होता। कई-कई बार हमने सोचा भी कि पापा से सिगरेट छोड़ने के लिए कहें। पर कभी भी
हमारी हिम्मत न हुई। एक बार तो मैं कहते-कहते रह गया- जुबान तालू से लग गई। अक्षर मुंह
से फूटे ही नहीं।
मुझे खूब याद है, उस सुबह, पापा ड्राइंग-रूम में
बैठे अखबार पढ़ रहे थे। हम दोनों स्कूल जाने की तैयारी कर रहे थे। नाश्ता वगैरह करके
जब हम दोनों स्कूल जाने के लिए निकले, तब गुड्डी ने पापा को
एक पत्र दिया और कहा, ‘‘मेरे अच्छे-अच्छे पापा, इसे तब ही खोलिएगा, जब हम घर पर न हों।’’ पापा ने अखबार पढ़ते हुए
स्वीकृति में सिर हिला दिया। और हम लोग किताबें-कापियां संभालते हुए स्कूल गए।
शाम को जब हम दोनों स्कूल से लौटे, तब मम्मी घर पर नहीं थी। पापा कुर्सी पर अधलेटे सिसक रहे थे। ऐसा
लग रहा था कि वे काफी देर से रो रहे हों। उनके सामने मेज पर रखी हुई कई पैकेट सिगरेट
तुड़ी-मुड़ी पड़ी थीं। यह सारा दृश्य देखकर गुड्डी की आंखों में आंसू डबडबा आए। मैं एकदम
चुप! क्या हुआ? यह सब क्या हो रहा है, मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ा। एक क्षण गुड्डी दरवाजे पर खड़ी कुछ सोचती
रही। पर अगले ही क्षण वह बस्ता एक तरफ फेंकर पापा से लिपट गई। सिसक-सिसककर कहने लगी, ‘‘पापा, मुझे माफ कीजिए। मेरे ही कारण आपको दुख पहुंचा है न!’’
‘‘नहीं बेटी, नहीं।’’
पापा गुड्डी के बालों पर प्यार से हाथ फेरते हुए करुण आवाज में बोले, ‘‘अरे
पगली! यह तू क्या कह रही है? जिस निगोड़ी सिगरेट को
मैं चाहकर नहीं छोड़ पाया, उसे तूने एक क्षण में
छुड़ा दिया। सच! तू तो मुझसे बड़ी डॉक्टर है। अब मैं कभी भी सिगरेट नहीं पियूंगा।’’
उस समय पापा बहुत खुश दिख रहे थे। गुड़डी भी अपनी
सफलता से मन-ही-मन बहुत खुश थी। पर, मैं परेशान था। मुझे यह
नहीं समझ आ रहा था कि आखिर गुड्डी ने पत्र में ऐसा क्या लिख दिया था कि जिसे पढकर पापा
ने सदा-सदा के लिए सिगरेट छोड़ दी थी। मैं कमरे में बैठा अभी यही उधेड़-बुन कर रहा था
कि गुड्डी आ गई। मैंने पत्र के बारे में जब पूछा, तब वह मुस्कराई, ‘‘एक
मिनट ठहरो। कहकर वह ड्राइंग रूम की ओर चली गई। ड्राइंग रूम में जाकर वह कुछ ढूंढने
लगी। थोड़ी देर इधर-उधर खोजने के बाद बाद एस्ट्रे के नीचे दबा हुआ वह पत्र उसे दिख गया।
उसे लेकर वह मेरे पास वापस आ गई। उसने पत्र मेरे हाथों में रख दिया। अक्षरों पर मेरी
आंखें दौड़ने लगीं..........’’
मेरे प्यारे पापा,
आपको तो मालूम ही है कि हम सब आपको कितना चाहते
हैं। इधर आपके कमजोर बदन को देखकर हम सब बहुत दुखी हैं। मैं सदैव ईश्वर से आपके अच्छे
स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना करती रहती हूं। आपने शायद यह कभी न सोचा होगा कि यदि आपको
कुछ हो गया, तो उसके बाद हमारा क्या
होगा? आप मुझे बहुत चाहते हैं-
उस दिन कह रहे थे कि आप मुझे भी डॉक्टर बनाएंगे। भैया इंजीनियर बनेगा। आप मेरी एक रिक्वेस्ट
मान जाएं, प्लीज पापा! बस, आप सिगरेट पीना छोड़ दें! तब हम भाई-बहन भी खूब पढ़ेंगे, डॉक्टर बनेंगे, इंजीनियर बनेंगे। आपसे
मैं कहे देती हूं कि यदि आज से आपने सिगरेट पीना नहीं छोड़ा, तो आज से मेरी आप से कट्टी है। हां, आपने मेरी बात नहीं मानी, तो आज से मैं खाना भी
नहीं खाऊंगी।
आपकी
प्यारी बेटी
गुड्डी
कब मेरी आंखों में आंसू आ गए, मुझे पता ही नहीं चला। मैं बड़ी मुश्किल से बोल पाया, ‘‘शाबाश
मेरी अच्छी दीदी....।’’
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Tuesday, April 14, 2020
Monday, April 13, 2020
खरगोश मर्जेरी विलियम्स बियांको
image credit : google wikipedia
विश्व बाल साहित्य में आज पढ़िए ब्रिटिश /अमेरिकन लेखिका
मर्जेरी विलियम्स बियांको की कहानी - खरगोश
हिंदी रूपांतर - देवेन्द्र कुमार + रमेश तैलंग
ऐसे में खिलौना खरगोश खुद को दूसरे सब खिलौनों से बढ़-चढ कर समझने लगा था. यह बात भला दूसरे खिलौनों को कैसे अच्छी लग सकती थी. दूसरे खिलौने खरगोश को घमंडी समझने लगे थे, हालाँकि बात ऐसी नहीं थी. खिलौनों में सबसे बूढा था एक घोडा. वह काफी समझदार था. एक दिन खरगोश और घोडा आपस में बातें कर रहे थे तो घोड़े ने कहा-“तुम देखने में सुंदर हो, जिम तुम्हें पसंद करता है, पर फिर भी सच यह है कि तुम असली खरगोश नहीं हो”
सुनकर खरगोश को धक्का लगा. उसने कहा –“ तुम यह कैसे कह सकते हो कि मैं असली खरगोश नहीं है?”
घोड़े ने कहा-“तुम्हे जल्दी ही पता चल जाएगा. जब जिम तुम्हें बाग में लेकर जाएगा तो असली खरगोश तुम्हे दिखाई दे जाएंगे.” उस रात खिलौना खरगोश को नींद न आई. वह सोचता रहा – आखिर कैसे होते हैं असली खरगोश.”
वसंत का मौसम आ गया. अब जिम खिलौना खरगोश को लेकर बाग में चला जाता. फिर उसे कहीं रखकर खेलने लगता. एक दिन की बात जब जिम बाग में खेल रहा था तो माँ ने आवाज लगाई . जिम घर में दौड गया. हडबडी में वह खिलौना खरगोश को साथ ले जाना भूल गया. शाम ढलने लगी. बाग में खेलते सभी बच्चे वहाँ से चले गए. हवा ठंडी हो गई, फिर ओस गिरने लगी. खिलौना खरगोश समझ न पाया कि अब क्या होगा. तभी घर का नौकर वहाँ आया. उसने खिलौना खरगोश को उठाया और जिम के पास ले गया.” तुम अपने खिलौने इधर-उधर भूल जाते हो. लो संभालो इसे.”
जिम ने खिलौना खरगोश को प्यार से गोदी में रख लिया. बोला-“यह खिलौना नहीं, असली खरगोश है. आज से मैं इसे मखमली कहा करूंगा.” यह बात खरगोश को अच्छी लगी. वह सोच रहा था-“अब घोडा यह कैसे कहेगा कि मैं असली खरगोश नहीं हूँ.”
पर एक दिन मखमली की मुठभेड़ असली खरगोश से हो ही गई. जिम मखमली को बाग में ले गया. फिर एक झाड़ी के पास जाकर खेलने लगा. तभी दो खरगोश उछलते हुए वहाँ आ गए. वे रुक कर मखमली खरगोश को घूरने लगे. वह सोच रहा था –“ ये दोनों मुझसे अलग हैं, जरूर ये चाबी से चलने वाले खिलौने होंगे, मेरी तरह असली खरगोश नहीं हैं.”
तभी उनमें से एक खरगोश ने मखमली से कहा –“ आओ हमारे साथ खेलो.”
मखमली जानता था कि वह नहीं चल सकता. उसने बात बनाई –“मेरा मन खेलने का नहीं है.”
दोनों खरगोश बोले-“क्या तुम हमारी तरह अपने पिछले पैरों पर उछल सकते हो?”
यह सुन कर मखमली घबरा गया. वह क्या कहता, उसके पिछले पैर तो थे ही नहीं. बस, आगे के दो पैर थे, पिछला भाग चपटा था. पर कुछ तो कहना ही था. उसने कह दिया-“ मैं खेलकर थक गया हूँ. इसलिए आराम कर रहा हूँ.” वह सोच रहा था, इन खरगोशों के तो चारों पैर हैं और मेरे केवल दो. कहीं इन्हें यह बात पता न चल जाए.”
पर वे दोनों खरगोश बहुत चतुर थे. वे जान गए कि बात क्या है, एक ने दूसरे से कहा –“अरे देखो, इस खिलौना खरगोश के तो पिछले पैर ही नहीं है. यह हमारी तरह असली खरगोश नहीं है.”
खिलौना खरगोश का मन दुखी हो गया. वह सोच रहा था-“जिम तो मुझे असली खरगोश कहता है, तब फिर मैं इन खरगोशों की तरह उछल-कूद क्यों नहीं कर सकता. और मेरे पिछले पैर भी नहीं हैं. क्या मैं इन खरगोशों जैसा नहीं बन सकता?” पर फिर भी मखमली ने कह ही दिया-“कौन कहता है, मैं असली खरगोश नहीं हूँ. मेरे दोस्त जिम से पूछो.” तभी जिम वहाँ चला आया. उसे देखते ही दोनों खरगोश वहाँ से छू मंतर हो गए. जिम ने मखमली को उठाया और घर में चला आया. मखमली सोच रहा था- “काश मैं भी उन खरगोशों की तरह उछल सकता.” वह बहुत दुखी था.
कई सप्ताह बीत गए. जिम मखमली को लगातार अपने साथ रखता. उससे खेलता, रात को अपने बिस्तर में साथ सुलाता. इस तरह बार-बार छूने और रगड खाने से मखमली के रोएं झड़ने लगे. चमकदार खोल पर जगह-जगह धब्बे उभर आये. जो देखता वही कह उठता-“यह खिलौना खरगोश पहले जितना सुंदर नहीं रहा.” यह सुनकर मखमली सोचता-कहीं ऐसा तो नहीं जिम मेरे बदले किसी और के साथ खेलने लगे. उसने घोड़े से पूछा तो वह बोला –“जैसे मनुष्य बूढ़े होते हैं. वैसे ही खिलौने भी पुराने हो जाते हैं.”
“फिर?”
“फिर क्या? पुराने खिलौनों को कहीं फेंक दिया जाता है, या उन्हें रखकर भूल जाते हैं.” घोड़े ने कहा. सुनकर मखमली बुरी तरह घबरा गया. तब धोडे ने उसे समझाया –“परेशान क्यों होते हो. ऐसा तो सबके साथ होता है?”
और फिर एक और बुरी बात हो गई -जिम बीमार हो गया. उसे तेज बुखार चढ़ता, वह बेहोशी में बडबड़ाने लगता, पर उस समय भी मखमली उसके पास ही रहता. घरवालों ने कई बार मखमली को जिम के बिस्तर से उठाकर अलमारी में रख दिया. पर जिम बार-बार मखमली को लेने की जिद करता. मखमली दुखी था कि जिम इतना बीमार था. पर यह देखकर अच्छा भी लगता था कि जिम उसे अब भी अपने पास रखता था. सोचता – “न जाने मेरा दोस्त कब ठीक होगा और मुझे लेकर बाग में जाएगा. तब मैं रंगबिरंगे फूल और तितलियाँ देख सकूंगा.”
कुछ दिन बाद जिम का बुखार उतर गया. वह स्वस्थ होने लगा. अब जिम की माँ उसे कुर्सी पर खिड़की के सामने धूप में बैठा देती. तब वह मखमली को अपनी गोद में रखे खिड़की से बाहर देखता रहता. जिम बाग में जाकर घूमना चाहता था, पर अभी वह कमजोर था. इसलिए उसके बाहर जाने की मनाही थी.
फिर घर में सफर की तैयारियां होने लगीं. डॉक्टर ने जिम को समुद्र तट पर ले जाने की सलाह दी थी. पूरे घर में भागदौड मची थी. सामान बाँधा जा रहा था. मखमली भी खुश था कि उसे भी समुद्र देखने का मौका मिलेगा. उसने आज तक समुद्र नहीं देखा था.
तभी डॉक्टर कमरे में आया.उसने जिम की जांच की. तभी डॉक्टर की नजर मखमली पर टिक गई. उसने कहा-“अब इस खिलौना खरगोश को जिम से दूर रखा जाए. हो सकता है इसमें कीटाणु हों. इसे साथ में रखने से जिम फिर से बीमार हो सकता है.”
डॉक्टर की बात सुनते ही मखमली का सिर चकरा गया. वह कुछ समझ न पाया. तभी नौकर ने उसे उठाकर एक बोरी में डाल दिया. उसमे और भी कई पुराने खिलौने थे. मखमली ने जिम के ओर देखा, पर जिम तो आँखें बंद किए बिस्तर पर लेता था. नौकर बोरे को उठाकर बाग में ले गया. वहाँ उसने माली से कहा कि वह इन पुराने, गंदे खिलौनों को जला दे, क्योंकि इनके घर में रहने से जिम फिर से बीमार हो सकता है.
माली उस समय सफाई के काम में लगा था. उसने कहा –“बोरे को एक तरफ रख दो. मैं काम पूरा करके पुराने खिलौनों को जला दूंगा.”
घर में जिम के पास एक नया खिलौना आ गया था. यह भी एक खरगोश था-एकदम नया चमकीला पर वह मखमली तो नहीं था. बेचारा मखमली तो बाग में जलाए जाने का इन्तजार कर रहा था.
माली अपना काम पूरा करके अपनी झोंपडी की तरफ चला गया. न जाने क्यों उसे बोरे में रखे पुराने खिलौनों को जलाने का ध्यान नहीं आया. अब बाग में सन्नाटा था. फिर अँधेरा छा गया, ठंडी हवा बहने लगी. मखमली को ठण्ड लग रही थी. बोरे का मुंह बंधा नहीं था इसलिए वह बाहर झाँकने लगा. तभी मखमली ने देखा – कुछ दूर पर एक फूल अँधेरे में चमक उठा. उसकी पंखुडियां फ़ैल गईं और फिर उनके बीच एक नन्ही सी लड़की दिखाई दी.
वह एक परी थी. फूल से निकलकर परी बोरे के पास आ गई. उसने मखमली को हाथ में उठा लिया. मीठी आवाज में बोली –“तुम मुझे नहीं जानते पर मैं जानती हूँ तुम्हें. मैं उन खिलौनों का ध्यान रखती हूँ जिन्हें बच्चे प्यार करते हैं. जब वे खिलौने पुराने होने पर फेंक दिए जाते हैं तो मैं उन्हें ले जाती हूँ और......”
“और ......” मखमली ने पूछा. तभी उसे लगा जैसे उसका बदन हिल रहा हो. एकाएक वह उछला और जमीन पर टिक गया, फिर इधर से उधर दौड़ने लगा. उसके कानों में आवाज आई.
“और फिर मैं उन्हें असली बना देती हूँ. जैसे तुम अब खिलौना नहीं असली खरगोश बन गए हो.”
मखमली ने देखा परी कहीं नहीं थी. हाँ, सब तरफ कई खरगोश एकाएक प्रकट हो गए थे, जो उछल रहे थे, दौड रहे थे. उनमे से एक खरगोश मखमली के पास आकर बोला –“क्या तुम हमारे साथ खेलोगे?”
“हाँ, मैं खेलूंगा.” मखमली ने कहा और दूसरे खरगोशों के साथ दौड़ने लगा.
हवा में मीठी हंसी गूँज रही थी.
दो सखियाँ : नासिरा शर्मा
नासिरा शर्मा
अनेक शीर्ष पुरस्कारों से सम्मानित, वरिष्ठ कथालेखिका नासिरा शर्मा ने हिंदी साहित्य जगत को अनेक महत्वपूर्ण कृतियाँ दी हैं यथा - ठीकरे की मंगनी,पारिजात, मेरी प्रिय कहानियां, अजनबी जजीरा, पत्थर गली तथा औरत के लिए औरत. इन कृतियों के अलावा नासिरा जी ने बच्चों के लिए भी अनेक रोचक कहानियां लिखी हैं. उनके अनेक कहानियां बच्चों की श्रेष्ठ पत्रिकाओं जैसे नंदन,चकमक, में प्रकाशित होती रही है
आज प्रस्तुत है नासिरा जी की एक नई बाल कहानी-
दो सखियाँ
नासिरा शर्मा
गर्मी का मौसम था। पेड़ों
का साया भी जानवरों को भा नहीं रहा था। आसपास
के ताल सूख गए थे। प्यास
लगने पर वह जंगल से बाहर बहने वाली नदी पर पानी पीने
जाते थे। ऐसे मौसम में
जंगल में रहने वाली हिरणी की तबियत ख़राब हो गई। दिन भर
झाड़ी के पास पड़ी हाँफती
रहती। जहाँ घने पेड़ की छाया थी। उसकी चिन्ता अपने छौने
को लेकर थी। जो अभी पैदा
हुआ था और ख़ुद से घास नहीं चर सकता था। दुश्मन के
आने पर वह छलाँगे मार दौड़
नहीं सकता था। उसकी टाँगे अभी नर्म और मुलायम थीं !
हिरणी को याद आया कि उसके
बचपन की सखी कुछ दूर पर कटीली झाड़ियों
के उस पार रहती है। जब तक
वह बीमार है। उसके छौने की देखभाल वह कर लेगी। ऐसा
सोच कर वह छौने को ले धीरे
धीरे चलती हुई झाड़ियों के पास पहुँची और लगी सखी को
आवाज़ देने। जल्द ही थक गई
और सुस्ताने के लिए वहीं ज़मीन पर बैठ इन्तज़ार करने
लगी। छौना आज पहली बार
बाहर निकला था। उसको सब कुछ नया नया लग रहा था।
माँ प्यार से उसका बदन चाट
रही थी। तभी झाड़ियों के पीछे से हिरणी की सखी ‘आहू’
आ
गई और पुरानी सखी को घर
आया देख खुश हो गई।
”कैसी हो गज़ाल ?“ आहू ने पूछा।
”बहुत बीमार ! गर्मी तो देख रही हो कैसी बला की पड़ रही है।
जाने बारिश कब आयेगी
?“
गज़ाल ने जवाब दिया।
”बादल आते हैं और चले जाते हैं।“ आहू बोली।
”कुछ दिनों के लिए अगर तुम मेरे छौने को अपने पास रख लेतीं
तो मैं कुछ दिन चैन से
सो सकती हूँ, बदन की थकान उतार आराम कर सकती हूँ।“
”ज़रूर, ज़रूर गज़ाल !
तुम बेफिक्र रहो।“
आहू ने छौने को प्यार से चाटा। यह देख गज़ाल
ने इत्तमिनान की साँस भरी
और धीरे धीरे अपनी झाड़ की तरफ लौट पड़ी। उसका मन
सखी के इस बर्ताव से खुश
था !
कुछ दिन गुज़र गए !
बारिश की छीटों ने मौसम की
आग बुझा दी।
छोटे छोटे गड्ढे पानी से
भर उठे। पेड़ों की पत्तियाँ नहा कर चमक उठीं। गज़ाल का जी
संभल गया ! उसे अपने छौने
की याद आई !
ग़ज़ाल छौने की याद मन में
बसाए झाड़ियों के पास पहुँची और बेचैन हो पुकार उठी -
”आहू ... आहू !“
वह जल्द से जल्द छौने को
देखना चाहती थी। अब वह बड़ा हो गया होगा। उसके पैर लम्बे
और मज़बूत हो गए होंगे।
उसने चरना सीख लिया होगा। मुझे देखते ही वह कुलाचें भर
मुझ से लिपट जायेगा।
”कैसे आना हुआ गज़ाल“, आहू ने आकर सूखे स्वर में पूछा।
”अपने छौने को लेने आई हूँ।“ गज़ाल ने सखी की ओर प्यार से देखा।
”तुम्हारा छौना, यहाँ तो नहीं आया !“
कह कर आहू लापरवाही से वापस जाने लगी।
”अरे भूल गईं ? मैं ख़ुद लेकर आई थी। गर्मी से मैं बीमार पड़ गई थी सो कुछ दिन तुम्हारे
पास छोड़ गई थी, याद आया ?“ ग़ज़ाल सखी की
शरात जान हँस पड़ी।
”तुम्हें ग़लतफहमी हुई है। मुझे तो याद नहीं।“ इतना कह आहू ने पैर से ज़मीन पर लकीरें
खींची तभी एक सुन्दर सा
छौना उससे लिपट कर खड़ा हो गया। ग़ज़ाल ने उसे फौरन ही
पहचान लिया कि यह उसी के
जिगर का टुकड़ा है। उसकी आँखें भर आईं। वह छौने को
चाटने आगे बढ़ी तभी आहू ने
छौने को अन्दर जाने को कहा और झिड़क कर बोली।
”बीमारी ने तुम्हारी मत मारी है। गर्मी दिमाग़ पर चढ़ गई है जो
मेरे छौने को अपना छौना
बता रही हो। जाओ, यहाँ से फिर कभी इधर मत आना !“ आहू ने गुस्से में खुर पटके !
”कैसी बातें कर रही हो सखी !“ ग़ज़ाल ने दुख भरे स्वर में कहा और बेहाल सी वहीं बैठ
गई। जाती भी कहाँ ? बच्चा लेने आई थी लेकर जायेगी। इसलिए थोड़ी थोड़ी देर बाद
पुकार उठती सखी ! मेरे
छौने को मुझे लौटा दो। सखी मेरे साथ ऐसा मज़ाक मत करो, मैं
बेमौत मर जाऊँगी।
अन्दर पहुँच कर ‘आहू’
ने छौने को प्यार से चाटना शुरू कर दिया ! छौना भी दुलार से
अपना मुँह और बदन आहू के
बदन से रगड़ने लगा।
”तू मेरी आँखों का तारा है। तुझे मैं कैसे लौटा सकती हूँ ? तेरे बिना मैं जी नहीं पाऊँगी।
तू मुझे जब माँ पुकारता है
तो मैं झूम झूम उठती हूँं। इस खुशी को गज़ाल स्वार्थी क्या
जानें ? ज़रा सी तबियत बिगड़ी तो अपनी औलाद दूसरे को दे डाली। अरे, मैंने कष्ट
उठाया। रात रात भर जाग कर
छौने की देखभाल की है। उसकी परवरिश मैंने की है। उस
पर मेरा सिर्फ मेरा अधिकार
है।“
आहू ने मन ही मन कहा।
”जो ग़ज़ाल ने शोर मचाया। पंचायत बुलाई तो ?“ शंका उभरी !
”उसकी बात पर कौन य़कीन करेगा ? पैदा होने के दो दिन बाद तो वह छौने को मुझे दे
गई थी।“ इतना सोच आहू ने आँखें बन्द की और गहरी नींद में डूब गई !
उधर गज़ाल की आँखों से नींद
रूठ चुकी थी। न चाहने के बावजूद उसकी आँखों से आँसू
गिर रहे थे। उसे अपनी गलती
का अहसास हो रहा था कि क्यों उसने अपने छौने को अपने
से अलग कर सखी को दे दिया।
उसकी सुन्दरता देख,
उसकी नियत बदल गई। अब वह
कहाँ जाए, किस से न्याय माँगे। इसी सोच विचार में सुबह हो गई।
झाड़ियों के पीछे से छौनों
का झुँड उछलता कूदता बाहर निकला। ग़ज़ाल ने
बेताब हो छौने को देखा और
पुकार उठी। तभी गुस्से से भरी आहू पहुँच गई और चीख कर
बोली।
”तुम फिर आ गई ?“
”मैं गई कहाँ थी ? मुझे मेरा छौना चाहिए। मैं उसे लेकर ही यहाँ से जाऊँगी। तुम मेरे साथ
धोखा नहीं कर सकती हो।“ गज़ाल के तेवर पर बल पड़ गए।
”तो क्या कर लोगी ? कोई सबूत है तुम्हारे पास कि यह छौना तुम्हारा है ?“ आहू चीखी।
”हाँ ! इसको मैंने जन्म दिया है। जन्म के समय मेरी चीखों को
सुन कर दोनों ख़रगोश अपने
बिलों से निकल आए थे और
बन्दर भी डाल से कूद मेरे पास आन बैठा था। वे तीनों गवाही
देंगे।“ गज़ाल रुहाँसी हो बोली !
”कहाँ रहती हो ? दोनों खरगोश्या कब के शिकार हो गये और बन्दर सड़ा सेब खाने से मर
गया है। तीनों ज़िन्दा नहीं
हैं।“
कह कर आहू ज़ोर ज़ोर हँसने लगी। उसकी हँसी देख
गज़ाल को अपनी बेबसी का
अहसास हुआ और वह सुबक सुबक कर रोने लगी। उसको यूँ
रोता देख पहले तो आहू
घबराई फिर डपटकर बोली।
”अपने घर जाओ ! सुबह सुबह आ हमारा रास्ता खोटा मत करो।“ कहती हुई आहू आगे बढ़
गई। मजबूर सी ग़जाल कुछ पल
खड़ी रही फिर टूटे मन से वापस लौटने लगी। निराशा
से वह टूट चुकी थीं उसे
अपने छौने की वापसी की अब कोई आशा दूर दूर तक नज़र नहीं
आ रही थी ! वह निढ़ाल सी
जाकर अपनी झाड़ के पास बैठ गई।
एक दिन और गुज़र गया।
हिरणी ने कुछ नहीं खाया।
भूख प्यास जो मरी सो मरी साथ ही उम्मीद भी मर गई।
ख़रगोश और बन्दर उसके
पुराने पड़ोसी थे। कहने को तो पूरा जंगल उसे जानता है मगर
छौने की बात तो वही तीनों
जानते थे।
एक दिन और गुज़र गया।
हिरणी ने कुछ खाया पिया
नहीं। बस आँखों के सामने छौने की छबि बार बार उभरती थी।
आह भर कर रह जाती।
”सखी पर भरोसा कर बहुत बुरा किया !“
उसका कहा जुम्ला जंगल की
हवा अपने साथ चारों तरफ ले जाने लगी। कुछ
देर बाद यही एक वाक्य
सरसराता हुआ पूरे जंगल में डोलने लगा :
”सखी पर भरोसा कर बहुत बुरा किया !“
जानवरों में से बहुतों ने
सुना अनसुना कर दिया मगर बहुतों ने ध्यान से सुना
और सोचा कि यह किसके मन की
पीड़ा है ?
बूढ़ी शेरनी ने सुना तो वह ठिठकी। हवा जब
बार बार यही सन्देशा देने
लगी तो उससे रहा नहीं गया और वह आदत से मजबूर हो जंगल
की खैर खबर लेने पहुँच गई।
घने पेड़ों और झाड़ियों से
गुज़र,
मैदान पार कर जब पहाड़ियों की तरफ मुड़ी तो
उसे वह आवाज़ साफ सुनाई
देने लगी। कुछ दूर और चली तो उसने माँद के सामने गज़ाल
को बैठा देखा जो हाल से
बेहाल पड़ी,
ठंडी आहें भर रही थी ! शेरनी पास पहुँची और उसने
आदत के मुताबिक आगे के पैर
उठा ताली बजाई। जबसे उसने अदालत लगानी शुरू कर
दी थी तब से उसने गुर्राना
और चिंघाड़ना बन्द कर दिया था। दाँत भी गिर गए थे। तेज
पंजों के नाखून भी घिस
चुके थे। उससे जानवरों ने डरना बन्द कर दिया था। और आदर
करना शुरू कर दिया था।
ताली की आवाज़ सुन ग़ज़ाल चौंकी। अपने सामने बूढ़ी शेरनी
को खड़ा देख वह अपने को रोक
न पाई और उसके पास पहुँच फूट फूट कर रोने लगी।
”अपना दुख बयान करो। यूँ रोने से मुश्किल हल नहीं होगी।“ शेरनी के कहने से हिरणी ने
अपनी सारी बिपदा कह सुनाई
और अन्त में अपनी कठिनाई भी कह सुनाई कि उसके पास
छौने को वहाँ रखने का न
कोई सबूत है और न गवाह !
उसकी बात सुन शेरनी
मुस्कुराई ”दोस्ती ‘गवाह’ और ‘सबूत’ नहीं मांगती
है। वह केवल
एतबार चाहती है। तुम्हारे
साथ धोखा हुआ है। तुम कल अदालत आओ। पंचायत तुम्हारी
इस ‘गिरह’ को खोलेगी।“
इतना कह कर बूढ़ी शेरनी चली
गई। गज़ाल ने अपना माथा पीटा।
”मुसीबत के वक़्त अक़ल भी काम नहीं करती है। मुझे पंचायत का
ख़्याल ही नहीं आया !“
सुबह सूरज की नारंजी
किरणों ने पूरे जंगल को सुनहरा बना दिया तब गज़ाल
माँद से निकली। वह सारी
रात सोई नहीं थी। चाल में ढीलापन था। मन बुझा बुझा सा था।
जब वह पंचायत की गली में
मुड़ी तो देखा ‘आहू’
भी छौने के साथ आगे आगे जा रही है।
उसका दिल धड़क उठा। उसने
अपनी चाल तेज़ कर दी।
अदालत का पंचायती मैदान
जानवरों से भरा था। बूढ़ी शेरनी के दायें बायें बूढ़ी
भेड़नी, लोमड़ी, उकाब और अजगर
बैठे हुए थे। मादाएँ ज़्यादा थीं। बूढ़ी शेरनी ने कार्रवाई
शुरू की और दोनों हिरणियों
ने अपनी अपनी कह सुनाई। जो हिरण हिरणी वहाँ मौजूद थे।
उनके भी समझ में नहीं आया
कि असली माँ की पहचान कैसे होगी। छौना तो आहू के साथ
है और गज़ाला को कभी किसी
ने छौने के साथ जंगल में घूमते देखा नहीं और दोनों दावा
कर रही हैं कि छौना उनका
है !
कुछ देर सन्नाटा छाया रहा।
पंचों ने आपसी सलाह-मशविरा कर कहा कि दोनों
माआएं कल नदी की तेज धार
वाले किनारे पर छौने के साथ पहुँचें। वहीं पर फैसला सुनाया
जायेगा। सभा बरख़ास्त हुई
और जानवर आपस में बातें करते अपनी अपनी दिशा की तरफ
बढ़ने लगे। उन्हें पंचों पर
विश्वास तो था मगर समझ नहीं पा रहे थे कि फैसला कैसे होगा।
भोर के समय झरने किनारे सब
जमा थे। छौना भी आहू के साथ खड़ा था। बूढ़ी
शेरनी ने ताली बजा कर सबको
ख़ामोश किया और गला साफ कर बोली।
”छौने को उठा कर बहते झरने की तेज धार में फेंक दिया जाए।“ सुन कर ऐसा सन्नाटा
छाया कि लगा जंगल में कोई
रहता ही नहीं है। जब वही हुक्म दोबार दोहराया गया तो
पास की डाल पर बैठा जवान
बन्दर उतरा और ‘छौने’ को उठा, उसने बहते पानी में फेंका।
यह देख सब जम से गये। सब
की साँसें थम सी गईं मगर गज़ाल बेचैन हो उठी और बहते
छौने के साथ नदी के
किनारे-किनारे दीवानी हो दौड़ने लगी। उसकी आँखों से पानी बह
रहा था ! सब ने देखा :
आहू चुपचाप बैठी थी।
गज़ाल दौड़ रही थी।
कोई कुछ समझ नहीं पा रहा
था कि छौने का क्या होगा।
जब बेताब हिरणी बहते पानी
में छौने को बचाने कूदने लगी तो बूढ़ी शेरनी की आवाज़
गूँजी !
”छौने को बाहर निकाला जाए।“
सुनते ही जवान चीते नदी
में कूदे और छौने को गर्दन से पकड़ बाहर निकाल
लाए। ‘आहू’
छौने के पास जाने लगी तो बूढ़ी लोमड़ी डपट पड़ी, ‘खबरदार !
बैठे हुए जानवरों में
खलबली मच गई। आहू सहम कर पीछे हटी। सब फैसला
सुनना चाह रहे थे। गज़ाल
छौने के बाहर निकाले जाने से ख़ुश थी। एक तरफ चुपचाप
खड़ीं मन ही मन प्रार्थना
कर रही थी।
”मेरा छौना बाहर सही सलामत निकल आया। मुझे और कुछ नहीं
चाहिए।“
इतना सोच वह
जाने लगी। उसे जाता देख
आहू मुस्कुराई। उसको अब यक़ीन हो चला था कि फैसला
उसके हक़ में होगा। उसी को
क्यों सभी को लग रहा था कि छौना आहू को मिलेगा। आहू
ही छौने की माँ है। परन्तु
फैसला कुछ और हुआ।
”छौना गज़ाल को दिया जाता है क्योंकि गज़ाल ही छौने की असली
माँ है। पंचों का यही
फैसला है।“ बूढ़ी शेरनी की आवाज़ गूँजी।
एक बार फिर सबकी साँसें थम
गईं। आहू के चेहरे का रंग उड़ गया। आँखें डबडबा
आईं और उसने सर झुका लिया।
गज़ाल छौने के पास आई तो छौना माँ से लिपटने लगा।
उसे याद आया जब वह पानी की
धार में बहाव के बीच डूब रहा था माँ, माँ पुकार कर रो रहा
था तब यही उसके संग दौड़ती
रोती साथ साथ भाग रही थीं। उस ने भी असली माँ को पहचान
लिया था।
आज पूरे चाँद की रात थी।
हवा में ठंडक बसी थी।
चांदनी सारे जंगल पर छिटकी थी !
गज़ाल को ऐसी ही रात का
इन्तज़ार था,
जब छौना समझदार हो जाए तो वह उसको
कहानी सुनाए।
सच्ची कहानी !
सच्ची मगर दर्द भरी कहानी।
जब छौना उसके पास आकर लेटा
तो गज़ाल उसे चाटने लगी,
आज वह छौने के रोज़ पूछे
जाने वाले सवाल कि माँ
मेरे बाबा कहाँ है?
उससे पहले ही जवाब देने लगी।
”वह ऐसी ही चाँदनी रात थी बेटे ! जब शिकारी की बन्दूक से
निकली गोली तेरे बाबा को
लगी थी। दूसरी गोली मेरे
पास से सनसनाती गुज़री थी।“
”फिर माँ ?“ छौना का दिल
धुकधुक करने लगा। बड़ी बड़ी आँखों में भय उभरा।
”दूसरे दिन जब मैं तेरे बाबा को ढूँढने पहुँची तो वहाँ केवल
उनके बदन से टपका खून पड़ा
थां जो ताज़ा और गर्म था।
वह जख्मी थे। उन्हें ढूँढ कर वे शिकारी ले गये।“
”तुमने कैसे जाना ?“
”वहाँ पहियों के निशान थे। जख़्मी होकर वह कुछ दूर दौड़े
होंगे। मैं आगे निकल गई वह
पीछे रह गयें मेरे पेट में
तू था। मुझे तुझे बचाना था। यही एक बात वह मुझसे बार बार कह
रहे थे। मैं मजबूर हो गई
और ...“
”आदमी शिकार क्यों करते हैं ? हम तो उनको नहीं मारते ?“ छौने का सवाल
सुन चाँद
कहकहा मार कर हँस पड़ा।
चाँदनी गहरी हो गई।
”पता नहीं, अब तो उनके
पास पेट की आग बुझाने के लिए तरह तरह के अनाज और फल
हैं मगर पुरानी आदत नहीं
छोड़ते।“
गज़ाल ने कहा।
”उन्हें छोड़ना पड़ेगा माँ ! जीने का हक़ सबको है।“ छौने को क्रोध आ गया था। उसकी
बात सुन कर ... इस बार
चाँद पहले से भी ज्यादा जोर से हँसा। चाँदनी पहले से ज़्यादा
शीतल हो उठी तो गज़ाल ने
झुरझुरी सी ली और बिना जवाब दिये झाड़ियों की ओट में
चली गई। छौना भी माँ के
पीछे गया। जंगल रुपहला हो उठा था।
चाँद का हँसना जारी था।
उस रुपहली चाँदनी में चाँद
के अलावा किसी ने नहीं देखा।
आहू चुपचाप माँद के पास
आकर बैठ गई थी !
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